लोग खुद को प्यार नहीं करते इसलिए डिप्रेस्ड हैं- अरुणा ब्रूटा

तमाम देसी विदेशी मीडिया रिपोर्टें इस बात की पुष्टि कर रही हैं कि जब से देश में कोरोना की दहशत रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बनी है, तब से लोगों में डिप्रेशन की बीमारी काफी ज्यादा बढ़ गई है. इसकी सबसे बुरी परिणति इसके इसके मैनिक हो जाने के बाद लोगों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याएं हैं. पिछले कुछ दिनों में देश में एक के बाद एक करीब 400 लोगों ने आत्महत्याएं की हैं.

ऐसा नहीं है कि कोरोना के संकट के पहले देश में आत्महत्याएं नहीं हुआ करती, लेकिन इन दिनों इनकी रफ्तार थोड़ी बढ़ गई है. इसकी पुष्टि सिर्फ मीडिया की खबरें ही नहीं कई गंभीर विदेशी जनरल भी कर रहे हैं. एशियन जनरल आफ साइक्रेटी ने हाल में एक रिसर्च रिपोर्ट छापी है, जिसके मुताबिक 40 प्रतिशत भारतीय कोरोना महामारी के बारे में सोचते ही असहज हो जाते हैं.

आखिर कोरोना की दहशत लोगों को इस कदर परेशान क्यों कर रही है कि लोग आत्महत्या करने पर उतारू हो जाते हैं? देश की जानीमानी साइकोलाॅजिस्ट और नैदानिक मनोचिकित्सक जवाब से इस संबंध में विस्तार से बात हुई है, पेश है इस बातचीत के कुछ जरूरी अंश जो हमें ऐसी ही स्थिति से निपटने में संबल दे सकते हैं.

सवाल– तमाम रिपार्टों में आ रही क्या यह बात सच है कि लाॅकडाउन के चलते लोगों में डिप्रेशन बढ़ा है?

जवाब– लौकडाउन के कारण लोगों में डिप्रेशन भी बढ़ा है और एंग्जायटी भी. इसके बहुत सारे कारण हैं- एक तो यही कि लोगों को यह नहीं पता चल पा रहा कि वे कब इस सबसे बाहर आ पाएंगे? लोग इस दुश्चिंता से भी घिरे हैं कि कल को अगर मुझे कोरोना हो जाता है, तो मैं हौस्पिटल कैसे पहुंचूगा? चीजें कैसे मैनेज होंगी? हमारे पास साधन क्या हैं? सरकार और सिस्टम में जो जिम्मेदार लोग हैं, क्या वे ठीक भी बोल रहे हैं? इस तरह का भी शक है कि कहीं हम इस महामारी के कैरियर तो नहीं हैं. बहुत सारी अपनी ही बातों पर डिसबिलीफ भी हो रहा है. कई बार यह भी लगता है कि ये सब बेकार की बातें हैं, ऐसा कुछ नहीं होता मास्क लगाने की भी जरूरत नहीं हैं. ये सब डौक्टर लोग बढ़ा चढ़ाकर बातें बता रहे हैं.

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सवाल- मतलब यह कि लोग सरकार पर, सिस्टम पर डिसबिलीफ कर रहे हैं?

जवाब- सिर्फ सरकार और सिस्टम पर ही नहीं  लोगों का समूची रिएल्टी से डिसबिलीफ हो रहा है. यह डिसबिलीफ स्वभाविक है. आमतौर पर जब महामारी जैसे बातें नहीं होती, तब भी इस तरह के डिसबिलीफ की बातें होती हैं. बस होता यह है कि तब हमें यह सब समझ में नहीं आता. आप कई बार जिन चीजों को मानते हैं, जिन पर भरोसा करते हैं, उन पर भी डिसबिलीफ करते हैं. मसलन आप डायबिटिक पेशेंट हैं फिर भी आपका मिठाई खाने का मन है तो आप खुद ही तर्क गढ़ लेंगे, अरे कुछ नहीं होता. अरे एक बार में कुछ नहीं होता. जब एक बार कर लेंगे तो फिर यह भी स्थिति आयेगी कि आप दूसरी बार भी वही हरकत दोहरा सकते हैं और उसके पीछे वही तर्क होंगा, कुछ नहीं होता. एक बार में कुछ नहीं होता तो जाहिर है आप मानेंगे कि दो बार में भी कुछ नहीं होता. कहने का मतलब यह कि हम अपने आपसे भी डिसबिलीफ करते हैं.

सवाल– लेकिन सुशांत सिंह राजपूत जैसे सक्सेस सितारे के लिए तो खुद से भरोसा उठने जैसी कोई बात नहीं थी, फिर आत्महत्या की इतनी त्रासद हरकत क्यों?

जवाब- हर कोई हैरान है कि सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या कैसे कर ली? क्योंकि वो सफल है, उठता हुआ सितारा है, चढ़ता हुआ सूरज है वगैरह वगैरह. लेकिन मेरा दावा है कि ऐसा कहने वाले सुशांत सिंह के साथ छह दिनों तक लगातार नहीं बिताये होंगे. दूर से हम सबको हर किसी की जिंदगी बहुत अच्छी लगती है, बहुत सफल लगती है. क्योंकि हम उसकी रिएल्टी नहीं जान रहे होते. सब लोगों ने यह तो देखा कि वह स्क्रीन में बहुत सक्सेसफुल हैं. लेकिन उसके दिल में क्या बीत रही थी? क्या वह मेंटली बीमार था? क्या वह अपने लिए बहुत कुछ रातोंरात चाहिए था जो नहीं मिला? क्या वह किसी फाइनेंशियल स्ट्रेस में था? क्या पता उसे कोई ब्लैकमेल कर रहा हो? क्या पता वह डिप्रेशन का शिकार हो? मीनिया में आ गया हो; क्योंकि डिप्रेशन में कोई आत्महत्या नहीं कर सकता, डिप्रेशन में तो उठकर के एक गिलास पानी भी नहीं पिया जाता. जबकि सुसाइड के लिए तैयारी करने पड़ती है, कुछ चीजें व्यवस्थित करनी पड़ती हैं.
डिप्रेशन में कोई आत्महत्या नहीं कर सकता. डिप्रेशन का मतलब है ‘यू आर इन लो’. ऐसे में आप अपने को फांसी पर कैसे चढ़ाओगे? जब आप थोड़े हाई होंगे तभी तो यह सब कर सकते हैं. वास्तव में इस तरह की घटनाओं के पीछे एक ही बड़ा कारण होता है, हम अपने आपसे प्यार नहीं करते. हम खुद अपनी जरूरत नहीं समझते, हम अपने को महत्वपूर्ण नहीं मानते. इसलिए अपने को खत्म कर लेते हैं. इस सबके पीछे एक ही कारण होता है कि आप अपने आपको प्यार नहीं करते.

सवाल– सवाल है क्या इस पूरी त्रासदी में गरीब आदमी का जो रवैय्या रहा, उसे ही हम गैरजिम्मेदारी मान लें? क्या हम यह मान लें कि सारी स्थिति के लिए वही जिम्मेदार थे?

जवाब- नहीं. मैं ऐसा नहीं कहूंगी. मेरे हिसाब से मजदूरों को आश्वासन गलत तरीके से दिये गये. उन्हें न तो सही तरीके से हकीकत बतायी गई और न ही उन्हें विश्वास हो ऐसा कोई उन्हें आश्वसन दिया गया. निश्चित रूप से समूची व्यवस्था की चूक है. लेकिन उनको इन मजदूरों को और ज्यादा आश्वसन दिया जाना था, उन्हें भरोसा दिलाया जाना चाहिए कि सरकार उनके साथ है. अगर मजदूरों तक विश्वसनीय ढंग से सूचनाएं पहुंच रही होतीं और वे सत्ता के साथ कम्युनिकेट कर रहे होते तो ऐसी स्थितियां कभी नहीं होती. आखिर सामान्य दिनों में भी लाखों लोग इधर से उधर जाते हैं. लेकिन इस तरह की अव्यवस्था या गड़बड़ी कहीं देखने को नहीं मिलती. मीडिया अगर इस मौके पर बजाय मजदूरों की करूण कहानियों पर फोकस करके एडमिनिस्ट्रेशन को गाईड करता, उसे बताता कि सरकार और ज्यादा काउंटर खोलने चाहिए, व्यवस्था और चाकचैंबद करनी चाहिए, तब आज उसका नतीजा ही कुछ अलग होता.

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सवाल– आपको लगता नहीं कि डौक्टर लोगों की डरी हुई स्थिति का फायदा उठा रहे हैं?

जवाब– जो लोग डाक्टरों पर यह आरोप लगाते हैं कि डौक्टर सही से सपोर्ट नहीं कर रहे, प्राइवेट डौक्टर बहुत पैसा ले रहे हैं, उनसे मैं कहना चाहती हूं कि बहुत से मरीज हैं, जिन्हें मैं जानती हूं. वे एडमिट तो हो जाते हैं लेकिन कुछ दिन में भाग खड़े होने की कोशिश करते हैं. अब अगर आप इसके लिए तर्क तलाशेगे तो कोई न कोई तर्क तो मिल ही जायेगा. लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए कि जब हम इलाज के लिए प्राइवेट हौस्पिटल और प्राइवेट डौक्टर चुनते हैं तो हम जान रहे होते हैं कि प्राइवेट हास्पिटल में हमें जो सुविधा मिल सकती है, जो सुख मिल सकता है वो सरकारी हास्पिटल में नहीं मिलेगा. अब सवाल है प्राइवेट हास्पिटल की जो सुविधा है, उसका जो सुख है, उसकी भी तो कोई कीमत होती है. अगर वह कीमत नहीं वसूली जायेगी तो सबको कैसे वो सुविधाएं प्रदान की जा सकती हैं? वास्तव में सुविधाएं कीमत अदा करके ही मिलती है.

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