लेखक- राजेश जोशी
आज मुझे कहीं भीतर तक गुदगुदी हुई थी. वैसे तो बात झुंझलाने लायक थी परंतु मैं खुशी से विभोर हो उठी थी. मेरा सातवर्षीय बेटा रोहित धूलपसीने से सराबोर तूफानी गति से कमरे के भीतर आया. गंदे पैरों से साफसुथरी चादर बिछे पलंग पर 2-4 बार कूदा, फिर पलंग से ही उस कुरसी के हत्थे पर कूदा जिस पर मैं बैठी थी. हत्थे से वह मेरी गोद में लुढ़क गया और मचलमचल कर अपने धूलपसीने से मेरी साफसुथरी रेशमी साड़ी को सराबोर कर दिया. 2-4 मिनट मुझ से लिपटचिपट कर ममता की सुरक्षा से आश्वस्त हो, फ्रिज की ओर लंबी कूद लगाई. एक बोतल निकाल कर गटागट पानी पिया. फिर जिस गति से आया था उसी गति से वापस बाहर खेलने के लिए निकल गया.
रोहित की उस हुड़दंगी हरकत के बावजूद मैं खुश इसलिए हुई क्योंकि ऐसी हरकत ने उस का बचपना लौट आने का दृढ़ संकेत दिया था. मेरी यह बात शायद अटपटी या मूर्खतापूर्ण लगे क्योंकि किसी बच्चे का बचपना लौटने का भला क्या मतलब है? बच्चा है तो बचपना तो होगा ही.
बिलकुल ठीक बात है. रोहित में भी बचपना था. शुरू के 4 साल तक तो उस का बचपना ऐसा मोहक था कि सूरदास के श्याम का चित्रण भी मुझे फीका लगता था. एक बरफी के टुकड़े या टौफी के लिए ठुमकठुमक कर जब भी वह अपने मासूम करतब दिखाता तो बरबस ही रसखान की ‘छछिया भरि छाछ पे नाच नचावें’ वाली पंक्तियां याद आ जाती थीं. उस की संगीतमय, लयदार, तुतलाती बोली पर मैं यशोदा मैया की तरह बलिबलि जाती थी.
लेकिन ऐसा बस 4 सालों तक ही हुआ. उस के बाद अचानक उस का बचपना कम होता गया और वह मुरझा सा गया. उस के मुरझाने का जिम्मेदार अन्य कोई नहीं बल्कि मैं ही थी, उस की मां.
किसी भी मां की तरह मैं ने सपने में भी नहीं चाहा था कि मेरी कोख का फूल असमय मुरझाए. बल्कि मेरी कल्पना का फूल तो कुछ ज्यादा ही खिलाखिला, रंगीन, स्वस्थ, प्यारा व मनमोहक था. शायद कल्पना की यह ज्यादती ही मेरी शत्रु बन गई, मेरे रोहित के बचपने के लिए घातक बन गई.
रोहित के 4 साल का होने तक तो मैं सचमुच एक खुशहाल मां रही. मैं ने जो भी कल्पनाएं की थीं वे मानो किसी जादू की बदौलत पूरी होती गईं. बल्कि कल्पना की जो ज्यादती की थी वह भी पूरी होती गई.
मैं ने चाहा था कि पहलापहला मेरा लड़का हो. वही हुआ. वह किसी मौडल बेबी की तरह घुंघराले बालों वाला, तंदुरुस्त, गोरा व चमकदार हो, रोहित वैसा ही पनपा. मेरी कल्पना के मुताबिक ही उस ने 2-3 शिशु सौंदर्य प्रतियोगिताएं जीतीं. अपने सुदर्शन पति के साथ स्वयं सुदर्शना बनी अपने किलकारते बेटे को प्रैम में लिटा कर जब मैं पार्क में टहलती थी तो कोई गहरी साध पूरी हुई लगती थी.
संतान के मामले में हर ओर से प्रथम गिने जाने की मेरी आदत सी पड़ गई. मुझे इस बात का अभिमान भी हो चला था.
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फिर मानो मेरे अभिमान पर किसी ने चोट करनी शुरू कर दी. उस दिन रोहित को सजाधजा कर तथा खुद भी सजधज कर मैं व मेरे पति दाखिले के वास्ते रोहित को स्कूल ले गए. वह स्कूल शहर का सब से अग्रणी अंगरेजीदां स्कूल था. हालांकि वह हमारे घर से 20 किलोमीटर की दूरी पर था परंतु सिर्फ दूरी के कारण उस सब से प्रसिद्ध स्कूल को नकारना मुझे मान्य नहीं था. फिर उस स्कूल की एक शानदार स्कूल बस चलती थी जोकि हमारे घर के नजदीक ही रुकती थी. स्कूल की यूनिफौर्म में रोहित को बस स्टाप तक लाना व बस में चढ़ा कर उसे ‘बायबाय’ करने वाली कल्पना को साकार करने के लिए यह बेहद उपयुक्त मौका था.
लेकिन ये सब कल्पनाएं धराशायी होती लगीं, जब रोहित को स्कूल में प्रवेश न मिला. इस का कारण यह था कि प्रवेश परीक्षा में रोहित कुछ भी नहीं कर पाया था. दरअसल, मैं ने उसे कुछ सिखाया ही नहीं था. मुझे यह एहसास ही नहीं था कि इतने छोटे बच्चे की लिखित परीक्षा भी होगी. फिर मैं ने दांतों तले उंगली दबा कर रोहित से भी छोटे बच्चों को वहां पैंसिल थामे ‘ए’ से ‘जेड’ तक लिखते देखा. एक 4 साल का बच्चा तो वहां ऐसा था जो बड़ेबड़े सवाल हल कर के सब को चौंका रहा था. कहते हैं उस का टीवी में भी प्रदर्शन हो चुका था.
स्कूल से विफल लौट कर मैं अपने कमरे में खूब रोई. इतना रोई कि घर वाले परेशान हो उठे. सुंदर सी ‘रिपोर्ट कार्ड’ में शतप्रतिशत नंबर व शानदार रिपोर्ट लाता रोहित, नर्सरी राइम को पश्चिमी धुन में सुनाता रोहित, मीठीमीठी अंगरेजी में सब से बतियाता रोहित…सारे सपने चूरचूर हो गए थे.
बहरहाल, यह बेहिसाब रोनाधोना काम आया. मेरे लगभग विरक्त ससुर विचलित हो उठे. पहले तो वे मुझे सुनासुना कर मेरी सास को समझाते रहे कि बच्चे को पास के रवींद्र ज्ञानार्जन निकेतन में डाल दो, वहां अंगरेजी भी पढ़ाते हैं परंतु माहौल हिंदुस्तानी रहता है. अपने त्योहार, संस्कृति आदि के बीच रह कर बच्चा बड़ा होता है. पुस्तकें भी बाल मनोवैज्ञानिकों द्वारा स्वीकृत, सरल व क्रमबद्ध होती हैं. परंतु उन की ये सब बातें मुझे उन्हीं के हिसाब की पुरातन व बूढ़ी लगीं. मेरा रुदन जारी रहा.
फिर मेरी सास के उकसाने पर वे कहीं बाहर गए. थोड़ी ही देर में लौट आए और मुझे सुनाते हुए मेरी सास से बोले, ‘‘इस से कह दो कि कल रोहित का दाखिला उसी स्कूल में हो जाएगा. शिक्षा निदेशक ने प्राचार्य से कह दिया है.’’
यह कह कर वे अपने कमरे में चले गए और मैं बौखलाई सी चुप हो गई. बस, ऐसे ही किन्हीं इक्कादुक्का मौकों पर याद आता था कि बिलकुल साधारण और सरल व्यवहार वाले मेरे वृद्ध ससुर न सिर्फ अवकाशप्राप्त उपकुलपति हैं बल्कि अपने तमाम छात्र पदाधिकारियों के बीच आदरणीय हैं.
मैं मन ही मन ससुरजी की जयजयकार कर प्रफुल्लित हो उठी. रात को जब पतिदेव दफ्तर से लौटे तो उन्हें दरवाजे पर ही यह बात बताई. वे खुश होने के साथ थोड़ा चिंतित भी हो उठे कि क्या रोहित अन्य बच्चों के बराबर आ पाएगा? मैं ने कहा, ‘‘चिंता की बात न करें. महीने भर के भीतर ही रोहित कक्षा में प्रथम होगा.’’
उस के बाद दाखिला, वरदी, किताबें, जूते, टाई आदि खरीदने, पहनाने के
2-4 खुशनुमा दिन निकले. स्कूल द्वारा अनापशनाप फंडों के नाम पर ढेर सारा पैसा बटोरने से कोफ्त तो हुई पर खुशी की इतनी भरमार थी कि उस का ज्यादा असर नहीं पड़ा.
पहले दिन रोहित जब स्कूल बस में चढ़ा तो उस का चेहरा घबराहट के मारे सफेद पड़ा हुआ था. फिर भी वह मुसकराने का प्रयत्न कर रहा था क्योंकि मैं ने उसे बहादुर बच्चा बने रहना तथा कतई न रोने का पाठ अच्छी तरह पढ़ा रखा था. मैं जब उसे बैठा कर बस से उतरने लगी तो वह दहाड़ मार कर रो पड़ा. मेरा दिल भी कांप गया तथा मैं इस इरादे से उस के पास बैठ गई कि स्कूल तक छोड़ आऊंगी. लेकिन तभी मशीनी मिठास भरी अंगरेजी बोलती हुई सिस्टर ने रोहित को लौलीपौप दे कर चुप कराया तथा मुझे ‘कोई चिंता न करें, हम सब संभाल लेंगे’ कहते हुए नीचे उतार दिया. जब बस चली तो मुझे फिर रोहित का कातर रुदन सुनाई पड़ा. बहरहाल, मैं मन कड़ा कर वापस घर आ गई. आखिर स्कूल जाना तो उसे सीखना ही था.
सुबह 7 बजे का निकला रोहित 4 बजे वापस घर पहुंचा. एक तो ऐसे ही स्कूल का समय लंबा था, ऊपर से दूर होने के कारण 2 घंटे आनेजाने में खपते थे. वापसी में रोहित रोंआसा होने के साथसाथ उनींदा भी था. वह आते ही मुझ से लिपट कर जोर से रोने लगा और ‘स्कूल नहीं जाऊंगा’ की रट लगाने लगा. मेरे अंदर की मां काफी कसमसाई थी, परंतु जो धुन सवार थी उस की तीव्रता में वह कसमसाहट खो गई. मैं उसे अंगरेजी बोलती हुई प्यार करने लगी और उसे उकसाने लगी कि अपना रोना वह अंगरेजी में रोए. चौकलेट दे कर उसे चुप कराया और दुलारतेपुचकारते हुए खाना खिलाया.
ऐसा शुरू में कुछ दिन हुआ और फिर शीघ्र ही यह सब आदत में आ गया. सप्ताहभर बाद जब स्कूल से लौट कर अलसाया सा रोहित खाना खा रहा था, मैं ने उस के बस्ते को जांचा. मैं उदास हो गई. जब देखा कि गणित व अंगरेजी की कापियों में लाल स्याही से अध्यापिकाओं ने लिख रखा था, ‘बच्चा कमजोर व पिछड़ा है. अभिभावक विशेष तैयारी कराएं. गृहकार्य में ‘ए’ से ‘जेड’ तक 10 बार लिखना था.
खैर, उस समय जल्दीजल्दी रोहित को खाना खिला कर मैं वहीं मेज पर उसे ‘ए बी सी डी’ सिखाने बैठ गई.
दो एक वर्ण तो उस ने लिख लिए परंतु फिर वह टालमटोल करने लगा. उसे नींद भी आ रही थी और वह बाहर बच्चों के साथ खेलना भी चाह रहा था. मैं थोड़ा खीज गई. मैं चाह रही थी कि एक ही दिन में वह पूरी वर्णमाला सीख ले. मैं ने उसे पीट कर सिखाना शुरू कर दिया. उस ने 2-1 वर्ण और सीख लिए. उस के बाद तो जैसे वह न सीखने पर अड़ गया. मैं सिखाने पर अड़ गई. मारने पर वह बेशर्म की तरह रोया. मुझे और गुस्सा आ गया.
इधर मेरी सास उलाहना देने लगीं, ‘‘अरे, अभी बच्चा है, सीख जाएगा धीरेधीरे. उसे खेलने दे कुछ देर. सुबह का गया स्कूल से थक कर आया है.’’
सास से मेरा मेल कम ही खाता था. उन की ये बातें तो मुझे बिलकुल नहीं सुहाईं. मैं रोहित को उठा कर अपने कमरे में ले गई. उस के छोटे से हाथ में जबरदस्ती पैंसिल थमा कर उस के सामने स्केल ले कर खड़ी हो गई कि देखूं, कैसे नहीं सीखता. स्केल से रोहित डरता था, ऊपर से मेरी मुखमुद्रा देख कर उस के बालक मन को कुछ अंदाजा हो गया. वह सहम कर चुप हो गया. पूरी चेष्टा कर के उस ने घंटेभर में 8-10 टेढ़ेमेढ़े वर्ण लिखने सीख लिए. मैं ने खुश हो कर उसे प्यार किया. वह भी एक थकी हुई बचकानी हंसी हंसा. फिर जल्दी ही वह सो गया.
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इस तरह से रोहित से बचपना छीनने की शुरुआत हुई. मैं ने रोहित के पीछे पड़ कर रोज उसे पढ़ानालिखाना शुरू कर दिया. सुबह उठते ही उसे स्कूल जाने के लिए तैयार करती थी. तैयार करतेकरते भी उस से कुछ पूछतीबताती रहती थी. वह भी मशीनी तौर पर बताए और याद किए जाता था. शाम को स्कूल से लौटते ही मैं उस का बस्ता टटोलती थी तथा खाना दे कर कपड़े बदलवाती. फिर उस की अनेक आवश्यकताओं को जल्दी से निबटा कर उस को पढ़ाने बैठ जाती. इधर, सास ने ज्यादा भुनभुनाना शुरू कर दिया था. उन का गुस्सा भी मैं रोहित को पढ़ाते हुए निकालती.
छमाही परीक्षाओं में रोहित अपनी कक्षा में प्रथम आया. मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. घर में जो भी पड़ोसी या मेहमान आता, उसे मैं वह रिपोर्ट कार्ड जरूर दिखाती.
समय गुजरता गया. मैं अन्य सब बातों की उपेक्षा कर इस चेष्टा में लगा रही कि रोहित कक्षा में प्रथम बना रहे. धीरेधीरे वह शारीरिक तौर पर कमजोर पड़ने लगा. उस की आंखें सूनीसूनी रहने लगीं. खेलने में उस का मन न लगता. चिड़चिड़ाने भी लगा था. कई बार वह अजीब सी जिद कर के ऐसे रोने लगता कि मुझे गुस्सा आ जाए. उसे प्यार करने पर अब संतुष्टि सी नहीं होती थी. वह कुछ अजीब सी बातें व हरकतें करने लगा था. मुझे जबतब उस पर गुस्सा आने लगा.
कमजोर पड़ता देख उसे मोटा करने के लिए मैं टौनिक देने लगी. मक्खन व शहद जैसी चीजें ज्यादा खिलाने लगी, पर वह और कमजोर होता गया. अच्छीअच्छी चीजें जब मैं जबरदस्ती उसे खिला देती तो उसे उलटी हो जाती. उस से मैं परेशान व दुखी हो जाती.
फिर वह पढ़ाई में भी पिछड़ने लगा. कहां तो शुरू में उस ने सबकुछ तेजी से सीखा, परंतु तीसरी कक्षा में वह ठीक न चल पाया. घर में सबकुछ सही सुना कर वह परीक्षा में गलत कर आता. इस का उसे अफसोस भी होता और मेरी डांट अलग पड़ती. मैं दिनरात किताब लिए उस के पीछे पड़ी रहती. वह भी रटता रहता परंतु फिर भी वह पिछड़ने लगा था.
मेरी कल्पना के सारे विस्तार एकसाथ सिकुड़ने लगे. मैं बौखलाने लगी. कई बार मुझे रोना आ जाता. मुझे लगता कि कहीं कुछ गलती तो जरूर हुई है. पर मैं यकीन नहीं कर पाती कि जो मैं ने इतना जोरशोर व मेहनत से किया था उस में कुछ गलत था.
गरमियों के अवकाश के दौरान रोहित अधिकतर बीमार रहा. खेलना तो वह जैसे भूल ही गया था. एक दिन उस का बुखार कुछ ज्यादा ही बढ़ गया. वह बेहोश सा हो गया जिस से मैं घबरा गई. मेरी घबराहट और बढ़ गई जब वह बेहोशी में कभी पहाड़े सुनाने लगा तो कभी अंगरेजी के प्रश्नोत्तर. ऐसा वह लगातार देर तक करता रहा. मैं डर गई.
मेरे पति देर रात तक दफ्तर से लौटते थे, इसलिए मुझे हिम्मत बंधाने के खयाल से मेरे सासससुर पास बैठे थे. वे पहाड़े व प्रश्नोत्तर उन्होंने भी सुने. मुझे लगा कि सास तीखा उलाहना देंगी, पर उन्होंने कुछ नहीं कहा बल्कि मुझे हिम्मत बंधाने लगीं, ‘‘दवा दे दी है, बुखार उतरता ही होगा.’’
आज कभी न बोलने वाले मेरे ससुर बोले, ‘‘बेटी, जमाने के मायाजाल में इतना न फंसो कि प्रकृति की लय से कदम ही टूट जाएं. तुम्हारी धुन के कारण रोहित अपनी सब से मूल्यवान वस्तु गंवा चुका है यानी अपना बचपना. जरा 3 साल पहले के रोहित को याद करो. क्या यह वही रोहित है? खूब पढ़ालिखा कर इसे क्या बना दोगी? समाज व जिंदगी में ठीक तरह से बरत सके, इस के लिए पढ़ाई जरूरी तो है परंतु उस का मकसद व तरीका मानसिक विकास वाला होना चाहिए.
‘‘तुम ने तो मानसिक विकास के बजाय इसे मानसिक कुंठा का शिकार बना दिया और खुद भी मनोरोगी बन रही हो. जो भी है, अभी बात हाथ से निकली नहीं है. इन 3 सालों में अंगरेजियत भरी इस टीमटाम के खोखलेपन को तुम भी काफीकुछ समझ चुकी होगी.
‘‘बच्चे को जूते, टाई और बैल्ट में कस कर हर समय बाबू साहब बनाने के बजाय उसे अन्य बच्चों के साथ उछलकूद करने दो. बच्चे की यही प्राकृतिक आवश्यकता भी है. उसे फिर टौनिक देने की जरूरत नहीं रहेगी. उसे किसी नजदीक के छोटे व कम समय वाले स्कूल में डालो ताकि वह जल्दी घर आ सके और मां के प्यार की खुशबू पा सके. अंगरेजी के वाक्य रटाने के बजाय उसे समझ आने वाली भाषा में उन वाक्यों की गहराई को समझाओ ताकि उस का मानसिक विकास हो.
‘‘उसे खेलखेल में पढ़ाने के तरीके ईजाद करो. पढ़ाई उतनी ही कराओ जितनी कि उस का नन्हा दिमाग जज्ब कर सके. बच्चे को प्रथम लाने के चक्कर में न रहो. उस के दिमाग को विकसित करो. वैसे भी तुम पाओगी कि अधिकतर सही विकास वाले बच्चे ही अच्छे नंबर लाते हैं, विशेषकर बड़ी कक्षाओं में.’’
ससुरजी की बात मैं ने बहुत ध्यान से सुनी. यह लगभग वही आवाज थी जोकि आजकल मेरे मन में उठने लगी थी.
कुछ देर बाद रोहित का बुखार जब कुछ कम हुआ तो सासससुर अपने कमरे में चले गए. मेरी सोई हुई ममता कुछ ऐसी जागी कि थरथराते हुए मैं ने रोहित को अपने से चिपका लिया. रोहित क्षणभर को नींद से जागा और कुछ अविश्वास से मुझे देखा. फिर ‘मां’ कहता हुआ मुझ से कस कर लिपट कर सो गया.
दूसरे दिन मैं ने अपने सासससुर को सुनाते हुए पति से कहा, ‘‘सुनिए, रवींद्र ज्ञानार्जन निकेतन का प्रवेशफार्म ले आना. इस बार रोहित को यहीं डालेंगे.’’
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