चाहत: स्नेह ने कैसे भाइयों की लड़ाई को सुलझाया

‘‘हां हां, मैं तो छोटा हूं, सारी जिंदगी छोटा ही रहूंगा, सदा बड़े भाई की उतरन ही पहनता रहूंगा. क्यों मां, क्या मेरा इस घर पर कोई अधिकार नहीं,’’ महेश ने बुरा सा मुंह बना कर कहा.

रात गहरी हो चुकी थी. कमला ने रसोई समेटी और बाहर आ कर दोनों बेटों के पास खड़ी हो गई. वे दोनों आपस में किसी बात को ले कर झगड़ रहे थे.

‘‘तुम दोनों कब लड़ना छोड़ोगे, मेरी समझ में नहीं आता. तुम लोग क्या चाहते हो? क्यों इस घर को लड़ाई का अखाड़ा बना रखा है? आज तक तो तुम्हारे पिताजी मुझ से लड़ते रहे. उस मानसिक क्लेश को सहतेसहते मैं तो आधी हो चुकी हूं. जो कुछ शेष हूं, उस की कसर तुम दोनों मिल कर निकाल रहे हो.’’

‘‘पर मां, तुम हमेशा बड़े भैया का ही पक्ष क्यों लेती हो, क्या मैं तुम्हारा बेटा नहीं?’’

‘‘तुझे तो हमेशा उस से चिढ़ रहती है,’’ मां मुंह बनाती हुई अंदर चली गईं.

वैसे यह सच भी था. मातापिता के पक्षपातपूर्ण व्यवहार के कारण ही सुरेश व महेश आपस में बहुत लड़ते थे. मां का स्नेह बड़े सुरेश के प्रति अधिक था, जबकि पिता छोटे महेश को ही ज्यादा चाहते थे. दोनों भाइयों की एक छोटी बहन थी स्नेह.

स्नेह बेचारी घर के इस लड़ाईझगड़े के माहौल में हरदम दुखी रहती थी. सुरेश व महेश भी उसे अपने पक्ष में करने के लिए हरदम लड़ते रहते थे. वह बेचारी किसी एक का पक्ष लेती तो दूसरा नाराज हो जाता. उस से दोनों ही बड़े थे. वह चाहती थी कि तीनों भाईबहन मिल कर रहें. घर की बढ़ती हुई समस्याओं के बारे में सोचें, खूब पढ़ें ताकि अच्छी नौकरियां मिल सकें.

उस ने जब से होश संभाला था, घर का वातावरण ऐसा ही आतंकित सा देखा. मां बड़े भाई का ही पक्ष लेतीं. शायद उन्हें लगता होगा कि वही उन के बुढ़ापे का सहारा बनेगा. पिता मां से ही उलझते रहते और छोटे भाई को दुलारते. वह बेचारी उन सब के लड़ाईझगड़ों से डरी परेशान सी, उपेक्षिता सुबह से शाम तक इसी सोच में डूबी रहती कि घर में कब व कैसे शांति हो सकती है.

सुबह की हुई बहस के बारे में वह आंगन में बैठी सोचती रही कि बड़े भैया सुरेश की उतरन पहनने के लिए महेश भैया ने कितना बुरा माना. लेकिन वह जो हमेशा इन दोनों की उतरन ही पहनती आई है, उस के बारे में कभी किसी का खयाल गया? वह सोचती, ‘मातापिता का ऐसा पक्षपातपूर्ण व्यवहार क्यों है? क्यों ये लोग आपस में ही लड़ते रहते हैं? अब तो हम सभी बड़े हो रहे हैं. हमारे घर की बातें बाहर पहुंचें, यह कोई अच्छी बात है भला?’ त्रस्त सी खयालों में डूबी वह चुपचाप भाइयों की लड़ाई का हल ढूंढ़ा करती.

स्नेह का मन इस वातावरण से ऊब गया था. वह एक दिन शाम को विचारों में लीन आंगन में नीम के पेड़ के नीचे बैठी थी. अचानक एक छोटा सा पत्थर का टुकड़ा उस के पास आ कर गिरा. चौंकते हुए उस ने पीछे मुड़ कर देखा कि कौन है?

अभी वह इधरउधर देख ही रही थी कि एक और टुकड़ा आ कर गिरा. इस बार उस के साथ एक छोटी सी चिट भी थी. घबरा कर स्नेह ने घर के अंदर निगाहें दौड़ाईं. इत्तफाक से मां अंदर थीं. दोनों भाई भी बाहर गए हुए थे. अब उस ने देखा कि एक लड़का पेड़ के पीछे छिपा हुआ उस की तरफ देख रहा है.

हिम्मत कर के उस ने वह चिट खोल कर पढ़ी तो उस की जान ही निकल गई. लिखा था, ‘स्नेह, मैं तुम्हें काफी दिनों से जानता हूं. तुम यों ही हर शाम इस आंगन में बैठी पढ़ती रहती हो. तुम्हारी हर परेशानी के बारे में मैं जानता हूं और उस का हल भी जानता हूं. तुम मुझे कल स्कूल की छुट्टी के बाद बाहर बरगद के पेड़ के पास मिलना. तब मैं बताऊंगा. शंकर.’

पत्र पढ़ कर डर के मारे स्नेह को पसीना आ गया. शंकर उस के पड़ोस में ही रहता था. उस के बारे में सब यही कहते थे कि वह आवारा किस्म का लड़का है. ‘उस के पास क्या हल हो सकता है मेरी समस्याओं का?’ स्नेह का दिल बड़ी कशमकश में उलझ गया.

वह भी तो यही चाहती थी कि उस के घर में लड़ाईझगड़ा न हो. ‘हमारे घर की बातें शंकर को कैसे पता चल गईं? क्या उस के पास जाना चाहिए?’ इसी सोच में सवेरा हो गया. स्कूल में भी उस का दिल न लगा. ‘हां’ और ‘नहीं’ में उलझा उस का मन कोई निर्णय नहीं ले पाया.

स्कूल की छुट्टी की घंटी से उस का ध्यान बंटा. ‘देख लेती हूं, वैसे बात करने में क्या नुकसान है,’ स्नेह खयालों में गुम बरगद के पेड़ के पास पहुंच गई. सामने देखा तो शंकर खड़ा था.

‘‘मुझे पता था कि तुम जरूर आओगी,’’ शंकर ने कुटिलता से कहा, ‘‘सुबह शीशे में शक्ल देखी थी तुम ने?’’

‘‘क्यों, क्या हुआ मेरी शक्ल को?’’ स्नेह डर गई.

‘‘तुम बहुत सुंदर हो,’’ शंकर ने जाल फेंका. उस के विचार में मछली फंस चुकी थी. और स्नेह भी आत्मीयता से बोले गए दो शब्दों के बदले बहक गई.

इस छोटी सी मुलाकात के बाद तो यह सिलसिला चल पड़ा. रोज ही शंकर उस से मिलता. उस के साथ दोचार घर की बातें करता. उसे यह विश्वास दिलाने की कोशिश करता कि वह उस के हर दुखदर्द में साथ है. बातोंबातों में ही उस ने स्नेह से घर की सारी स्थिति जान ली. उस के दोनों भाइयों के बारे में भी वह काफी जानता था.

वह धीरेधीरे जान गया था कि स्नेह को अपने भाइयों से बहुत मोह है और वह उन के आपसी लड़ाईझगड़े के कारण बहुत तनाव में रहती है. शंकर ने यह कमजोरी पकड़ ली थी. वह स्नेह के प्रति झूठी सहानुभूति जता कर अपनी स्थिति मजबूत करना चाहता था. वह एक आवारा लड़का था, जिस का काम था, स्नेह जैसी भोलीभाली लड़कियों को फंसा कर अपना उल्लू सीधा करना.

अब स्नेह घर के झगड़ों से थोड़ी दूर हो चुकी थी. वह अब शंकर के खयालों में डूबी रहने लगी. महेश को एकदो बार उस की यह खामोशी चुभी भी थी, पर वह खामोश ही रहा.

महेश को तो बस सुरेश को ही नीचा दिखाने की पड़ी रहती थी. दोनों भाई घर की बिगड़ती स्थिति से बेखबर थे. वे दोनों चाहते तो आपसी समझ से लड़ाईझगड़ों को दूर कर सकते थे. और सच कहा जाए तो उन की इस स्थिति के जिम्मेदार उन के मांबाप थे. अभावग्रस्त जीवन अकसर कुंठा का शिकार हो जाता है. जहां आपस में एकदूसरे को नीचा दिखाने की बात आ जाए वहां प्यार का माहौल कैसे बना रह सकता है.

स्नेह शंकर से रोज ही कहती कि वह उस के भाइयों का झगड़ा समाप्त करा दे. शंकर भी उस की इस कमजोरी को भुनाना चाहता था. उस की समझ में स्नेह अब उस के मोहजाल में फंस चुकी थी.

दूसरी ओर स्नेह शंकर की किसी भी बुरी भावना से परिचित नहीं थी. उस ने अनजाने में ही सहज हृदय से उस पर विश्वास कर लिया था. उस का कोमल मन घर की कलह से नजात चाहता था.

एक दिन ऐसे ही स्नेह शंकर के पास जा रही थी कि रास्ते में बड़ा भाई सुरेश मिल गया, ‘‘तू इधर कहां जा रही है?’’

‘‘भैया, मैं अपनी सहेली के पास कुछ नोट्स लेने जा रही थी,’’ स्नेह ने सकपका कर कहा.

‘‘तू घर चल, नोट्स मैं ला कर दे दूंगा. और आगे से स्कूल के बाद सीधी घर जाया कर, वरना मुझ से बुरा कोई नहीं होगा,’’ भाई ने धमकाया.

उस दिन शंकर इंतजार ही करता रह गया. अगले दिन वह बड़े गुस्से में था. कारण जानने पर स्नेह से बोला, ‘‘हूं, तुम्हें आने से मना कर दिया. और खुद जो दोनों सारा दिन घर से गायब रहते हैं, तब कुछ नहीं होता.’’

उस दिन स्नेह बहुत डर गई. शंकर के चेहरे से लगा कि वह उस के भाइयों से बदला लेना चाहता है. वह सोचने लगी कि कहीं उस के कारण भाई किसी परेशानी में न पड़ जाएं. उस ने शंकर को समझाना चाहा, ‘‘मैं अब तुम्हारे पास नहीं आऊंगी. मेरे भाइयों ने दोबारा देख लिया तो खैर नहीं. यों भी तुम मुझ पर जरूरत से ज्यादा गुस्सा करने लगे हो. मैं तो तुम्हें एक अच्छा दोस्त समझती थी.’’

‘‘ओह, जरा से भाई के धमकाने से तू डर गई? मैं तो तुझे बहुत हिम्मत वाली समझता था,’’ शंकर ने मीठे बोल बोले.

‘‘नहीं, इस में डरने की बात नहीं. पर ऐसे आना ठीक नहीं होता.’’

‘‘अरे छोड़, चल उस पहाड़ी के पीछे चल कर बैठते हैं. वहां से तुझे कोई नहीं देखेगा,’’ शंकर ने फिर पासा फेंका.

‘‘नहीं, मैं घर जा रही हूं, बहुत देर हो गई है आज तो…’’

इस पर शंकर ने जोरजबरदस्ती का रास्ता अपनाने की सोची. ये लोग अभी बात ही कर रहे थे कि अचानक स्नेह का भाई सुरेश वहां आ गया. उस ने देखा कि स्नेह घबराई हुई है. उस के पास ही शंकर को खड़े देख कर उस के माथे पर बल पड़ गए.

उस ने शंकर से पूछा, ‘‘तू यहां मेरी बहन से क्या बातें कर रहा है?’’

‘‘अपनी बहन से ही पूछ ले ना,’’ शंकर ने रूखे स्वर में कहा.

‘‘इस से तो मैं पूछ ही लूंगा, तू अपनी कह. इस के पास क्या करने आया था?’’ सुरेश ने कड़े स्वर में कहा.

‘‘तेरी बहन ने ही मुझे आज यहां बुलाया था, कहती थी कि पहाड़ी के पीछे चलते हैं, वहां हमें कोई नहीं देखेगा,’’ शंकर कुटिलता से हंसा.

‘‘क्या कहा, मैं ने तुझे यहां बुलाया था?’’ स्नेह ने हैरान हो कर कहा, ‘‘मुझे नहीं पता था कि तू इतना बड़ा झूठ भी बोल सकता है.’’

‘‘अरे वाह, हमारी बिल्ली और हमीं को म्याऊं, तू ही तो रोज मेरा यहां इंतजार करती रहती थी.’’

‘‘बस, बहुत हो चुका शंकर, सीधे से अपने रास्ते चला जा, वरना…’’ सुरेश ने गुस्से से कहा.

‘‘हांहां, चला जाऊंगा, पर तेरी बहन को साथ ले कर ही,’’ शंकर बेशर्मी से हंसा.

‘‘जरा मेरी बहन को हाथ तो लगा कर देख,’’ कहने के साथ ही सुरेश ने जोरदार थप्पड़ शंकर के जड़ दिया.

बस फिर क्या था, उन दोनों में मारपीट होने लगी. शोर बढ़ने से लोग वहां एकत्र होने लगे. झगड़ा बढ़ता ही गया. एक बच्चे ने जा कर सुरेश के घर में कह दिया.

मां ने सुना तो झट महेश से बोलीं, ‘‘अरे, सुना तू ने. पड़ोस के शंकर से तेरे भाई की लड़ाई हो रही है. जा के देख तो जरा.’’

‘‘मैं क्यों जाऊं? उस ने कभी मेरा कहा माना है? हमेशा ही तो मुझ से जलता रहता है. हर रोज झगड़ता है मुझ से. अच्छा है, शंकर जैसे गुंडों से पिटने पर अक्ल आ जाएगी,’’ महेश ने गुस्से से कहा.

‘‘पर इस वक्त बात तेरी व उस की लड़ाई की नहीं है रे, स्नेह भी वहीं खड़ी है. जाने क्या बात है, तुझे क्या अपनी बहन का जरा भी खयाल नहीं?’’

‘‘यह बात है. तब तो जाना ही पड़ेगा, स्नेह तो मेरा बड़ा खयाल रखती है. अभी जाता हूं. देखूं, क्या बात है,’’ तुरंत उठ कर महेश ने साइकिल निकाली और पलभर में बरगद के पेड़ के पास पहुंच गया.

सामने जो नजारा देखा तो उस का खून खौल उठा. शंकर के कई साथी उस के भाई को मार रहे थे और शंकर खड़ा हंस रहा था.

स्नेह ने उसे आते देखा तो एकदम रो पड़ी, ‘‘भैया, सुरेश भैया को बचा लो, वे मेरी खातिर बहुत देर से पिट रहे हैं.’’

अपने सगे भाई को यों पिटता देख महेश आगबबूला हो गया.

तभी शंकर ने जोर से कहा, ‘‘लो भई, एक और आ गया भाई की पैरवी करने.’’

लड़कों के हाथ रुके, मुड़ कर देखा तो महेश की आंखों में खून उतर आया था. उस ने वहीं से ललकारा, ‘‘खबरदार, जो अब किसी का हाथ उठा, एकएक को देख लूंगा मैं.’’

‘‘अरे वाह, पहले अपने को तो देख, रोज तो अपने भाई व मांबाप से लड़ताझगड़ता है, आज कैसा शेर हो रहा है,’’ शंकर ने चिढ़ाया.

‘‘पहले तो तुझे ही देख लूं. बहुत देर से जबान लड़ा रहा है,’’ कहते हुए महेश ने पलट कर एक घूंसा शंकर की नाक पर दे मारा और बोला, ‘‘मैं अपने घर में किसकिस से लड़ता हूं, तुझे इस से क्या मतलब? वह हमारा आपसी मामला है, तू ने यह कैसे सोच लिया कि तू मेरी बहन व भाई पर यों हाथ उठा सकता है?’’

शंकर उस के एक ही घूंसे से डर गया था. इस बीच सुरेश को भी उठने का मौका मिल गया. फिर तो दोनों भाइयों ने मिल कर शंकर की खूब पिटाई की. उस के दोस्त मैदान छोड़ कर भाग गए.

सुरेश के माथे से खून बहता देख स्नेह ने अपनी चुन्नी फाड़ी और जल्दी से उस के पट्टी बांधी. महेश ने सुरेश को अपनी बलिष्ठ बांहों से उठाया और कहा, ‘‘चलो, घर चलते हैं.’’

भरी आंखों से सुरेश ने महेश की आंखों में झांका. वहां नफरत की जगह अब प्यार ही प्यार था, अपनत्व का भाव था. घर की शांति थी, एकता का एहसास था.

स्नेह दोनों भाइयों का हाथ पकड़ कर बीच में खड़ी हो गई. फिर धीरे से बोली,

‘‘मैं भी तो यही चाहती थी.’’

फिर तीनों एकदूसरे का हाथ थामे घर की ओर चल दिए.

चाहत: दहेज के लालच में जब रमण ने सुमन को खोया

सुबहसुबह औफिस में घुसते ही रमण ने चहकते हुए कहा कि आज शाम उस के घर में उस के बेटे की सगाई की रस्म पार्टी है. यह सुन कर मैं पसोपेश में पड़ गया कि अपनी पत्नी को साथ ले कर जाना ठीक रहेगा कि नहीं.

रमण हमारे इलाके का ही है. उस का गांव मेरे गांव से 3 किलोमीटर दूर है. इधर कई साल से हमारा मिलनाबोलना तकरीबन बंद ही था. अब मैं प्रमोशन ले कर उस के औफिस में उस के शहर में आ गया तो हमारे संबंध फिर से गहरे होने लगे थे. पिछले 20 सालों में हमारे बीच बात ही कुछ ऐसी हो गई थी कि हम एकदूसरे को अपना मुंह दिखाना नहीं चाहते थे.

रमण और मैं 10वीं क्लास तक एक ही स्कूल में पढ़े थे. यह तो लाजिम ही था कि हमें एक ही कालेज में दाखिला लेना था, क्योंकि 30 मील के दायरे में वहां कोई दूसरा कालेज तो था नहीं. हम दोनों रोजाना बस से शहर जाते थे.

रमण अघोषित रूप से हमारा रिंग लीडर था. वह हम से भी ज्यादा दिलेर, मुंहफट और जल्दी से गले पड़ने वाला लड़का था.

पढ़ाई में वह फिसड्डी था, पर शरीर हट्टाकट्टा था उस का, रंग बेहद गोरा.

बचपन से ही मुझे कहानीकविता लिखने का चसका लग गया था. मजे की बात यह थी कि जिस लड़की सुमन के प्रति मैं आकर्षित हुआ था, रमण भी उसी पर डोरे डालने लगा था. हमारी क्लास में सुमन सब से खूबसूरत लड़की थी.

हम लोग तो सारे पीरियड अटैंड करते, मगर रमण पर तो एक ही धुन सवार रहती कि किसी तरह जल्दी से कालेज की कोई लड़की पट जाए. अपनी क्लास की सुमन पर तो वह बुरी तरह फिदा था. खैर, हर वक्त पीछे पड़े रहने के चलते सुमन का मन किसी तरह पिघल ही गया था.

सुमन रमण के साथ कैफे जाने लगी थी. इस कच्ची उम्र में एक ही ललक होती है कि विपरीत लिंग से किसी तरह दोस्ती हो जाए. आशिकी के क्या माने होते हैं, इस की समझ कहां होती है. रमण में यह दीवानगी हद तक थी.

एक दिन लोकल अखबार में मेरी कहानी छपी. कालेज के इंगलिश के लैक्चरर सेठ सर ने सारी क्लास के सामने मुझे खड़ा कर के मेरी तारीफ की.

मैं तो सुमन की तरफ अपलक देख रहा था, वहीं सुमन भी मेरी तरफ ही देख रही थी. उस समय उस की आंखों में जो अद्भुत चमक थी, वह मैं कई दिनों तक भुला नहीं पाया था. पता नहीं क्यों उस लड़की पर मेरा दिल अटक गया था, जबकि मुझे पता था कि वह मेरे दोस्त रमण के साथ कैफे जाती है. रमण सब के सामने ये किस्से बढ़ाचढ़ा कर बताता रहता था.

सुमन से अकेले मिलने के कई और मौके भी मिले थे मुझे. कालेज के टूर के दौरान एक थिएटर देखने का मौका मिला था हमें. चांस की बात थी कि सुमन मेरे साथ वाली कुरसी पर थी. हाल में अंधेरा था. मैं ने हिम्मत कर के उस का हाथ अपने हाथ में ले लिया तो बड़ी देर तक उस का हाथ मेरे हाथ में रहा.

रमण से गहरी दोस्ती होने के बावजूद बरसों तक मैं ने रमण से सुमन के प्रति अपना प्यार छिपाए रखा. डर था कि क्या पता रमण क्या कर बैठे. कहीं कालेज आना न छोड़ दे. सुमन के मामले में वह बहुत संजीदा था.

एक दिन किसी बात पर रमण से मेरी तकरार हो गई. मैं ने कहा, ‘क्या हर वक्त ‘मेरी सुमन’, ‘मेरी सुमन’ की रट लगाता रहता है. यों ही तू इम्तिहान में कम नंबर लाता रहेगा तो वह किसी और के साथ चली जाएगी.’

रमण दहाड़ा, ‘मेरे सिवा वह किसी और के बारे में सपने में भी नहीं सोच सकती.’

मैं ने अनमना हो कर यों ही कह दिया, ‘कल मैं तेरे सामने सुमन के साथ इसी कैफे में इसी टेबल पर कौफी पीता मिलूंगा.’

हम दोनों में शर्त लग गई.

मैं रातभर सो नहीं पाया. सुमन ने अगर मेरे साथ चलने से मना कर दिया तो रमण के सामने मेरी किरकिरी होगी. मेरा दिल भी टूट जाएगा. मगर मुझे सुमन पर भरोसा था कि वह मेरा दिल रखेगी.

दूसरे दिन सुमन मुझे लाइब्रेरी से बाहर आती हुई अकेली मिल गई. मैं ने हिम्मत कर के उस से कहा कि आज मेरा उसे कौफी पिलाने का मन कर

रहा है.

मेरे उत्साह के आगे वह मना न कर सकी. वह मेरे साथ चल दी. थोड़ी देर बाद रमण भी वहां पहुंच गया. उस का चेहरा उतरा हुआ था. खैर, कुछ दिनों बाद वह बात आईगई हो गई.

सुमन और मेरे बीच कुछ है या हो सकता है, रमण ने इस बारे में कभी कल्पना भी नहीं की थी और उसे कभी इस बात की भनक तक नहीं लगी.

कालेज में छात्र यूनियन के चुनावों के दौरान खूब हुड़दंग हुआ. रमण ने चुनाव जीतने के लिए दिनरात एक कर दिया. वह तो चुनाव रणनीति बनाने में ही बिजी रहा. वह जीत भी गया.

चुनाव प्रचार के दौरान मुझे सुमन के साथ कुछ पल गुजारने का मौका मिला. न वह अपने दिल की बात कह पाई और न

ही मेरे मुंह से ऐसा कुछ निकला. दोनों सोचते रहे कि पहल

कौन करे.

जब कभी कहीं अकेले सुमन के साथ बैठने का मौका मिलता तो हम ज्यादातर खामोश ही

बैठे रहते.

एक दिन तो रमण ने कह ही दिया था कि तुम दोनों गूंगों की अपनी ही

कोई भाषा है. सचमुच सच्चे प्यार में चुप रह कर ही दिल से सारी बातें करनी होती हैं.

मैं एमए की पढ़ाई करने के लिए यूनिवर्सिटी चला गया. रमण ने बीए कर के घर में खेती में ध्यान देना शुरू कर दिया. साथ में नौकरी के लिए तैयारी करता रहता.

मैं महीनेभर बाद गांव आता तो फटाफट रमण से मिलने उस के गांव में चल देता. वह मुझे सुमन की खबरें देता.

रमण को जल्दी ही अस्थायी तौर पर सरकारी नौकरी मिल गई. सुमन भी वहीं थी. सुमन के पिता को हार्टअटैक हुआ था, इसीलिए सुमन को जौब की सख्त जरूरत थी.

काफी अरसा हो गया था. सुमन से मेरी कोई मुलाकात नहीं हुई. मौका पा कर मैं उस के कसबे में चक्कर लगाता, उस कैफे में कई बार जाता, मगर मुझे सुमन का कोई अतापता न मिलता.

मेरी हालत उस बदकिस्मत मुसाफिर की तरह थी, जिस की बस उसे छोड़ कर चली गई थी और बस में उस का सामान भी रह गया था.

संकोच के मारे मैं रमण से सुमन के बारे में ज्यादा पूछताछ नहीं कर सकता था. रमण के आगे मैं गिड़गिड़ाना नहीं चाहता था. मुझे उम्मीद थी कि अगर मेरा प्यार सच्चा हुआ तो सुमन मुझे जरूर मिलेगी.

सुमन को तो उस की जौब में पक्का कर दिया गया. उस में काम के प्रति लगन थी. रमण को 6 महीने बाद निकाल दिया गया.

रमण को जब नौकरी से निकाला गया, तब वह जिंदगी और सुमन के बारे में संजीदा हुआ. उस के इस जुनून से मैं एक बार तो घबरा गया.

अब तक वह सुमन को शर्तिया तौर पर अपना मानता था, मगर अब उसे लगने लगा था कि अगर उसे ढंग की नौकरी नहीं मिली तो सुमन भी उसे नहीं मिलेगी.

इसी दौरान मैं ने सुमन से उस के औफिस जा कर मिलना शुरू कर दिया था. मैं उसे साहित्य के क्षेत्र में अपनी उपलब्धियां बताता. उसे खास पत्रिकाओं में छपी अपनी रोमांटिक कविताएं दिखाता.

रमण ने सुमन को बहुत ही गंभीरता से लेना शुरू कर दिया था. रमण मुझे कई कहानियां सुनाता कि आज उस ने सुमन के साथ फलां होटल में लंच किया और आज वे किसी दूसरे शहर घूमने गए. सुमन के साथ अपने अंतरंग पलों का बखान वह मजे ले कर करता.

पहले रमण का सुमन के प्रति लापरवाही वाला रुख मुझे आश्वस्त कर देता था कि सुमन मुझे भी चाहती है, मगर अब रमण सच में सुमन से प्यार करने लगा था. ऐसे में मेरी उलझनें बढ़ने लगी थीं.

फिर एक अनुभाग में मुझे और रमण को नियुक्ति मिली. रमण खुश था कि अब वह सुमन को प्रपोज करेगा तो वह न नहीं कहेगी. मैं चुप रहता.

मैं सोचने लगा कि अब अगर कुछ उलटफेर हो तभी मेरी और सुमन में नजदीकियां बढ़ सकती हैं. हमारा औफिस सभी विभागों के बिल पास करता था. यहां प्रमोशन के चांस बहुत थे. मैं विभागीय परीक्षाओं की तैयारी में जुट गया.

एक दिन मैं और रमण साथ बैठे थे, तभी अंदर से रमण के लिए बुलावा

आ गया.

5 मिनट बाद रमण मुसकराता हुआ बाहर आया. उस ने मुझे अंदर जाने को कहा. अंदर जिला शिक्षा अधिकारी बैठे थे. वे मुझे अच्छी तरह से जानते थे. मेरे बौस ने ही सारी बात बताई, ‘बेटा, वैसे तो मुझे यह बात सीधे तौर पर तुम से नहीं करनी चाहिए. कौशल साहब को तो आप जानते ही हैं. मैं इन से कह बैठा कि हमारे औफिस में 2 लड़कों ने जौइन किया है. इन की बेटी बहुत सुंदर और होनहार है. ये करोड़पति हैं. बहुत जमीन है इन की शहर के साथ.

‘ये चाहते हैं कि तुम इन की बेटी को देख लो, पसंद कर लो और अपने घर वालों से सलाह कर लो.

‘रमण से भी पूछा था, मगर उस ने कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया. अब तुम्हें मौका मिल रहा है.’

रमण से मैं हर बार उन्नीस ही पड़ता था. बारबार कुदरत हमारा मुकाबला करवा रही थी. एक तरफ सुमन थी और दूसरी तरफ करोड़ों की जायदाद.

घरजमाई बनने के लिए मैं तैयार नहीं था और सुमन से इतने सालों से किया गया प्रेम…

फिर पता चला कि शिक्षा अधिकारी ने रमण के मांबाप को राजी कर लिया है. रमण ने अपना रास्ता चुन लिया था. सुमन से सारे कसमेवादे तोड़ कर वह अपने अमीर ससुराल चला गया था. मैं प्रमोशन पा कर दिल्ली चला गया था.

सुमन का रमण के प्रति मोह भंग हो गया था. सुमन ने एक दूसरी नौकरी ले ली थी और 2 साल तक मुझे उस का कोई अतापता नहीं मिला.

बहन की शादी के बाद मैं भी अखबारों में अपनी शादी के लिए इश्तिहार देने लगा था. सुमन को मैं ने बहुत ढूंढ़ा. इस के लिए मैं ने करोड़पति भावी ससुर का औफर ठुकरा दिया था. वह सुमन भी अब न जाने कहां गुम हो गई थी. उस ने मुझे हमेशा सस्पैंस में ही रखा. मैं ने कभी उसे साफसाफ नहीं कहा कि मैं क्या चाहता हूं और वह पगली मेरे प्यार की शिद्दत नहीं जान पाई.

अखबारों के इश्तिहार के जवाब में मुझे एक दिन सुमन की मां द्वारा भेजा हुआ सुमन का फोटो और बायोडाटा मिला. मैं तो निहाल हो गया. मुझे लगा कि मुझे खोई हुई मंजिल मिल गई है. मैं तो सरपट भागा. मेरे घर वाले हैरान थे कि कहां तो मैं लड़कियों में इतने नुक्स निकालता था और अब इस लड़की के पीछे दीवाना हो गया हूं.

शादी के बाद भी लोग पूछते रहते थे कि क्या तुम्हारी शादी लव मैरिज थी या अरैंज्ड तो मैं ठीक से जवाब नहीं दे पाता था. मैं तो मुसकरा कर कहता था कि सुमन से ही पूछ लो.

सुमन से शादी के बाद रमण के बारे में मैं ने कभी उस से कोई बात नहीं की. सुमन ने भी कभी भूले से रमण का नाम नहीं लिया.

वैसे, रमण सुंदर और स्मार्ट था. सुमन कुछ देर के लिए उस के जिस्मानी खिंचाव में बंध गई थी. रमण ने उस के मन को कभी नहीं छुआ.

जब रमण ने सुमन को बताया होगा कि उस के मांबाप उस की सुमन से शादी के लिए राजी नहीं हो रहे हैं तो सुमन ने कैसे रिएक्ट किया होगा.

रमण ने यह तो शायद नहीं बताया होगा कि करोड़पति बाप की एकलौती बेटी से शादी करने के लिए वह सुमन को ठुकरा रहा है. मगर जिस लहजे में रमण ने बात की होगी, सुमन सबकुछ समझ गई होगी. तभी तो वह दूसरी नौकरी के बहाने गायब हो गई.

इन 2 सालों में सुमन ने मेरे और रमण के बारे में कितना सोचाविचारा होगा. रमण से हर लिहाज में मैं पहले रैंक पर रहा, मगर सुंदरता में वह मुझ से आगे था.

आज रमण के बेटे की सगाई का समाचार पा कर मैं सोच में था कि रमण के घर जाएं या नहीं.

सुमन ने सुना तो जाने में कोई खास दिलचस्पी भी नहीं दिखाई. उसे यकीन था कि अब रमण का सामना करने में उसे कोई झेंप या असहजता नहीं होगी. इतने सालों से रमण अपने ससुराल में ही रह रहा था. सासससुर मर चुके थे. इतनी लंबीचौड़ी जमीन शहर के साथ ही जुट गई थी. खुले खेतों के बीच रमण की आलीशान कोठी थी. खुली छत पर पार्टी चल रही थी.

रमण ने सुमन को देख कर भी अनदेखा कर दिया. एक औपचारिक सी नमस्ते हुई. अब मैं रमण का बौस था, रमण के बेटे और होने वाली बहू को पूरे औफिस की तरफ से उपहार मैं ने सुमन के हाथों ही दिलवाया.

पहली बार रमण ने हमें हैरानी से देखा था, जब मैं और सुमन उस के घर के बाहर कार से साथसाथ उतरे थे. वह समझ गया था कि हम मियांबीवी हैं.

दूर तक फैले खेतों को देख कर मेरे मन में आया कि ये सब मेरे हो सकते थे, अगर उस दिन मैं जिला शिक्षा अधिकारी की बात मान लेता.

उस शाम सारी महफिल में सुमन सब से ज्यादा खूबसूरत लग रही थी. शायद उसे देख कर रमण के मन में भी आया होगा कि अगर वह दहेज के लालच में न पड़ता तो सुमन उस की हो सकती थी. चलो, जिस की जो चाहत थी, उसे मिल गई थी.

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चाहत: क्या शोभा अपना सपना पूरा कर पाई?

लेखक- एकता एस दुबे

“थक गई हूं मैं घर के काम से, बस वही एकजैसी दिनचर्या, सुबह से शाम और फिर शाम से सुबह. घर का सारा टैंशन लेतेलेते मैं परेशान हो चुकी हूं, अब मुझे भी चेंज चाहिए कुछ,”शोभा अकसर ही यह सब किसी न किसी से कहती रहतीं.

एक बार अपनी बोरियत भरी दिनचर्या से अलग, शोभा ने अपनी दोनों बेटियों के साथ रविवार को फिल्म देखने और घूमने का प्लान किया. शोभा ने तय किया इस आउटिंग में वे बिना कोई चिंता किए सिर्फ और सिर्फ आनंद उठाएंगी.

मध्यवर्गीय गृहिणियों को ऐसे रविवार कम ही मिलते हैं, जिस में वे घर वालों पर नहीं बल्कि अपने ऊपर समय और पैसे दोनों खर्च करें, इसलिए इस रविवार को ले कर शोभा का उत्साहित होना लाजिमी था.

यह उत्साह का ही कमाल था कि इस रविवार की सुबह, हर रविवार की तुलना में ज्यादा जल्दी हो गई थी.

उन को जल्दी करतेकरते भी सिर्फ नाश्ता कर के तैयार होने में ही 12 बज गए. शो 1 बजे का था, वहां पहुंचने और टिकट लेने के लिए भी समय चाहिए था. ठीक समय वहां पहुंचने के लिए बस की जगह औटो ही एक विकल्प दिख रहा था और यहीं से शोभा के मन में ‘चाहत और जरूरत’ के बीच में संघर्ष शुरू हो गया. अभी तो आउटिंग की शुरुआत ही थी, तो ‘चाहत’ की विजय हुई.

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औटो का मीटर बिलकुल पढ़ीलिखी गृहिणियों की डिगरी की तरह, जिस से कोई काम नहीं लेना चाहता पर हां, जिन का होना भी जरूरी होता है, एक कोने में लटका था. इसलिए किराए का भावताव तय कर के सब औटो में बैठ गए.

शोभा वहां पहुंच कर जल्दी से टिकट काउंटर में जा कर लाइन में लग गईं.

जैसे ही उन का नंबर आया तो उन्होंने अंदर बैठे व्यक्ति को झट से 3 उंगलियां दिखाते हुए कहा,”3 टिकट…”

अंदर बैठे व्यक्ति ने भी बिना गरदन ऊपर किए, नीचे पड़े कांच में उन उंगलियों की छाया देख कर उतनी ही तीव्रता से जवाब दिया,”₹1200…”

शायद शोभा को अपने कानों पर विश्वास नहीं होता यदि वे साथ में, उस व्यक्ति के होंठों को ₹1200 बोलने वाली मुद्रा में हिलते हुए नहीं देखतीं.

फिर भी मन की तसल्ली के लिए एक बार और पूछ लिया, “कितने?”

इस बार अंदर बैठे व्यक्ति ने सच में उन की आवाज नहीं सुनी पर चेहरे के भाव पढ़ गया.

उस ने जोर से कहा,”₹1200…”

शोभा की अन्य भावनाओं की तरह उन की आउटिंग की इच्छा भी मोर की तरह निकली जो दिखने में तो सुंदर थी पर ज्यादा ऊपर उड़ नहीं सकी और धम्म… से जमीन पर आ गई.

पर फिर एक बार दिल कड़ा कर के उन्होंने अपने परों में हवा भरी और उड़ीं, मतलब ₹1200 उस व्यक्ति के हाथ में थमा दिए और टिकट ले कर थिएटर की ओर बढ़ गईं.

10 मिनट पहले दरवाजा खुला तो हौल में अंदर जाने वालों में शोभा बेटियों के साथ सब से आगे थीं.

अपनीअपनी सीट ढूंढ़ कर सब यथास्थान बैठ गए. विभिन्न विज्ञापनों को झेलने के बाद, मुकेश और सुनीता के कैंसर के किस्से सुन कर, साथ ही उन के बीभत्स चेहरे देख कर तो शोभा का पारा इतना ऊपर चढ़ गया कि यदि गलती से भी उन्हें अभी कोई खैनी, गुटखा या सिगरेट पीते दिख जाता तो 2-4 थप्पड़ उन्हें वहीं जड़ देतीं और कहतीं कि मजे तुम करो और हम अपने पैसे लगा कर यहां तुम्हारा कटाफटा लटका थोबड़ा देखें… पर शुक्र है वहां धूम्रपान की अनुमति नहीं थी.

लगभग आधे मिनट की शांति के बाद सभी खड़े हो गए. राष्ट्रगान चल रहा था. साल में 2-3 बार ही एक गृहिणी के हिस्से में अपने देश के प्रति प्रेम दिखाने का अवसर प्राप्त होता है और जिस प्रेम को जताने के अवसर कम प्राप्त होते हैं उसे जब अवसर मिलें तो वे हमेशा आंखों से ही फूटता है.

वैसे, देशप्रेम तो सभी में समान ही होता है चाहे सरहद पर खड़ा सिपाही हो या एक गृहिणी, बस किसी को दिखाने का अवसर मिलता है किसी को नहीं. इस समय शोभा वीररस में इतनी डूबी हुई थीं कि उन को एहसास ही नहीं हुआ कि सब लोग बैठ चुके हैं और वे ही अकेली खड़ी हैं, तो बेटी ने उन को हाथ पकड़ कर बैठने को कहा.

अब फिल्म शुरू हो गई. शोभा कलाकारों की अदायगी के साथ भिन्नभिन्न भावनाओं के रोलर कोस्टर से होते हुए इंटरवल तक पहुंचीं.

चूंकि, सभी घर से सिर्फ नाश्ता कर के निकले थे तो इंटरवल तक सब को भूख लग चुकी थी. क्याक्या खाना है, उस की लंबी लिस्ट बेटियों ने तैयार कर के शोभा को थमा दीं.

शोभा एक बार फिर लाइन में खड़ी थीं. उन के पास बेटियों द्वारा दी गई खाने की लंबी लिस्ट थी तो सामने खड़े लोगों की लाइन भी कम लंबी न थी.

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जब शोभा के आगे लगभग 3-4 लोग बचे होंगे तब उन की नजर ऊपर लिखे मेन्यू पर पड़ी, जिस में खाने की चीजों के साथसाथ उन के दाम भी थे. उन के दिमाग में जोरदार बिजली कौंध गई और अगले ही पल बिना कुछ समय गंवाए वे लाइन से बाहर थीं.

₹400 के सिर्फ पौपकौर्न, समोसे ₹80 का एक, सैंडविच ₹120 की एक और कोल्डड्रिंक ₹150 की एक.

एक गृहिणी जिस ने अपनी शादीशुदा जिंदगी ज्यादातर रसोई में ही गुजारी हो उन्हें 1 टब पौपकौर्न की कीमत दुकानदार ₹400 बता रहे थे.

शोभा के लिए वही बात थी कि कोई सुई की कीमत ₹100 बताए और उसे खरीदने को कहे.

उन्हें कीमत देख कर चक्कर आने लगे. मन ही मन उन्होंने मोटामोटा हिसाब लगाया तो लिस्ट के खाने का ख़र्च, आउटिंग के खर्च की तय सीमा से पैर पसार कर पर्स के दूसरे पौकेट में रखे बचत के पैसों, जोकि मुसीबत के लिए रखे थे वहां तक पहुंच गया था. उन्हें एक तरफ बेटियों का चेहरा दिख रहा था तो दूसरी तरफ पैसे. इस बार शोभा अपने मन के मोर को ज्यादा उड़ा न पाईं और आनंद के आकाश को नीचा करते हुए लिस्ट में से सामान आधा कर दिया. जाहिर था, कम हुआ हिस्सा मां अपने हिस्से ही लेती है. अब शोभा को एक बार फिर लाइन में लगना पड़ा.

सामान ले कर जब वे अंदर पहुंचीं तो फिल्म शुरू हो चुकी थी. कहते हैं कि यदि फिल्म अच्छी होती है तो वह आप को अपने साथ समेट लेती है, लगता है मानों आप भी उसी का हिस्सा हों. और शोभा के साथ हुआ भी वही. बाकी की दुनिया और खाना सब भूल कर शोभा फिल्म में बहती गईं और तभी वापस आईं जब फिल्म समाप्त हो गई. वे जब अपनी दुनिया में वापस आईं तो उन्हें भूख सताने लगी.

थिएटर से बाहर निकलीं तो थोड़ी ही दूरी पर उन्हें एक छोटी सी चाटभंडार की दुकान दिखाई दी और सामने ही अपना गोलगोल मुंह फुलाए गोलगप्पे नजर आए. गोलगप्पे की खासियत होती है कि उन से कम पैसों में ज्यादा स्वाद मिल जाता है और उस के पानी से पेट भर जाता है.

सिर्फ ₹60 में तीनों ने पेटभर गोलगप्पे खा लिए. घर वापस पहुंचने की कोई जल्दी नहीं थी तो शोभा ने अपनी बेटियों के साथ पूरे शहर का चक्कर लगाते हुए घूम कर जाने वाली बस पकड़ी.

बस में बैठीबैठी शोभा के दिमाग में बहुत सारी बातें चल रही थीं. कभी वे औटो के ज्यादा लगे पैसों के बारे में सोचतीं तो कभी फिल्म के किसी सीन के बारे में सोच कर हंस पड़तीं, कभी महंगे पौपकौर्न के बारे में सोचतीं तो कभी महीनों या सालों बाद उमड़ी देशभक्ति के बारे में सोच कर रोमांचित हो उठतीं.

उन का मन बहुत भ्रमित था कि क्या यही वह ‘चेंज’ है जो वे चाहतीं थीं? वे सोच रही थीं कि क्या सच में वे ऐसा ही दिन बिताना चाहती थीं जिस में दिन खत्म होने पर उनशके दिल में खुशी के साथ कसक भी रह जाए?

तभी छोटी बेटी ने हाथ हिलाते हुए अपनी मां से पूछा,”मम्मी, अगले संडे हम कहां चलेंगे?”

अब शोभा को ‘चाहत और जरूरत’ में से किसी 1 को चुनने का था. उन्होंने सब की जरूरतों का खयाल रखते हुए साथ ही अपनी चाहत का भी तिरस्कार न करते हुए कहा,”आज के जैसे बस से पूरा शहर देखते हुए बीच चलेंगे और सनसेट देखेंगे.”

शोभा सोचने लगीं कि अच्छा हुआ जो प्रकृति अपना सौंदर्य दिखाने के पैसे नहीं लेती और प्रकृति से बेहतर चेंज कहीं और से मिल सकता है भला?

शोभा को प्रकृति के साथसाथ अपना घर भी बेहद सुंदर नजर आने लगा था. उस का अपना घर, जहां उस के सपने हैं, अपने हैं और सब का साथ भी तो.

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