रेटिंगः एक स्टार
निर्माताः समीर नायर,दीपक सहगल और नंदिता दास
लेखकः नंदिता दास और समीर पाटिल
निर्देषकः नंदिता दास
कलाकारः कपिल षर्मा,षहाना गोस्वामी,गुल पनाग,सयानी गुप्ता,स्वानंद किरकिरे,युविका ब्रम्ह,प्रज्वल साहू व अन्य
अवधिः एक घंटा 42 मिनट
मषहूर अभिनेत्री नंदिता दास ने 2008 में गुजरात दंगों पर आधारित फिल्म ‘फिराक’ का लेखन व निर्देषन किया था.फिर दस वर्ष बाद 2018 में उन्होेने दूसरी फिल्म ‘‘मंटो’’ का निर्देषन किया था.और अब बतौर निर्देषक व सहनिर्माता वह अपनी तीसरी फिल्म ‘‘ज्विगाटो’’ लेकर आयी हैं,जो कि कहीं से भी नंदिता दास कील फिल्म नही लगती.इस फिल्म से नंदिता दास ने भी साबित कर दिया कि जब कलाकार, सरकार या सरकारी धन के लिए काम करता है,तो वह अपनी कला के साथ केवल अन्याय ही करता है.जी हाॅ!नंदिता दास ने इस फिल्म को उड़ीसा राज्य की फिल्म पाॅलिसी को ध्यान मे ेरखकर ही फिल्माया है,जिससे वह उड़ीसा सरकार से सब्सिडी के रूप में एक मोटी रकम एंठ ले.मगर इस प्रयास में उन्होने फिल्म की विषयवस्तु का सत्यानाष कर डाला.मगर वर्तमान समय का एक तबका जरुर खुष होगा कि नंदिता दास ने भुवनेष्वर के मंदिरों के दर्षन करा दिए.
परिणामतः
वह बेरोजगारी,सामाजिक असमानता और राजनीतिक अंतः दृष्टि को ठीक से चित्रित करने की बजाय एक उपदेषात्मक व अति नीरस फिल्म बना डाली.कम से कम नंदिता दास से इस तरह की उम्मीद नही की जा सकती थी.यह महज संयोग है कि नंदिता दास निर्देषित यह तीसरी फिल्म बतौर अभिनेता कपिल षर्मा की तीसरी फिल्म है.सबसे पहले कपिल षर्मा ने असफल फिल्म ‘‘किस किस को प्यार करुं’’ में अभिनय किया था. फिर उन्होने असफल फिल्म ‘फिरंगी’ में अभिनय किया,जिसका उन्होने निर्माण भी किया था और अब उन्होेने नंदिता दास के निर्देषन में तीसरी फिल्म ‘‘ज्विगाटो’ मंे अभिनय किया है.इसी के साथ उन्होने साबित कर दिखाया कि उनके अंदर अभिनय की कोई क्षमता नही है,वह तो महज टीवी पर उलजलूल हकरतें व द्विअर्थी संवादांे के माध्यम से लोगांे को कभी कभार जबरन हंसा सकते है
कहानीः
कोविड महामारी के बाद पूरे देष में आर्थिक हालात खराब हुए हैं. बेरोजगारी बढ़ी है. लोगों को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा.दो वक्त की रोटी व परिवार को चलाने के लिए लोग मजबूरन अनचाहा काम भी करने पर मजबूर हुए हैं,जहां उन्हे अच्छे पैसे नही मिल रहे.इसी पृष्ठभूमि में नंदिता दास ने यह कहानी रची है.यह कहानी है रांची से नौकरी की तलाष में भुवनेष्वर,उड़ीसा आकर बसे मानस महतो की.मानस महतो ( कपिल षर्मा) अपनी पत्नी प्रतिमा ( षहाना गोस्वामी),बूढ़ी मां माई (शांतिलता पाधी),एक बेटे कार्तिक (प्रज्वल साहू) व एक बेटी पूरबी (युविका ब्रह्मा)के साथ रहते हैं .वह एक घड़ी कंपनी मंे मैनेजर थे,मगर अचानक नौकरी चली जाती है और पूरे आठ माह की बेरोजगारी के बाद मानस को ‘ज्विगाटो’ कंपनी में डिलीवरी ब्वौय की नौकरी मिलती है,जहां काम का दबाव होने के अतिरिक्त कई अन्य दबाव भी हैं.अब मानस का जीवन दंड देने वाले एल्गोरिदम, असभ्य ग्राहकों, तत्काल समीक्षा और सारी शक्ति रखने वाली कंपनी की दया पर आश्रित है. मानस नेकदिल इंसान है जो अब भी मानता है कि गृहस्थी पालना करना उसकी जिम्मेदारी है.प्रतिमा अपने पति की मदद के लिए मालिष का काम करती है.पर उसे अच्छा नही लगता.तब वह एक षाॅपिंग माल में नौकरी करना चाहती है.पर मानस इंकार कर देता है.लेकिन एक दिन जब मानस को ‘ज्विगाटो’ से बाहर कर दिया जाता है,तब वह पत्नी के षाॅपिंग माल में नौकरी करने पर खुषी जाहिर करता है.
लेखन व निर्देषनः
‘ज्विगाटो’ के पहले दृष्य से अंतिम दृष्य तक के एक भी दृष्य में कोई दम नही है.फिल्म दर्षकों को बांधकर रखने मे पूरी तरह से विफल रहती है. पटकथा अति घटिया है.ऐसा लगता है कि उड़ीसा सरकार ने नंदिता दास से कहा कि हम सब्सिडी(उड़ीसा सरकार अपनी फिल्म पौलिसी के तहत उड़ीसा में फिल्माए जाने पर डेढ़ करोड़ से तीन करोड़ तक की सब्सिडी देती है. ) के रूप में धन देंगें और आप फिल्म बना दे,जिसमें राज्य को चित्रित किया जाएं.नंदिता दास ने सोचा कि एक डिलीवरी ब्वौय ही पूरे षहर की सड़कों पर घूम सकता है,मंदिर,छोटी बस्ती,चमचमाती इमारतों ,बंगलों से लेकर पब तक में जा सकता है.बस उन्होने ‘ज्विगाटो’ बना डाली. नंदिता दास ने बेरोजगारी का मुद्दा भी उठाया है,मगर बहुत ही सतही स्तर पर ही उठाया.एक डिलीवरी ब्वौय के संघर्ष को भी वह ठीक से चित्रित नहीं कर पायी. वास्तव में पूरी फिल्म में वह उड़ीसा सरकार के इनीसिएटिब का पालन करते हुए मंदिर वगैरह के अलावा कलर्स चैनल के सीरियल ‘नागिन’ के दृष्य को दिखाने पर ही ध्यान दिया.हमारे देष मे सामाजिक असमानता एक कटु सत्य है.इसे मिटाना संभव नही है,क्योंकि हमारीे सरकारें भी सामाजिक असमानता को मिटाने में यकीन नही करती.लेकिन इस बात को फिल्म का मुख्य मात्र मानस उभार नही पाता.जबकि छोटे किरदार में मानस की पत्नी प्रतिमा के माध्यम से एक दो जगह सामाजिक असमानता का दंष उभर कर जरुर आता है.प्रतिमा के किरदार के माध्यम से ‘इनडिग्निटी आफ लेबर’ की बात उभर कर आती है.मसलन फिल्म के एक दृष्य मंे जब प्रतिमा माल में नौकरी करने जाती है,तो उन्हे बताया जाता है कि यह ट्वायलेट सिर्फ ग्राहक के लिए हैं,इसका उपयोग वह नहीं कर सकती.उनके लिए नीचे ट्वायलेट बने हुए हैं.तो वहीं एक दृष्य है,जहां प्रतिमा एक उंची चमचमाती इमारत में मसाज के लिए ग्राहक के घर जाती है,तो उससे कहा जाता है कि नौकरों के लिए दूसरी लिफ्त है,उससे वह जाए.मंुबई की लगभग हर इमारत में मकान मालिकों के लिए अलग लिफ्ट होती है और स्ट्ाफ व अन्य लोगों के लिए अलग लिफ्ट होती है.पूरी फिल्म देखने के बाद समझ में नही आता कि नंदिता दास ने फिल्म के अंदर मानस की ट्ेन यात्रा के जो दृष्य रखे हैं,उनका औचित्य क्या है?इसी तरह नंदिता दास ने गुलपनाग,सयानी गुप्ता व स्वानंद किरकिरे के किरदार रखे हैं,जिनका कहानी से कोई संबंध्ंा समझ से परे है.
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सुखद बात यह है कि नंदिता दास ने अपनी इस फिल्म के माध्यम उसे ‘एप’ आधारित कार्य संस्कृति के मिथक को तोड़ने का काम किया है.फिल्म में मानस को दंडित करने का काम भी एप ही करता है,मगर उनकी प्रगति का निर्धारण करने, उन्हें पुरस्कृत करने या उनकी शिकायतों को सुनने के लिए कभी उपस्थित नहीं होते हैं.पर नंदिता दास ने अपरोक्ष रूप से एक दृष्य में डिलीवरी ब्वौय के गलत व्यवहार पर कुठाराघाट भी किया है. जब सरकारी सहायता की दरकार हो तो फिल्मकार किस तरह डरकर काम करता है,उसका आइना है नंदिता दास की फिल्म ‘ज्विगाटो’.नंदिता दास ने कुछ दृष्यों में सूक्ष्मता से धन व वर्ग विभाजन की तस्वीर पेष की है,पर खुलकर नही.लगता है कि वह इसे पेष करते हुए डर रही हैं.फिल्म का काॅसेप्ट सही है,मगर उसे सही ढंग से निरूपति नही किया गया.इंटरवल के बाद फिल्म काफी धीमी और नीरस हो जाती है. नंदिता दास ने अपनी इस फिल्म में मजदूर वर्ग और देष के सत्तर प्रतिषत लोगों से जुड़ा मुद्दा जरुर उठाया, मगर उसके साथ वह न्याय नही कर पायी.पूरी पटकथा व कहानी भटकी हुई है.
अभिनयः
टीवी पर काॅमेडी षो के माध्यम से लोगों का मनोरंजन करते आ रहे अभिनेता कपिल षर्मा ने ‘ज्विगाटो’ के डिलीवरी ब्वौय मानस के किरदार में साबित कर दिया कि उनका अभिनय से कोसों दूर तक कोई नाता है,मगर ‘इगो’ बहुत ज्यादा है.यह ईगो उनके अभिनय में भी नजर आता है.परिवार की नींव और पति के पीछे चट्टान की तरह खड़ी रहने वाली तथा गर्व या परंपरा को अपनी राह का रोड़ा बनाए बिना समस्याओं के व्यावहारिक समाधान की तलाश करने वाली प्रतिमा के किरदार में षहाना गोस्वामी का अभिनय जानदार है.कार्तिक के किरदार में बाल कलाकार प्रज्ज्वल साहू अपनी छाप छोड़ जाता है.गुल पनाग, स्वानंद किरकिरे और सयानी गुप्ता का फिल्म मंे होना या न होना कोई मायने नहीं रखता.