मेरी माताजी की उम्र 62 वर्ष है, उन की किडनियां फेल हो गई हैं, क्या इस उम्र में उन का किडनी ट्रांसप्लांट संभव है?

सवाल

मेरी माताजी की उम्र 62 वर्ष है. उन की किडनियां फेल हो गई हैं. हम डायलिसिस से परेशान आ चुके हैं. क्या इस उम्र में उन का किडनी ट्रांसप्लांट संभव है?

जवाब

अधिकतर लोग किडनी ट्रांसप्लांट करा सकते हैं. इस से कोई अंतर नहीं पड़ता कि मरीज की उम्र क्या है. यह प्रक्रिया उन सब के लिए उपयुक्त है जिन्हें ऐनेस्थीसिया दिया जा सकता है और कोई ऐसी बीमारी नहीं हो जो औपरेशन के पश्चात बढ़ जाए जैसे कैंसर आदि. हर वह व्यक्ति किडनी ट्रांसप्लांट करा सकता है जिस के शरीर में सर्जरी के प्रभावों को सहने की क्षमता हो. किडनी ट्रांसप्लांट की सफलता की दर दूसरे ट्रांसप्लांट से तुलनात्मक रूप से अच्छी होती है. जिन्हें गंभीर हृदयरोगकैंसर या एड्स है उन के लिए प्रत्यारोपण सुरक्षित और प्रभावकारी नहीं है.

ये भी पढ़ें-

मुझे पिछले 10 वर्षों से डायबिटीज है. कुछ दिनों से मुझे हाथोंटखनों और पंजों में सूजन की समस्या हो रही है. इस का कारण क्या हो सकता है?

दरअसलडायबिटीज केवल एक रोग नहीं मैटाबोलिक सिंड्रोम है जिस का प्रभाव किडनियों सहित शरीर के प्रत्येक अंग और उस की कार्यप्रणाली पर पड़ता है. हाथोंटखनों और पंजों में सूजन की समस्या डायबिटिक नैफ्रोपैथी के कारण हो सकती है. डायबिटीज से पीडि़त 30-40% लोगों में डायबिटिक नैफ्रोपैथी के कारण किडनियां खराब हो जाती हैं. आप अपनी यूरिन की जांच कराएं. यूरिन में ऐल्ब्यूमिन का आना और शरीर में क्रिएटिनिन बढ़ना डायबिटिक नैफ्रोपैथी के संकेत हैं. अगर यूरिन में माइक्रो ऐल्ब्यूमिन नहीं आ रहा है तो किडनियों पर असर नहीं हुआ है. डायबिटिक नैफ्रोपैथी को ठीक नहीं किया जा सकता है लेकिन उपचार के द्वारा इस के गंभीर होने की प्रक्रिया को बंद या धीमा किया जा सकता हैउपचार में रक्त में शुगर के स्तर और रक्तदाब को जीवनशैली में परिवर्तन ला कर और दवाइयों से नियंत्रित रखा जाता है.

 

किताबें महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने में मदद कर सकती हैं- डाक्टर स्मिता सिंह

डाक्टर स्मिता सिंह, क्षेत्रीय प्रबंधक, उत्तर प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास प्राधिकरण.

किताबें केवल शिक्षित ही नहीं करतीं आत्मनिर्भर और समृद्ध भी बनाती हैं. नोएडा की रहने वाली और उत्तर प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास प्राधिकरण की क्षेत्रीय प्रबंधक डाक्टर स्मिता सिंह के घर करीब 4 हजार किताबों से सुसज्जित पुस्तकालय है. उन्होंने 31 साल की उम्र के बाद अपनी पीएचडी पूरी की है.

उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद विश्वविद्यालय से मैनेजमैंट में गोल्ड मैडलिस्ट रह चुकीं स्मिता ने पत्रकारिता और विश्वविद्यालय में पढ़ाने से अपनी नौकरी की. स्मिता ने पढ़ाई का शौक अपनी मां सुमन सिंह से हासिल किया और आगे अपनी बेटियों वरेण्या और वारालिका को दिया है. स्मिता को जीवन में कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ा. कैंसर जैसे रोग को भी मात दी.

डाक्टर स्मिता सिंह से महिला शिक्षा, कैरियर और समाज के विभिन्न मुद्दों पर विस्तार से बात हुईं:

अपनी मां और अपनी बेटी के बीच के समय में क्या अंतर देख रही हैं?

समाज में बहुत बदलाव हुआ है. मेरी मां ने एमए तक की पढ़ाई की थी. उस के बाद भी नौकरी नहीं की. उन की लिखी भूगोल की किताब पाठ्यक्रम का हिस्सा है. मां से मैं ने पढ़ने का शौक पाया. उन का मेरे जीवन पर बहुत प्रभाव है. मेरी सोच है कि लड़कियों को न केवल पढ़ाई करनी चाहिए, बल्कि अच्छी पढ़ाई करनी चाहिए. उन्हें अपने संस्कारों और विचारों के साथ आधुनिक सोच भी रखनी चाहिए. इस से महिलाओं में आत्मनिर्भरता आती है. वे अपने फैसले और विचार मजबूती के साथ समाज और परिवार के सामने रख सकती हैं. इन की बात को सभी सम्मान देते हैं.

ये भी पढ़ें- प्रैग्नेंट अनुष्का का शीर्षासन और समाज पर साइड इफेक्ट्स

महिला सशक्तीकरण के बहाने कुछ विचार महिला और पुरुष के बीच भेदभाव को बढ़ाने का काम करते हैं. आप को क्या लगता है?

हम किसी भी तरह के भेदभाव को बढ़ावा देने वाली विचारधारा से सहमत नहीं है. समाज और परिवार का भला वहीं है जहां महिला और पुरुष एकसाथ चलते हैं. पतिपत्नी के साथ चलने से आपस में बेहतर तालमेल बनता है. इस का सकारात्मक प्रभाव पतिपत्नी के साथसाथ बच्चों, परिवार और समाज पर भी पड़ता है. विचारों में अंतर को भी एकदूसरे का सम्मान दे कर स्वीकार करने की जरूरत होती है. अलगाव से किसी का भला नहीं होता है.

आप नौकरी और परिवार के साथसाथ समाजसेवा के लिए भी वक्त निकाल लेती हैं. समय का मैनेजमैंट कैसे करती हैं?

अपने स्कूली दिनों से ही मैं समय का मैनेजमैंट करती रही हूं. यह मेरे जीवन का अंग बन गया है. नौकरी में मुझे किसी से कभी कोई शिकायत नहीं हुई. लोगों को भी समय देती हूं और अपनी दोनों बेटियों का भी पूरा खयाल रखती हूं. मेरी बेटियों की शुरू से ही आदत रही है कि वे हर बात समझती हैं. पढ़ाई में दोनों ही बहुत अव्वल हैं. समाज के लिए जरूर समय निकालना चाहिए. यह प्रेरणा मेरे मातापिता से मिली. मैं महिलाओं के लिए रोजगार, सैनिटरी पैड्स की जागरूकता व शिक्षा के लिए पूरी तरह से काम करती हूं. कई बार पर्सनल लैवल पर भी मदद करती हूं, जिन का मैं जिक्र नहीं करती. कुछ स्कूलों को मदद करती हूं. एक छोटा सा स्कूल शुरू भी किया जिस में आज बड़ी संख्या में बच्चे पढ़ते हैं.

आप ने 31 साल की उम्र के बाद पीएचडी पूरी की. इस के बारे में बताएं?

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमबीए में गोल्ड लाने के बाद मुझे रीवा विश्वविद्यालय में लैक्चरर की नौकरी मिल गई, मगर वहां मेरा मन नहीं लग रहा?था. उसी समय 1990 में मैं ने यूजीसी नैट क्वालीफाई कर लिया. वहां से भी पब्लिक सर्विस में आ गई. मेरे पास रिसर्च के भी कई प्रोजैक्टस थे. इन सब के बीच समय नहीं मिल रहा था. ऐसे में पीएचडी करने में समय मिला. भले ही इस में समय लगा पर मुझे बेहद खुशी है. नाम के आगे डाक्टर लिखा जाने से गर्व का एहसास होता है.

कैंसर जैसे रोग से निकलना आसान नहीं होता है. आप ने इसे कैसे मात दी?

शादी के 5 साल के बाद मुझे ब्रैस्ट कैंसर का पता चला था. उस समय मेरी बड़ी बेटी गर्भ में थी. गर्भावस्था की जांच में यह पता चला था. कैंसर रोग विशेषज्ञ ने पहले प्रसव होने का इंतजार किया. बेटी होने के बाद कैंसर का इलाज शुरू किया. 6 बार कीमो थेरैपी हुई. 9 माह तक इलाज चला. इस कठिन दौर में भी किताबों ने समय व्यतीत करने में मदद की. पति और मां ने पूरा ध्यान रखा. मैं जल्द ही ठीक हो कर वापस अपनी दुनिया में आ गई. मेरी दूसरी बेटी इस के बाद हुई. कैंसर के मरीजों के हमेशा सकारात्मक सोच के साथ काम करना चाहिए. अब मैं कैंसर के मरीजों से मिल कर. उन को हौसला बढ़ाती हूं. कैंसर के लिए काम करने वाले कई संस्थान मुझे मोटिवेशनल स्पीकर के रूप में कैंसर मरीजों का हौसला बढ़ाने के लिए भी बुलाते हैं.

ये भी पढ़ें- आखिर कौन हैं कमला हैरिस…

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें