भागने के रास्ते: मुनमुन को अपनी चाहत की पहचान तो हुई, लेकिन कब

Serial Story: भागने के रास्ते (भाग-3)

दोनों कंधों को पकड़ कर बड़े ध्यान से वह मुझे देखने लगा, पर मैं इंतजार करती रही.

‘‘ठीक है, चलते हैं जुल्फी को ढूंढ़ने,’’ हार कर वह बोला.

आठ

तारा पिंजरे में घुसने का रास्ता ढूंढ़ रही थी, पर हम लोगों ने उसे खोला नहीं. उस की तड़प अब नहीं देखी जाती.

नौ

‘‘याद है, दिसंबर की वह रात, मुनमुन? हम दोनों कौल पर थे, रैसपिरेटरी वार्ड में. क्या इस बात को 23 साल हो गए हैं? यकीन नहीं होता,’’ गाड़ी चलातेचलाते उस ने मुझ पर एक उड़ती सी नजर डाली, ‘‘और वह रात? वह रात तो अविस्मरणीय है. शांत कर रहा था मैं तुम्हें, हमेशा की तरह. क्या बुलाते थे सब मुझे? ‘योर्स फौरऐवर’? नहीं, कोई दूसरा नाम था, ‘फौरऐवर लवर’ था शायद. क्यों?’’

मैं ने सिर हिला कर उस से कह दिया कि मुझे फुजूल की वे सब बातें याद नहीं हैं और वह दबी हंसी हंस कर रह गया. फिर बोलता चला गया. ‘‘लो, याद आ गया, ‘साइलैंट सफरर’.’’

कार की खिड़कियां बंद थीं. हवा का झोंका अंदर घुस कर कभी आह भर रहा था, कभी बड़बड़ा रहा था. किंतु अनुपम अपने शब्द सपाट आवाज में बोलता चला जा रहा था.

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‘‘उस वक्त क्या मालूम था कि बाहर गैस का सफेद बादल शहर के अंधेरे रास्तों पर उतर कर कंबलों के नीचे ठंड से थरथराते इंसानों के कानों में कुछ ऐसा फुसफुसा कर चला जा रहा  था कि वे खुदबखुद मौत से समझौता करते हुए लुढ़कते जा रहे थे? जब फटाक से दरवाजा खुला और बुलावा आया और हम वार्ड में बेतहाशा भागेभागे गए, तब जा कर दिखे सैकड़ों कसमसाते, कराहते लोग, अपने बदन पर से काबू खोते हुए, गलियारे में उकड़ूं बैठे हुए, वेटिंगरूम में रोतेतड़पते हुए, प्रवेशद्वार पर बैठे बिलबिलाते हुए, बाहर की सीढि़यों पर लोटतेबिलखते हुए. ऐसी कोई जगह बची थी क्या, जहां नजर पड़ती और लोग न दिखते?

‘‘लोगों की जलती आंखों को ब्राइन से धो कर, उन के फेफड़ों से ऐक्सैस फ्लूईड निकाल कर काटी थी हम अस्पताल वालों ने वह रात. कई घंटों तक तो यही मालूम नहीं था कि हम सामना किस दुश्मन का कर रहे हैं. किसी को अंदाजा भी नहीं था कि आखिर वह जानलेवा गैस थी क्या? बस जो दिख रहा था, वही मालूम था. लोगों की छातियों में आग लगी हुई थी, मुंह से झाग निकल रहा था, टिशू जल रहे थे, फिर कारबाइड वालों के यहां से खबर आई कि साइनाइड प्वाइजनिंग का इलाज करें.

‘‘पागलों की तरह और्डर दे रहे थे हम एकदूसरे को, रोबोट की तरह इलाज कर रहे थे मरीजों का, अभी एक मरीज गया नहीं कि दूसरा मुंह से झाग उगलते हुए आ गया, जैसे कि हम किसी कार बनाने वाली फैक्टरी की असैंबली लाइन पर खड़े मजदूर हों. फिर रात के कहीं 3 बजे जा कर हमें थोड़ी राहत मिली. और भी कई डाक्टर और स्टाफ आ गए. लेकिन हजारों की तादाद में मरीज भी तो आ रहे थे.’’

अब जा कर कहीं अनुपम ने लंबी सांस ली. मैं ने मौका लपका और बोली, ‘‘क्यों बिना वजह ये पुरानी बातें उठा रहे हो?’’

‘‘तुम्हारा मतलब है, क्यों मैं गड़े मुरदे खोद रहा हूं? क्योंकि आज मुझे लगता है कि कुछ मुरदों को जगाना होगा,’’ वह फिर शुरू हो गया.

‘‘रात के 3 बजे तक हम दोनों ही थक गए थे. एकाएक तुम धड़ाम से गिर पड़ीं. मैं तुम्हारी मदद करने आया तो देखा, तुम कुछ और ही रट लगा रही थीं, ‘जुल्फी वहां है… उसे बचाना है.’ अब अस्पताल में हमारे बिना काम चल सकता  था. हम ने दवाएं उठाईं, अपने मास्क पहने और स्कूटर पर रवाना हो गए. वह पता जो तुम मेरे कानों में चिल्लाए जा रही थीं, मुझे अच्छी तरह मालूम था. फिर भी मैं तुम को चिल्लाने से रोक नहीं पा रहा था क्योंकि जो नजारा इतनी रात को हमारे चारों तरफ था, उस के लिए मैं तैयार न था.

‘‘अपनी आंखों को मींचे हुए, हजारों की तादाद में आदमी, औरत, बच्चे या कहें कि इंसानों के जंगल के जंगल अस्पताल की तरफ चले जा रहे थे. पीछेपीछे चल रहे थे उन के गाय, बैल, कुत्ते, बकरी आदि. चारों तरफ थी वह मनहूस धुंध जो अपनी क्रूर, स्पर्शहीन उंगलियों से हमें टटोल रही थी, जांच रही  थी, हौले से सहला रही थी और मौका मिलते ही बदन में छेद कर रही थी. जो लुढ़क जाते, वे कुचले जाते, इंतजार करते रह जाते मौत का. आखिरकार वे कायामात्र ही तो थे-लहू, चमड़ी, हड्डी और मल-उस रात मल ज्यादा था. ये सब क्या तुम सच में भूल गईं, मुनमुन?

‘‘हां, तुम्हें तो उस वक्त एक ही ऐड्रैस की फिक्र थी, खोली नंबर 152, जेपी नगर. फिर हम उस के दरवाजे तक भी पहुंच गए. द्वार अंदर से बंद था. 2 धक्कों में खुल गया. अंदर धुंध में 2 लोग सोते दिखे. औरत तो खत्म हो चुकी थी. उस की बगल में एक बच्ची भी थी, वह भी नहीं बची. तुम सीधे उस आदमी के पास पहुंची थीं, उस की सांसें बरकरार थीं. तुम उसे हिला रही थीं, तमाचे मार रही थीं और रोतेरोते उस से जगने को कह रही थीं. तुम ने उसे चारपाई से उठा कर बिठा दिया. जब वह जागा, तुम्हें हैरानी से देखने लगा. तुम ने चिल्लाना शुरू कर दिया. ‘उठो जुल्फी, मैं हूं, मुनमुन, देखो, मैं आ गई,’ तुम बारबार यही बोले जा रही थीं.

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‘‘मुझे लगा कि वह हलका सा मुसकराया भी. मैं तेजी से सोडियम थियोसल्फेट की शीशी ले कर पास पहुंच गया. वह आसपास देखने लगा और तुम ने उसे गैस लीक के बारे में बताना शुरू कर दिया. उस की नजर अपनी पत्नी और बच्ची की तरफ पड़ी. वह उन की तरफ बढ़ा, कुछ बड़बड़ाया. वह फटी आंखों से बस उन्हें देखे जा रहा था. जैसेतैसे खड़ा भी हो गया, सीरिंज अभी उस के हाथ की नाड़ी में लगी हुई थी, तुम्हारे कंधों का सहारा ले कर जब वह जोर से चिल्लाया, तब जा कर तुम ने उसे बताया कि वे दोनों अब नहीं रहीं.

‘‘वह सीधे दोनों की ओर भागने को हुआ, खुद देखने. मैं हवा में शीशी उठाए यह सब देख रहा था. तुम्हारे शब्द कान में पड़े, ‘मैं तुम्हें मरने नहीं दूंगी. आई विल फोर्स यू टु लिव.’ तब उस ने मेरे हाथों से शीशी छीन ली और उसे जमीन पर फोड़ दिया. उस का संतुलन गड़बड़ा गया और वह फिर तुम पर गिर पड़ा. तुम उसे सहारा दे रही थीं और सिसकियां भरभर कर कह रही थीं कि अब तुम आ गई हो न, उसे छोड़ कर नहीं जाओगी. तुम ने उस से यह भी कहा कि तुम उस से हमेशा प्यार करती थीं और करती रहोगी.

‘‘उस वक्त जैसे मेरी रगों में बहता खून जम गया था, अब वह तुम्हें देख कर अजीब तरह से मुसकरा रहा था, जैसे कि उसे तुम पर हंसी आ रही हो. फिर एक झटके में वह सिकुड़ गया, जैसे पेट में बल पड़ गया हो. तुम्हारे हाथ उस की कमर में बंधे थे. फिर जब उस ने सिर उठाया, लड़खड़ा रहा था, उसी समय उस ने सब उलट दिया. तुम्हें उस के लड़खड़ाते, गिरते बदन को छोड़ना पड़ा, क्योंकि तुम्हारी आंखें उसे जो उल्टी हुई थी, उस में जल रही थीं. उस ने तुम्हारी बांहों में ही तो दम तोड़ा था, क्या तुम्हें यह भी याद नहीं?’’

दस

अनुपम ने गाड़ी रोक दी.

‘‘क्या हुआ?’’ मैं चारों तरफ देखने लगी. लगा जैसे किसी ने सपने से जगा दिया हो.

उस ने जवाब नहीं दिया. कुछ देर के लिए सड़ी गरमी में रुकी हुई कार से बाहर की सटरपटर देखती रही. हम जिस इलाके में थे उसे एक अपमानजनक बवाल ने निगला हुआ था. वही खोली, जुल्फी की खोली. उस की खोली के सामने कचरे का अच्छाखासा ढेर लगा हुआ था. उस के ऊपर एक निरीह दुबला कुत्ता गहरे चिंतन में डूबा बैठा था. पास में ही कई सारी बच्चियां उछलकूद कर रही थीं और एक छोटा सा लड़का अपने बूढ़े दादा के साथ खाट पर बैठा था. लड़का जांघिया पहनना भूल गया था और उस के दादा हाथ में उस का जांघिया पकड़े हुए थे. वे भी किसी चिंतन में ही डूबे हुए से थे.

लेकिन मुझे तो बेचैनी हो रही थी  अनुपम के घटना वर्णन से. अपने सालों की प्रैक्टिस में मैं ने कई कहानियां सुनी हैं, एक से एक विचित्र केसहिस्टरी. मुझे लग रहा था, मैं वह सब छोड़छाड़ कर आ गई हूं. अपने अच्छे दोस्त की ओर एक उदास सरसराती हुई सी नजर फेंकते हुए मैं कार से निकल कर उस बूढ़े आदमी से मिलने चली गई. कुछ सवालजवाब के बाद वापस आ गई और पैसेंजर सीट पर बैठ कर हंस पड़ी.

‘‘कैसी बेवकूफ हूं मैं, अनुपम. यह कैसे सोच लिया कि 25 साल के बाद भी लोग इधर ही मिलेंगे. चलो, घर चल कर डाइरैक्टरी में देखते हैं.’’

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ग्यारह

तारा पिंजरे का मोह छोड़ कर घर से बाहर चली गई थी. हम सब ने चैन की सांस ली थी.

बारह

मैं पिछली फ्लाइट से दिल्ली होते हुए वापस आ गई, रामअवतार के पास.

Serial Story: भागने के रास्ते (भाग-2)

उस ने मुझे अब भी नहीं बताया कि वह किस के साथ भागने की सोच रही थी. मैं उसे हैरानी से देख रही थी. सोच रही थी कि क्या यह संभव है कि मैं उसे जानती हूं. मैं ने उस वक्त महसूस किया कि मैं किसी मुसलमान इंसान को नहीं जानती, सिर्फ…

अचानक मन में चौंका देने वाला विचार उठा. इस से पहले कि मैं कुछ कह पाती, वह बोली, ‘‘हम दोनों बहनें जैसी हैं, मुनमुन. जानती हो, मुझे तुम पर हमेशा से कितना गर्व है. गर्व है अपनी दोस्ती पर भी. और तुम्हारा वह प्रशंसनीय आत्मविश्वास, उसे मैं कभी टूटते हुए नहीं देख सकती. स्कूल में कितनी बार सोचा कि तुम्हें बताऊं…’’

मुझ से और रहा नहीं गया. मैं ने उसे टोक कर पूछा, ‘‘क्या वह जुल्फिकार है?’’

उस ने जवाब नहीं दिया. उलटे 2 मोटीमोटी आंसू की रेखाएं उस के गालों पर लुढ़कने लगीं…तो वह जुल्फिकार ही था.

मैं अपना स्वाभिमान पी कर बोली, ‘‘पागल हो गई हो क्या?’’

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वह चुप रही तो मैं ने थोड़ा और बोल दिया, ‘‘भागने की सोच रही हो? वह भी ऐसे आवारा, निकम्मे लड़के के साथ जिस का कोई भविष्य ही नहीं है. वैसे महाशय कर क्या रहे हैं आजकल? न, ऐसा हर्गिज मत करना. पछताओगी.’’

वह चुपचाप जमीन पर आंखें गड़ाए सुनती जा रही थी और मैं भी बोलती चली जा रही थी, जैसा कि हमेशा होता था. ‘‘मेरी बात सुनो रत्ना, उस का तो कोई फ्यूचर है नहीं. खुद गिरेगा, तुम्हें भी साथ ले जाएगा. अभी तुम 18 साल की ही तो हो. चलो, कालेज खत्म कर लो पहले फिर यह भागनेवागने के बारे में सोचना.’’

‘‘मगर…’’

मेरे इतना समझाने पर भी वह अगरमगर कर रही थी. मुझे उसे टोकना पड़ा. दरअसल, मेरे टर्मिनल इम्तिहान आने वाले थे. काम बहुत था. वैसे भी मैं कोई महात्मा तो थी नहीं कि ऐसी बातों को घंटों सुनती रहती, ‘‘भागने की बात भूल जाओ, मेरी भोलीभाली गाय.’’

ऐसा कह मैं वहां से चल पड़ी.

पांच

फाइनल ईयर में उस का पत्र आया, ‘‘पिछली बार जब मिले थे, कैसे सख्तजान थे हम दोनों. लेकिन मुनमुन, सच्चे दोस्त एकदूसरे को चाहना बंद कर ही नहीं सकते. चल, एक अच्छी खबर सुनाती हूं, मेरी जान. अब हमारी एक बेटी है. नन्ही सी, प्यारी सी. जुल्फी और मैं उसे मुन्नी के नाम से बुलाते हैं. वैसे मुनमुन नाम रखा है. कहो, कैसा लगा?’’

कैसा लग सकता था मुझे? मेरा दिल डूब रहा था.

खत में और भी बहुतकुछ लिखा था. भोपाल में रहते थे दोनों. वहीं किसी गैराज में जुल्फी को काम मिल गया था. देरदेर तक काम करता था. मुश्किल जिंदगी थी, अभावों से भरी, पैसे की कमी, खाने की कमी, कई दुर्घटनाएं भी हो चुकी थीं, एक थोड़ा सीरियस हादसा भी हो गया था, ऐसा लिखा था उस ने. खत में आगे यह भी लिखा था, ‘‘वे सब दिन अब बीत चुके. जो बीत गई सो बात गई. अब बच्ची के आने से शायद सब कुछ संभल जाए. कम से कम हम दोनों एकसाथ तो हैं.’’

‘कैसे? कैसे संभालेगी जिंदगी, रत्ना?’ मैं ने फौरन उस का पत्र मरोड़ कर, गेंद बना कर फेंक दिया.

ऐसी अनिश्चित जिंदगी को चुनने के लिए क्या वह मुझ से यह उम्मीद कर रही थी कि तालियां पीटूं, उसे वाहवाही दूं? ऊपर से यह बात कि किसी तरह के अमिट प्रेम ने जुल्फी को मेरी बेचारी रत्ना के साथ जोड़ रखा था, इस से ज्यादा उलटीपुलटी बात की मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी. असल बात क्या थी, मुझे साफ दिखाई दे रही थी. मुझ से संपर्क में रहने के चक्कर में वह कालेज में रत्ना से चिपका रहा. फिर रिश्तों में ऐसा फंसा कि अब देखो, कैसे दयनीय हाल में पहुंच गया. साथ में बेचारी रत्ना की जिंदगी भी बरबाद कर के रख दी. ऐसी बातें अकसर होती हैं. मैं मनोचिकित्सक हूं, आएदिन देखती हूं. मुझे नहीं मालूम होगा तो और किसे होगा?

छह

ये लोग मुझे यह मनवाना चाहते हैं कि जुल्फी अब नहीं रहा. उसे मरे तो सालों बीत गए. और तो और, वह मेरी ही बांहों में मरा था. ये सब बातें मैं भूल भी कैसे गई, उन्हें यकीन नहीं होता.

सब से कठोर तो मेरी मां थीं जो गुस्से में बड़बड़ा रही थीं, ‘‘कैसी औरत है? अच्छेखासे पति को छोड़ आई, उस बेचारे रामअवतार को.’’

‘‘और यह तुझे किस ने बताया कि कालेज गए बच्चों को मां की जरूरत नहीं होती?’’

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मां के साथ 2 दिन रहना दुश्वार हो गया था.

‘‘हम ने क्या तुझे अच्छी शिक्षा इसलिए दी थी कि एक दिन ऐसा आए जब हम शर्म से कहीं मुंह दिखाने लायक ही न रहें? अपनी उम्र देखी है? 50 की होने जा रही है, पंख तितलियों वाले ही लगे हैं अब तक. उफ्फ, ऐसी बेटी पैदा होते ही क्यों नहीं मर गई?’’

अतिशयोक्ति मेरी मां की अपनी एक खास प्रवृत्ति है. लेकिन मैं मां, पत्नी या बेटी के रूप में बस एक रोल भर नहीं, इंसान भी हूं. मेरे सीने में धड़कता दिल है  और तन में ताकत है. मन यदि कुछ करने की चाह रख रहा है तो क्या न करें. सालों से एक आदमी की परछाईं मुझ पर मंडरा रही थी. उस परछाईं पर ध्यान मेरा अब जा के ही तो गया न? मां ये सब समझने को तैयार ही नहीं थीं. रोज वही रोना होता था. मैं ने फिर बक्सा उठाया और चली गई अनुपम के यहां.

सात

मैडिकल कालेज में मेरा एक अच्छा दोस्त हुआ करता था. नैफ्रोलौजिस्ट था. भोपाल में रहता था. वहीं पैदा हुआ, बड़ा हुआ. दिल्ली में 5 साल मैडिकल कालेज में पढ़ कर वापस भोपाल में ही सैटल हो गया था.

‘‘वैलकम बैक सरवाइवर,’’ मुसकराते हुए उस ने मेरा स्वागत किया.

हां, हम दोनों सरवाइवर थे. 1984 में भोपाल के एक ही अस्पताल में रेजिडेंट डाक्टर थे. हमारी दोस्ती में एक नया पहलू जुड़ गया था जब गैस लीक के उस हादसे में खुद को बचाया था हम ने और साथ में सैकड़ों लोगों को भी. बड़ा अजीब, उन्मादी समय था वह, मेरे मानसिक डर से अब अच्छी तरह ब्लौक्ड. इसी में भला था.

दिल्लीवासी होने के बावजूद, मैं भोपाल क्यों गई रेजिडेंट डाक्टर बन कर? यह एक असाधारण कदम था. सच तो यह है कि उन दिनों मेरी सोच कुछ नौर्मल नहीं थी. होशोहवास उड़े हुए थे. मेरे पैर मुझे दिल्ली से वहां ले गए जहां जुल्फी एक बीवी और बच्ची, जो मेरी ही हमनाम थी, के साथ बहुत गर्दिश के दिन गुजार रहा था. वहां जा कर मैं क्या करूंगी, खुद को मालूम नहीं था.

तो काफी सालों के बाद मैं अनुपम से मिल रही थी. बहुत बदल गया  था. बाल कुछ कम और सफेद हो गए थे. चश्मा मोटे लैंस वाला था. चेहरे की जानीपहचानी लकीरों से अब कई नई शिकनें चटक के निकल आई थीं.

‘‘जवानी तुम से डर कर भाग गई,’’ मैं ने उस से कहा.

वह हंस कर बोला, ‘‘मगर तुम वैसी की वैसी हो, कैसे आना हुआ?’’

‘‘किसी की तलाश में आई हूं, अनुपम. जुल्फी को ढूंढ़ने में तुम्हें मेरी मदद करनी पड़ेगी.’’

मेरी बात सुन कर उस के चेहरे पर तो हवाइयां ही उड़ने लगीं. कहा कुछ नहीं, बस देखता रहा भौचक्की निगाहों से. पता नहीं क्यों, मेरे मन में एक चिंताजनक खयाल उठा कि कहीं रोने न लगे वह. फौरन कड़ी आवाज में मैं बोली, ‘‘मैं चाहती हूं कि तलाश तुरंत शुरू कर दूं.’’

वह हिला तक नहीं. सीधा खड़ा रहा. फिर एकाएक उस के चेहरे पर खिन्न सी मुसकान उभर आई.

‘‘तुम्हें आराम की जरूरत है,’’ काफी गहरी शांति के बाद वह बोला.

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मैं तेजी से उठी और दरवाजे की तरफ चल पड़ी. उस की पत्नी ने फौरन हट कर मेरे लिए रास्ता भी खाली कर दिया. एक बात मुझे कभी समझ में नहीं आ पाई. अनुपम और मेरी सालों पुरानी सच्ची दोस्ती के बावजूद, उस की बीवी ने कभी मुझ में कोई उत्साह नहीं दिखाया.

‘‘रुको, मुनमुन. क्या यह मुमकिन है कि तुम सबकुछ भूल गई हो…कि जुल्फी अब कहां है?’’

आगे पढ़ें- दोनों कंधों को पकड़ कर…

Serial Story: भागने के रास्ते (भाग-1)

एक

उन दिनों हम ऊटी में रहते थे. एक शाम मेरे पति राम, मेरी 10 वर्षीय बेटी प्रियंवदा के साथ कहीं से वापस आए.

‘‘यह देखो तो…हमारे साथ कौन आया है!’’

प्रियंवदा ने एक गत्ते का डब्बा पकड़ रखा था, उसे मेज पर रख दिया. ढक्कन को हलके से खोला तो अंदर बिना दुम वाला एक छोटा सा चूहेनुमा जानवर था. ‘‘मम्मी, देखिए, यह तारा है.’’

हम उसे देख रहे थे, तारा हमें देख रही थी. वह एक टशनदार हैम्स्टर थी. चौकस, उत्सुक और हद दरजे की फौर्वड. शर्मीलापन का ‘श’ भी नहीं समझ रही थी. घबरा तो बिलकुल नहीं रही थी.

कुछ साल पहले भीमसेन ने एक जरबिल पाली थी. बड़ी प्यारी सी. ऐलिस नाम था उस का. उस बेचारी का तो देहांत हो चुका था. उसी का तीनमंजिला पिंजरा अब भी पड़ा था घर में. सो पिंजरा साफ कर के तारा के लिए तैयार कर लिया गया. पिंजरे में घुसते ही तारा की छानबीन भी शुरू हो गई. कुछ ही देर में उस ने पिंजरे का कोनाकोना समझ लिया. अंदर रखी हर चीज को वह सूंघ चुकी थी, खाने की डिब्बी को छान चुकी थी. प्रियंवदा ने उसे व्यस्त रखने के लिए लकड़ी के जो टुकड़े रखे थे उन्हें वह दांत से दबा कर देख चुकी थी. पानी की बोतल चूस चुकी थी. सब जांचपड़ताल पूरी होने के बाद वह पहियादौड़ लगा रही थी. सिर्फ वह ‘सीरियल बार’ अनछुआ छोड़ दिया जो उस के लिए पैट शौप से ये दोनों लोग खरीद के लाए थे.

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मुझे लगता है, उस रात बिस्तर में नींद का इंतजार करते हुए हम सभी के चेहरों पर मुसकान चिपकी हुई थी, एक प्यारी सी बढ़ोतरी जो हो गई थी हमारे परिवार में.

हमारे यहां सुबह सब से पहले राम ही उठते हैं. अगली सुबह कौफी का पानी रख हीटर को औन कर के वे टौयलेट चले गए. आंखों में नींद अब भी भरी थी. टौयलेट सीट पर बैठेबैठे वे नींद के कुछ आखिरी पल चुरा रहे थे, जब उन्हें अपने दिन का पहला ‘गुड मौर्निंग’ मिला. देखा कि तारा उन के पांव का अंगूठा कुतर रही थी.

‘‘आप इतनी सुबह उठ कर क्या कर रही हैं, मैडम? और वह भी अपने पिंजरे के बाहर?’’ राम ने उसे संभाल कर उठा लिया. टौयलेट सीट के पीछे देखा तो वहां उस का नया बसेरा पाया. जिस सीरियल बार में वह बिलकुल रुचि नहीं दिखा रही थी उसे वह रातभर में कई टुकड़ों में तोड़तोड़ कर एकएक कर वहां ले आई थी. बार ने अब एक ढेर का रूप धारण कर लिया था.

‘‘अरे मेरी बुद्धू चुहिया, तुम यहां कैसे रह सकती हो?’’ यह कह कर राम ने उसे वापस पिंजरे में पहुंचा दिया.

सब नाश्ता कर रहे थे और तारा पिंजरे में रखे इगलू, यानी अलास्का में बर्फ के बने गोलघर, जिन के अंदर लोग बंद हो जाते हैं और बाहर की दुनिया से उन का कोई वास्ता नहीं रहता, के अंदर मुंह फुलाए बैठी थी. बाहर निकल कर तभी आई जब बच्चे स्कूल चले गए थे. बड़ी बगावती मूड में थी. पिंजरे की कडि़यां पासपास ही थीं, मगर कोनों से बाहर निकलने की थोड़ी गुंजाइश थी. वहीं से, थोड़ा ऐंठ कर, थोड़ा खुद को सिकोड़ कर, अपने को पतला कर के जैसेतैसे वह फिर बाहर निकल आई और घर के दूसरे कोने में स्थित टौयलेट की तरफ भागने लगी. राम फिर उसे वापस ले आए.

‘अब इस आफत की पुडि़या के लिए नया पिंजरा लाना पड़ेगा,’ ऐसा सोचतेसोचते मैं कोनों की कडि़यों को कस के तार से बांधने लग गई. तारा ने फिर कडि़यों के बीच चौड़ा गैप ढूंढ़ना शुरू कर दिया.

नखरे उस के तब शुरू हुए जब उस ने अपने भागने के सारे रास्ते बंद पाए. पागल हो गई वह और बेतहाशा पिंजरे की सलाखों पर चढ़ने लगी. तीसरी मंजिल पर चढ़ कर, कभी मेरी, कभी राम की आंखों में आंखें डाल कर उस ने पिंजरे की दीवार पर सिर मारना शुरू कर दिया. गुस्से में पास रखे लकड़ी के टुकड़े को लात मारी. दोनों हाथों से सलाखें पकड़ कर जोरजोर से हिलाईं. इतनी छोटी सी चुहिया का इतना बड़ा संग्राम. हम दोनों को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था. मुझे डर था, उस का यह आवेग कहीं उसे बीमार न कर दे, सो पास पड़ी भीमसेन की कमीज से उस के पिंजरे को ढक दिया. तब जा कर वह कुछ शांत हो पाई.

ऐसा ही कुछ तो मेरे साथ हुआ.

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दो

कुछ साल बाद, जब मैं ने अपने 46 साल पूरे किए और मेरे दोनों बच्चे कालेज के लिए घर छोड़ कर चले गए थे, मुझे वैसी ही व्याकुलता महसूस होने लगी जैसी उस दिन तारा ने जाहिर की थी. राम को छोड़ कर और अपनी सालों की सफल साइकाइटरी की प्रैक्टिस को डंप कर के, अपनी जवानी के खोए हुए प्यार, जुल्फी, को ढूंढ़ने के लिए मैं भोपाल निकल पड़ी.

तीन

तारा पिंजरे से एक बार और निकल गई थी, पर कुछ घंटों में ही उस के सामने आ कर बैठ गई थी. पिंजरा ही उस का घर जो था.

चार

पता नहीं कहां से स्कूल के आखिरी सालों में जुल्फिकार आ कर भरती हो गया. आर्ट्स स्टूडैंट था. कुछ ही हफ्तों में ऐसा लोकप्रिय हो गया कि बच्चे तो बच्चे, शिक्षक भी उस के जादू में आ गए थे और यह जानते हुए भी कि स्कूल कैप्टन के ओहदे के लिए मैं सालों से कामना, तैयारी और इंतजार कर रही थी, उन्होंने यह पद उस बंदर को दे दिया.

‘‘तुम को तो इस साल अपने ऐंट्रैंस एग्जाम्स के बारे में सोचना है, बेटा,’’ मैथ्स के टीचर ने ये ढाढ़स भरे सादेसूखे शब्द कह कर मुझे किनारे खिसका दिया.

क्या मालूम, वह जुल्फिकार का बच्चा लंगड़ा था या डरपोक, मैं ने उसे कभी अकेले चलते हुए नहीं देखा. हमेशा उस के साथ लड़कों का एक झुंड चलता था. सब चमचे थे उस के. उसे देखते ही मुझे जबरदस्त चिढ़ मचती थी, मेरा खून खौलने लगता था. मैं रास्ता बदल देती थी. उस की तरफ देखती भी नहीं थी.

इस का मतलब यह नहीं कि मुझे यह जान कर हैरानी हुई हो कि जनाब को इश्क हो गया था मुझ से. मेरा मतलब है, ऐसे कम ही हैं जो मुझ पर फिदा नहीं हुए हैं.

रोजाना लंच में और जब भी थोड़ा अवकाश मिलता, मैं और मेरी सब से प्यारी सहेली रत्ना हाथों में हाथ डाल, जाड़ों की गुलाबी धूप में स्कूल के ग्राउंड में घूमा करते थे, गप मारते थे, अपने पसंदीदा गीत गुनगुनाते थे. बहुत गहरी थी हमारी दोस्ती. अकसर यों टहलतेटहलते मेरी नजर क्लास की तरफ जाती और मैं हंस देती. ‘‘वह देखो, वहां कौन खड़ा है! बेवकूफ, तुम सब का हीरो!’’ खोयाखोया सा अपने साथियों से टिक कर खड़ा खिड़की से मुझे घूरघूर कर देखता था वह पागल जुल्फी. ‘लूजर’, सीधीसादी रत्ना कभी किसी का बुरा न सोचने, न चाहने वाली लड़की थी. वह चुप ही रहती.

रत्ना से मैं फिर तब मिली जब मैं मैडिकल कालेज के सेकंड ईयर में थी. स्कूल छोड़ने के बाद हमारे संपर्क टूट गए थे. अजीब बात थी, क्योंकि स्कूल में हम दोनों को अलग करना असंभव ही था.

उस के पहले वाक्य ने ही मुझे हिला कर रख दिया.

‘‘हम भागने की सोच रहे हैं. तुम्हारी राय चाहिए, मुनमुन.’’

कुछ देर तक मैं ‘क्याक्या’ ही करती रही. ये भागनेवागने की बातों की तो मैं बस स्पोर्ट्स में ही कल्पना कर सकती थी.

‘‘भागने की सोच रही हो, किस के साथ?’’ मैं बड़ी मुश्किल से पूछ पाई.

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अंतर्मुखी स्वभाव की थी मेरी रत्ना. उस वक्त मुझे एहसास हुआ कि हमेशा उस के कान मेरी बातों के लिए तैयार रहते थे. आज पहली बार गीयर उलटा लगा था.

वह रोने लगी, ‘‘मैं उस से प्यार करती हूं, मुनमुन. हम दोनों एकदूसरे को बेहद चाहते हैं.’’

सिसकियों के बीच वह बोलती गई, ‘‘लेकिन वह…वह मुसलमान है, और मेरे मम्मीपापा को तो तुम जानती ही हो. कभी नहीं मानेंगे…उफ, कितनी दुखी हूं मैं! अब तुम ही मुझे बताओ, मैं क्या करूं?’’

आगे पढ़ें- उस ने मुझे अब भी नहीं बताया कि वह…

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