एक और मित्र: प्रिया की मदद किसने की

family story in hindi

एक और मित्र- भाग 4: प्रिया की मदद किसने की

‘‘मैं जानती हूं कि भाभी को घूमने का शौक है पर बच्चों के कारण वे जा नहीं पातीं. इसीलिए यहां आ कर मैं ज्यादा से ज्यादा उन्हें घूमने का अवसर देती हूं. घर के कामों में उन का हाथ बंटाती हूं. इस से उन्हें भी अच्छा लगता है और मुझे भी यहां पर परायापन नहीं लगता.

‘‘फिर दीदी, जरा यह भी सोचो कि सिर्फ भाई होने के नाते क्या वे हमेशा ही हमारी झोली भरने का दायित्व निभाते रहेंगे? आखिर अब उन का भी अपना परिवार है. फिर हम लोगों के पास भी कोई कमी तो नहीं है.’’

‘‘वीरा बूआ, वीरा बूआ,’’ तभी नीचे से भैया के बेटे रोहित का स्वर गूंजा और वह लपक कर नीचे चली गई पर जातेजाते वह प्रिया के लिए विचारों का अथाह समुद्र छोड़ गई.

प्रिया सोचने लगी, ‘कितना सही कहती है वीरा. स्वयं मैं ने भी तो भैया के ऊपर हमेशा यही विवशता थोपी है. दिल्ली आ कर घूमनाफिरना या फिल्म देखने के अतिरिक्त मुझे याद नहीं कि भाभी के साथ मैं ने कभी रसोईघर में हाथ बंटाया हो.’

‘‘किस सोच में डूब गईं, दीदी?’’ काम निबटा कर वीरा फिर ऊपर आ गई तो प्रिया चौंक गई. पर मन की बात छिपाते हुए उस ने विषय पलट दिया, ‘‘वह भैया की समस्या…’’

‘‘हां, सुनो, भैया को इस बार व्यापार में 5 लाख रुपए का घाटा हुआ है. उन की आर्थिक स्थिति इस समय बहुत ही खराब है,’’ वीरा का गंभीर स्वर प्रिया को बेचैन कर गया. वह बोली, ‘‘क्या कह रही हो?’’

‘‘हां, भैया ने माल देने के लिए किसी से 5 लाख रुपए बतौर पेशगी लिए थे पर उस के बाद ही उन्हें किसी काम से बाहर जाना पड़ा. उन के पीछे कर्मचारियों की लापरवाही से माल इतने निम्न स्तर का बना कि उसे कोई आधेपौने में भी खरीदने को तैयार नहीं.’’

‘‘पेशगी देने वाली पार्टी का कहना है कि 1 माह के भीतर या तो वे उन्हें अच्छे स्तर का माल दें वरना उन का पैसा वापस कर दें. नहीं तो वे लोग फैक्टरी कुर्क करवा कर अपना पैसा वसूल लेंगे.’’

‘‘पर वह पेशगी 5 लाख…?’’

‘‘वह भैया ने कच्चा माल खरीदने में व्यय कर दिया. अब वह भाभी का पूरा जेवर भी गिरवी रख दें तो भी उन्हें

2 लाख से ज्यादा रुपया नहीं मिलेगा,’’ वीरा इतना कह कर चुप हो गई.

पर प्रिया के मस्तिष्क में तो अभी भी कुछ चल रहा था, ‘‘पर भैया ने हम लोगों से यह बात क्यों नहीं बताई?’’

‘‘कैसे बताते,’’ वीरा का स्वर इस बार जरूरत से ज्यादा तीखा था, ‘‘तुम तो इस घर में हमेशा बेटी के हक की बग्घी में बैठ कर मानसम्मान पाने की दृष्टि से आईं. फिर भला वे अपने घर की इज्जत को तुम्हारे सामने कैसे निर्वस्त्र करते. हम मध्यवर्गीय परिवारों का आत्मसम्मान ही तो एक पूंजी है. फिर भैया का स्वभाव तो तुम जानती ही हो, कोई उन के गले में हाथ डाल कर उन का दर्द भले ही उगलवा ले, पर दूर खड़े व्यक्ति पर तो वे अपनी पीड़ा की छाया भी नहीं पड़ने देंगे.’’

वीरा ने इतनी बेरहमी से सचाई की परतें उधेड़ीं कि प्रिया कराह उठी, ‘‘वीरा, बस करो. अब और सुनने का मुझ में साहस नहीं है. मुझे अपनी भूल समझ में आ गई है.’’

‘‘प्रिया,’’ तभी नीचे से प्रणव का स्वर गूंजा और वे दोनों उठ कर नीचे आ गईं. दिनेश और प्रणव बाजार से ही खाना ले आए थे.

‘‘भाभी, आज आप की रसोई की छुट्टी,’’ प्रणव ने हाथ में पकड़ा बड़ा सा पैकेट भाभी की ओर बढ़ाया तो वे अचकचा गईं, ‘‘पर, यह सब?’’ उन्हें कुछ सूझा नहीं कि क्या कहें.

‘‘अरे, आज हम लोगों की छुट्टी है तो आप लोगों को भी तो आराम मिलना चाहिए. आखिर यह समानता का युग है न.’’

एक समवेत ठहाका लगा और अचानक ही प्रिया को जैसे वातावरण हलकाफुलका लगने लगा.

शाम को चलते समय भाभी ने प्रिया के सम्मुख साड़ी और बच्चों के कपड़ों के लिए रुपए रखे तो वह पहली बार सकुचा उठी, ‘‘बस भाभी, औपचारिकताओं के बंधन को तोड़ कर आज मैं खुद को बहुत हलकाफुलका महसूस कर रही हूं. अब फिर मुझे उसी दलदल में मत घसीटो.’’

भाभी पता नहीं इन शब्दों का अर्थ समझीं या नहीं, पर पास खड़ी वीरा ने उन्हें आंख से इशारा किया. कुछ न बोलते हुए उन्होंने प्रिया को अपने अंक में भर लिया.

‘‘क्यों, मायके से बिछुड़ने का गम सता रहा है?’’ टे्रन में उसे उदास देख प्रणव ने उसे छेड़ा तो वह धीमे से बोली, ‘‘वह बात नहीं…’’

‘‘तो फिर, किसी और से बिछुड़ने का…?’’ प्रणव के स्वर में शैतानी उतर आई. पर वह तो रोंआसी हो उठी, ‘‘तुम्हें मालूम नहीं, भैया इस समय कितनी परेशानी में हैं. काश, हम उन की मदद कर पाते.’’

इतने दिनों बाद एकांत पाने पर प्रणव का मन तो कर रहा था कि वह प्रिया को कुछ और चिढ़ाए पर उस का उदास स्वर सुन उस ने यह विचार छोड़ दिया, ‘‘मुझे मालूम है, पर तुम्हें कैसे पता चला?’’

प्रणव के स्वर में आश्चर्य का स्पर्श था. पर प्रिया ने उस ओर ध्यान न दे चिंतित स्वर में कहा, ‘‘अब क्या होगा? क्या भैया की फैक्टरी कुर्क…?’’

पर प्रणव मुसकरा दिया, ‘‘तुम चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘पर इतना रुपया…?’’

‘‘मैं ने लघु उद्योग विकास बैंक के प्रबंधक से बात की थी. वह मेरा पुराना मित्र निकला. 15 दिन के भीतर भैया को 5 लाख रुपए का ऋण मिल जाएगा.’’

‘‘ओह, प्रणव, तुम कितने अच्छे हो…’’ खुशी और गर्व से भर कर प्रिया ने पति के दोनों हाथ अपनी मुट्ठियों में भर लिए तो मुसकरा कर उस ने बच्चों की ओर संकेत किया. लजा कर प्रिया ने झटके से हाथ छोड़ दिए.

बाद में सीट पर बिस्तर लगाते हुए प्रणव ने उसे बताया, ‘‘भैया की परेशानी की कुछ भनक तो मुझे यहां आते ही हो गई थी पर उन से साफ पूछने का साहस नहीं हो रहा था. दिनेश के आते ही उस से मुझे पूरा ब्योरा मिल गया और फिर भैया से बात कर के समस्या चुटकियों में हल हो गई.’’

पत्नी का बदला रूप देख कर प्रणव को बहुत प्रसन्नता हो रही थी. रिश्ते में दुर्गंध आने से पहले ही प्रिया ने बासी औपचारिकताओं को जड़ से उखाड़ उस में हमेशा के लिए ताजगी भर दी थी. पर उस से भी ज्यादा खुशी का एहसास उस वक्त भाभी के घर से वापस जाते हुए वीरा को हो रहा था, क्योंकि उस के भैया को एक मित्र जो मिल गया था.

एक और मित्र- भाग 2: प्रिया की मदद किसने की

पर शिमला में पहला दिन ही उस का अच्छा नहीं बीता. वहां पहुंचते ही मौसम बहुत खराब हो गया. तेज हवा के साथ बूंदाबांदी भी होने लगी. प्रणव के जाने के बाद प्रिया को होटल के कमरे में ही सारा दिन गुजारना पड़ा. इसलिए जब प्रणव ने रात में लौट कर बताया कि मीटिंग 2 दिन के बजाय 1 ही दिन में खत्म हो गई है और वे सवेरे ही दिल्ली वापस जा रहे हैं तो प्रिया ने चैन की सांस ली.

भैया के घर पहुंचते ही गेट पर ही प्रिया की छोटी बहन वीरा मिल गई. दौड़ कर उस ने प्रिया को अपनी बांहों में भर लिया, ‘‘ओह दीदी, कितने दिन बाद मिली हो.’’

‘‘पर तू कब आई?’’ प्रिया ने उस के साथ भीतर कदम रखते हुए पूछा.

‘‘कल, बस तुम्हारे जाने के 5 मिनट बाद, दिनेश को कुछ सामान खरीदना था.’’

‘‘अच्छा, पर इस से तो तू 5 मिनट पहले आ जाती तो मैं शिमला की बोरियत से बच जाती,’’ प्रिया ने हंस कर कहा तो वीरा भी मुसकरा दी, ‘‘क्यों, शिमला में जीजाजी के साथ अच्छा नहीं लगा क्या?’’

‘‘यह बात नहीं,’’ प्रिया झेंपती सी बोली, ‘‘वहां पहुंचते ही मौसम इतना खराब हो गया कि होटल से बाहर पांव निकालना भी दुश्वार था,’’ कहतेकहते उस ने सोफे पर बैठते हुए वहीं से आवाज लगाई, ‘‘अरे भाभी, जरा चाय तो पिला दो.’’

‘‘पर तुम कहां चलीं सालीजी, हमारे आते ही?’’ टैक्सी वाले को भाड़ा चुका कर तब तक प्रणव भी भीतर आ गया. वीरा को उठते देख उस ने चुटकी ली तो उस ने भी हंस कर जवाब दिया, ‘‘आप के लिए बढि़या सी चाय बनाने.’’

‘‘पर तू क्यों जा रही है? रसोई में भाभी तो हैं,’’ प्रिया ने वीरा का हाथ पकड़ उसे बिठाने का प्रयत्न किया.

पर उस ने धीमे से हाथ छुड़ा लिया, ‘‘भाभी गाजियाबाद गई हैं भैया के साथ. उन की बहन के लड़के का जन्मदिन है आज.’’

‘‘क्या? पर तुझे यहां अकेली छोड़ कर?’’ प्रिया का स्वर आश्चर्य की नोक पर लटक गया तो वीरा गंभीर हो उठी, ‘‘वे गईं नहीं बल्कि मैं ने ही उन्हें जबरदस्ती भेजा है. इस घर में तो ब्याह से पहले मैं ने 20 साल गुजारे हैं. यहां रह कर अकेलापन कैसा? फिर रोहित, सीमा हैं, वे लोग स्कूल के कारण नहीं गए हैं और दिनेश तो शाम को आ ही जाते हैं.’’

‘‘हूं,’’ कुछ सोच में पड़ गई प्रिया, फिर धीमे से बोली, ‘‘पर भाभी को तो मालूम था कि हमें लौटते ही कानपुर जाना है.’’

‘‘हां, लेकिन दीदी, तुम अपने कार्यक्रम के मुताबिक 1 दिन पहले लौट आई हो और कल तुम्हारे जाने से पहले तक भाभी आ जाएंगी,’’ कह कर वीरा चाय बनाने चली गई.

पर प्रिया को भाभी का यह उपेक्षित व्यवहार कुछ अच्छा नहीं लगा. सोचने लगी कि आखिर वह रोजरोज तो मायके आती नहीं.

कुछ ही देर में वीरा चाय के साथ पकौड़े भी बना लाई और सब लोग चाय पीने के साथ हंसीमजाक में व्यस्त हो गए. बातों के दौरन ही वीरा रसोईघर से सब्जी उठा लाई और जब तक बातें खत्म हुईं तब तक उस ने रात के खाने के लिए सब्जियां काट ली थीं.

अगले 2 घंटों में वीरा ने रात का खाना तैयार कर लिया. प्रिया ने भी उस की थोड़ीबहुत मदद कर दी थी. तब तक दिनेश भी आ गया. फिर खाने की मेज पर कुछ अतीत और कुछ वर्तमान की बातों में कब रात के 11 बज गए, पता ही न चला.

दूसरे दिन सुबह ही भैयाभाभी आ गए. प्रिया को पहले ही वहां उपस्थित देख कर भाभी को थोड़ी हैरानी हुई पर वीरा ने तुरंत आगे आते हुए हंस कर कहा, ‘‘दीदी का प्रोग्राम बदल गया था, इसलिए कल शाम ही आ गईं. पर घबराओ नहीं, भाभी, तुम्हारे मेहमान को मैं ने कोई तकलीफ नहीं होने दी है.’’

यह सुन और समझ कर प्रिया चिढ़ गई, ‘हुंह, मैं मेहमान हूं तो वीरा क्या है,’ पर बहन से बात न बढ़ाने की गरज से चुप रही. तभी भाभी रसोईघर की ओर बढ़ीं तो वीरा ने उन्हें रोक दिया, ‘‘तुम बैठो भाभी, अभी सफर से थकीमांदी आई हो. मैं तुम्हारे लिए चाय लाती हूं.’’

फिर प्रिया ने गौर किया कि भाभी के आने के बाद भी वीरा घर के हर काम में इतनी रुचि ले रही है जैसे वह कभी इस घर से गई ही न हो. वह उसी घर का एक अंग लग रही थी. भैया भी बातबात पर वीरा और दिनेश से सलाह ले रहे थे. भैया के बच्चों को तो वह कल से ही देख रही थी. वे किसी न किसी बहाने वीरा को घेरे हुए थे. खाना बनाते समय रसोईघर से बराबर वीरा और भाभी की आवाजें आ रही थीं.

 

सबकुछ महसूस कर प्रिया को पहली बार उस घर में अपना अपमान सा लगा, वह भी अपनी ही छोटी बहन के कारण. वह सोचने लगी, ‘आखिर ऐसा क्या कर दिया है वीरा ने जो भाभी उस से इस कदर घुलमिल कर बातें कर रही हैं. मुझे तो याद नहीं कि भाभी ने कभी मुझ से भी इतनी अंतरंगता से बात की हो. आखिर मुझ में क्या कमी है. वीरा का पति अगर सफल व्यवसायी है तो प्रणव भी तो एक प्रतिष्ठित फर्म में उच्चाधिकारी हैं.’

प्रिया का मन उदास हो गया तो वह चुपचाप कमरे में आ कर लेट गई. प्रणव दफ्तर जा चुके थे और दिनेश भैया के साथ फैक्टरी चले गए. बच्चे बाहर खेल रहे थे. तनहाई उसे बहुत खल रही थी. पर इस से भी ज्यादा गम उसे इस बात का था कि उस की उपस्थिति से बेखबर वीरा और भाभी अपनी ही बातों में मशगूल हैं.

‘‘अरे दीदी, तुम यहां लेटी हो और मैं तुम्हें सारे घर में ढूंढ़ढूंढ़ कर थक गई,’’ कुछ ही देर में वीरा ने कमरे में घुसते हुए कहा तो वह जानबूझ कर चुप रही. पर मन ही मन बड़बड़ाई, ‘हुंह, खाक मुझे ढूंढ़ रही थी, झूठी कहीं की.’

‘‘क्या बात है प्रिया, तबीयत तो ठीक है?’’ तब तक भाभी भी आ गईं. प्रिया के माथे पर हाथ रख उन्होंने बुखार का अंदाजा लगाना चाहा पर उस ने धीमे से उन का हाथ हटा दिया, ‘‘ठीक हूं, कोई खास बात नहीं है.’’

‘‘सिर में दर्द है क्या?’’ भाभी के स्वर में चिंता उभर आई तो वह गुस्से से भर गई. ‘ऊपर से कैसे दिखावा करती हैं,’ उस ने सोचा.

एक और मित्र- भाग 1: प्रिया की मदद किसने की

कार्यालय से लौट कर जैसे ही प्रणव ने बताया कि उसे मीटिंग के सिलसिले में 5-6 दिन के लिए दिल्ली जाना है, प्रिया खुशी से उछल पड़ी, ‘‘इस बार मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी. वीनू और पायल के स्कूल में 3 दिन की छुट्टियां हैं, 2 दिन की छुट्टी उन्हें और दिला देंगे.’’

‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी मरजी,’’ प्रणव ने जूते के फीते खोलते हुए कहा.

प्रिया के उत्साह का उफान दोगुना हो गया, ‘‘कितने दिन हो गए दिल्ली गए हुए. अब 5-6 दिन बहुत मजे से कटेंगे. बच्चों को भी इस बार पूरी दिल्ली घुमा दूंगी.’’

प्रिया के स्वर में बच्चों की सी शोखी देख प्रणव के अधरों पर मुसकराहट उभर आई, ‘‘अच्छा बाबा, खूब घूमनाघुमाना, पर अब चाय तो पिला दो.’’

‘‘हां, चाय तो मैं ला रही हूं पर तुम कल सुबह ही दफ्तर से फोन कर के भैया को अपना प्रोग्राम बता देना,’’ प्रिया ने उठते हुए कहा तो प्रणव फिर धीमे से मुसकरा दिया, ‘‘पर मैं तो सोच रहा था कि इस बार उन्हें अचानक पहुंच कर आश्चर्यचकित कर देंगे.’’

‘‘नहीं, तुम पहले फोन जरूर कर देना,’’ कमरे से निकलती हुई प्रिया एक पल को ठहर गई.

‘‘पर क्यों?’’

‘‘अरे, उन्हें कुछ तैयारी करनी होगी. आखिर तुम दामाद हो उस घर के,’’ कहते हुए प्रिया रसोईघर की ओर मुड़ गई.

पर प्रणव का चेहरा गंभीर हो उठा. प्रिया की यही बात तो उसे अच्छी नहीं लगती थी. ससुराल में उस की इतनी आवभगत होती कि संकोच महसूस कर के वह स्वयं वहां बहुत कम जाता था. प्रिया के भैयाभाभी से जबजब उस ने औपचारिकता के इन बंधनों को काटने का अनुरोध किया तो प्रिया ने बीच में आ कर सबकुछ वहीं का वहीं स्थिर कर दिया. वह बोली, ‘हम कौन सा रोजरोज यहां आते हैं.’

इस संबंध में प्रणव ने खुद कितनी बार पत्नी को समझाने का प्रयत्न किया पर सब व्यर्थ रहा. उस के मस्तिष्क पर तो संस्कारों की स्याही से लिखी इबारत इतनी पक्की थी कि उस पर कोई रंग चढ़ने को तैयार न था.

प्रिया चाय ले आई. चाय पी कर उठते हुए प्रणव धीमे से बोला, ‘‘शुक्रवार को रात की गाड़ी से चलना है. मैं दफ्तर से किसी को भेज कर आरक्षण करवा लूंगा. तुम सब तैयारी कर लेना.’’

दिल्ली जाने की बात सुन कर बच्चों की भी खुशी का ठिकाना न था. पिछली बार की स्मृतियां अभी भी ताजा थीं. सो वे आगे का प्रोग्राम बना रहे थे.

‘‘याद है वीनू, पिछली बार मामाजी के यहां कितना मजा आया था. रोज खूब चाट, पकौड़े, आइसक्रीम और रसगुल्ले खाते थे, वीसीआर पर रोज फिल्म…’’

पायल ने अपनी आंखें नचाते हुए कहा तो वीनू भी बोल पड़ा, ‘‘अरे, इस बार तो हम खूब दिल्ली घूमेंगे और मां कह रही थीं कि हम पूरे सालभर बाद वहां जा रहे हैं, मामाजी हम को नएनए कपड़े भी देंगे.’’

सुन कर उधर से गुजरते प्रणव का मन खट्टा हो गया. दिल तो किया कि प्रिया का जाना रद्द कर दे. वह सोचने लगा, ‘आखिर क्या कमी है उस के घर में जो वह अभी तक मायके वालों से इतनी अपेक्षाएं रखती है. फिर वह यह क्यों नहीं सोचती कि उस के भाई का अपना परिवार है, कब तक अपने मांबाप के दायित्वों का बोझ वह उठाता रहेगा. शराफत की भी एक सीमा होती है. अगर भाई अपने कर्तव्यों को निबाह रहा है तो बहन का भी तो कुछ फर्ज बनता है…

‘पर प्रिया तो इस मामले में बिलकुल कोरी है. अधिकारों की सीमाएं लांघना तो उसे खूब आता है पर कर्तव्यों की लक्ष्मणरेखा के करीब भी जाना उसे पसंद नहीं. अब बच्चों के भोले मस्तिष्क में भी इस प्रकार की बातें डाल कर वह अच्छा नहीं कर रही.’

उसी पल प्रणव ने निश्चय कर लिया कि इस बार वापस आने पर वह प्रिया से इस विषय में कड़ाई से पेश आएगा. अब जाते समय वह इस बात को छेड़़ कर पत्नी और फिर स्वयं का मूड खराब नहीं करना चाहता था.

स्टेशन पर ही भैयाभाभी आए हुए थे. पर इस बार प्रणव ने महसूस किया कि हर बार की तरह उन के चेहरों पर वह ताजगी नहीं थी जिसे देखने का वह अभ्यस्त था. घर जाते समय उस ने दबे शब्दों में उन से पूछने का प्रयत्न भी किया, जिसे भैया हंस कर टाल गए. पर प्रिया इन सब से बेखबर अपनी ही रौ में भाभी को कानपुर के किस्से सुनाती जा रही थी.

घर पहुंचते ही सब ने छक कर नाश्ता किया. एक तो जबरदस्त भूख, ऊपर से भाभी ने इतना स्वादिष्ठ नाश्ता बनाया था कि प्लेटों पर प्लेटें साफ होती चली गईं.

नाश्ते के बाद भाभी तो रसोईघर में दोपहर के भोजन की व्यवस्था में लग गईं और प्रिया भैया से गपशप मारने में मशगूल हो गई.

‘‘भैया, आप दफ्तर जा कर गाड़ी वापस भेज दीजिएगा क्योंकि इस बार मैं बच्चों को दिल्ली घुमाने का वादा कर चुकी हूं.’’

बातों के दौरान प्रिया ने कहा तो पास ही खड़ा टाई की गांठ लगाता प्रणव झल्ला उठा, ‘‘तुम भी कमाल करती हो प्रिया, भैया का दफ्तर यहां रखा है, 30-35 किलोमीटर दूर से कार वापस आए और फिर शाम को भैया को भी लौटना है. इस से तो अच्छा है तुम लोग टैक्सी से जाओ. बच्चे आराम से घूम लेंगे.’’

‘‘देखो जी, तुम मेरे और मेरे भैया के बीच में मत बोलो. यह हमारे आपस की बात है,’’ प्रिया ने चिढ़ कर कहा तो क्रोध में भरा प्रणव बिना कुछ बोले बाहर निकल गया. वह जानता था कि मायके में प्रिया से कुछ कहना और भी व्यर्थ सिद्ध होगा.

अगले 2 दिनों तक प्रणव अपने कार्यालय की मीटिंग में व्यस्त रहा. उस की कंपनी द्वारा एक नई फैक्टरी लगाने के सिलसिले में कनाडा से कुछ विशेषज्ञ आए हुए थे. इसलिए दोपहर और रात का खाना भी उसे विदेशी अतिथियों के साथ ही खाना पड़ता था.

इस बीच, प्रिया ने भैया की कार से बच्चों को जीभर कर सैर कराई. भाभी के बच्चे तो स्कूल चले जाते थे और भाभी को घर में ही काफी काम था. क्योंकि पुराना नौकर इन दिनों छुट्टी पर था इसलिए प्रिया के साथ केवल वीनू और पायल ही थे.

तीसरे दिन प्रणव ने आ कर बताया कि अगले 2 दिनों की मीटिंग शिमला में होनी है और प्रिया अगर वहां अकेले घूमना पसंद करे तो उस के साथ चल सकती है. घुमक्कड़ प्रिया को इस से बढ़ कर खुशी क्या हो सकती थी. शानदार होटल में रहना, खाना और घूमने के लिए कंपनी की गाड़ी, उस ने झट से ‘हां’ कर दी.

एक और मित्र- भाग 3: प्रिया की मदद किसने की

वीरा और भाभी के बहुत जोर देने पर वह बाहर आ कर बैठ तो गई पर उस का मन अनमना ही रहा. कानपुर जाने के लिए उन लोगों को अगले दिन का आरक्षण मिला था.

रात में भैया, प्रणव और दिनेश की खानेपीने की विशेष महफिल जम गई. भाभी और वीरा ने मिल कर कई तरह के मांसाहारी व्यंजन बना लिए थे.

‘‘वीरा, मटन चाप तो तुम्हीं बनाओ, तुम्हारे भैया बहुत पसंद करते हैं,’’ भाभी ने हंस कर वीरा से कहा. पर उस समय वे यह नहीं देख पाईं कि वहीं खड़ी प्रिया का मुंह अचानक ही सिकुड़ कर रह गया था.

मन में पलती अपमान की पीड़ा को सिरदर्द का नाम दे कर प्रिया जल्द ही बिस्तर पर आ गई. प्रणव भी 12 बजते- बजते नींद से बोझिल आंखें लिए पलंग पर लेटते ही सो गए. पर बिस्तर पर करवटें बदलते हुए देर तक जागती प्रिया के कानों में कुछ आवाजें रहरह कर आ रही थीं.

प्रणव के आने के बाद वह स्नानघर जाने के लिए कमरे से बाहर निकली ही थी कि खाने के कमरे से आती दिनेश की आवाज सुन कर वह चौंक कर ठिठक गई. वह कह रहा था, ‘‘भैया, आप चिंता मत करिए, कोई न कोई हल शीघ्र ही निकल आएगा.’’

‘‘अरे, मुझ से ज्यादा तो चिंता सुलेखा को है जो दिनरात उसी में घुली जाती है. देखते नहीं इस का चेहरा,’’ यह भैया का स्वर था.

‘‘अरे भाभी, जब तक हम हैं तब तक तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं. हम लोग कोई न कोई रास्ता खोज ही लेंगे,’’ वीरा के स्वर में दिलासा के रंग लबालब छलक रहे थे, जिन्हें महसूस कर के ही शायद भैया ने भरे कंठ से कहा, ‘‘मैं जानता हूं. तुम लोग ही तो हो जिन पर मुझे पूरा भरोसा है.’’

स्नानघर से आते ही अपमान की अग्नि में प्रिया का तनमन सुलग उठा, ‘तो क्या मैं इतनी पराई हूं, दिनेश के सम्मुख भैया अपनी समस्या कह सकते हैं, पर अपनी ही सगी बहन से इतना दुराव? मैं तो भैयाभाभी के घर कोे बिलकुल अपना समझ कर यहां आने को उत्सुक रहती थी. पर क्या मालूम था कि उन का स्नेह और सत्कार केवल दिखावा है. अपनापन तो केवल वीरा के हिस्से में…’

मन आहत हुआ तो आंखों से बरबस ही गंगाजमुना की धार बह निकली और वह उसी पानी में डूब कर कब सो गई, पता ही नहीं चला.

सुबह जब वह सो कर उठी तो वाकई उस का सिर भारी था पर रात के अनुभव की खटास अभी दिल से मिटी नहीं थी. उस ने फैसला कर लिया कि अब वह दिल्ली जल्दी नहीं आएगी. पर रात को वीरा, दिनेश और भैया की बात का अधूरा सिरा अभी भी उस के सीने में फांस की तरह चुभ रहा था. जब सबकुछ असहनीय हो गया तो वह वीरा को ले कर ऊपर चली आई, ‘‘मुझे तुझ से अकेले में कुछ बात करनी है.’’

उस दिन इतवार था. बच्चे टीवी देखने में व्यस्त थे और नाश्ते के बाद प्रणव दिनेश के साथ बाजार चले गए. भैया बैठक में किसी से बातें कर रहे थे और भाभी नहा रही थीं.

‘‘पर ऐसी क्या बात है जो तुम भाभी के सामने…?’’ वीरा ने छत की मुंडेर पर बैठते हुए पूछा तो प्रिया बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘क्यों, बहुत सी बातें क्या ऐसी नहीं हैं जो भाभी मेरे सामने नहीं कहना चाहतीं?’’

‘‘मैं समझी नहीं, तुम कहना क्या चाहती हो?’’ बहन का तल्ख स्वर वीरा को हतप्रभ कर गया.

‘‘देख वीरा, अनजान बनने की कोशिश मत कर. मैं कल से देख रही हूं अपने प्रति सब का बेगाना व्यवहार. और जिसे मैं इतने दिन तक उन का प्यार समझती रही, अब जा कर मालूम हुआ कि वह एक खोखला दिखावा था,’’ प्रिया का स्वर अभी भी कसैला था.

पर वीरा ने अपना स्वर यथासंभव कोमल बना लिया, ‘‘यह तुम कैसे कह सकती हो?’’

‘‘कैसे कह सकती हूं,’’ प्रिया गुस्से से बोली, ‘‘कल से मैं देख नहीं रही कि हर बात में भैयाभाभी का तुझ से मशवरा करना, वह घुटघुट कर बातें करना और भैया की कुछ समस्या…’’ आखिरी शब्दों पर प्रिया हिचकिचा गई तो वीरा व्यंग्य से मुसकरा दी, ‘‘हूं, तो तुम ने सब सुन लिया. चलो, यह भी अच्छा ही हुआ.’’

पर उस ओर बिना ध्यान दिए प्रिया अपनी ही रौ में शिकायत करती जा रही थी, ‘‘देख वीरा, मैं तुझ से बड़ी हूं. फिर 2 बहनों के बीच भैया का यों अंतर रखना क्या अच्छी बात है? और मुझे तुझ से भी ऐसी उम्मीद नहीं थी.’’

बहन के आखिरी लफ्जों पर ध्यान न दे कर वीरा अपने एकएक शब्द पर जोर दे कर बोली, ‘‘पर दीदी, यह अंतर बनाया किस ने? यह तुम ने कभी सोचा?’’

 

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि यह अंतर तुम ने स्वयं अपने हाथों गढ़ा है,’’ वीरा अचानक ही जैसे कू्रर हो उठी.

‘‘मैं ने? पर…’’

‘‘हां, दीदी, तुम ने भैया को सदैव रिश्ते की छड़ी से दबाए रखा. उन के कर्तव्यों की तो हमेशा तुम्हें याद रही पर अपने फर्ज की ओर भूल कर भी नहीं देखा. दीदी, तुम यह भूल गईं कि खून के संबंध जन्म से जरूर अपना महत्त्व और मजबूती लिए होते हैं पर कभीकभी बाद में यही संबंध मात्र बोझ बन कर रह जाते हैं, जिन्हें निभाने की बस एक विवशता होती है. अब समय आ गया है कि इस बोझ को हम जानबूझ कर अपनों के कंधों पर न डालें.’’

‘‘यह तू क्या कह रही है, वीरा? तू कहना चाहती है कि मैं भैया से अपना संबंध…’’ प्रिया का स्वर हैरानी के आरोह को पार कर पाता इस से पहले ही वीरा ने हंस कर उसे पकड़ लिया, ‘‘नहीं, दीदी, भैया से तुम्हारा संबंध अपनी जगह पर है. पर हां, यदि तुम इसी रिश्ते में विवशता की जगह मित्रता का रंग मिला दो तो तुम्हारा संबंध और गहरा हो उठेगा. क्योंकि मित्रता उस पुष्प की भांति है जिस की सुगंध कभी खत्म नहीं होती.

‘‘रिश्ते चुने नहीं जा सकते पर मित्र बनाना हमारे अपने अधिकार में है. रिश्ते हमारे शरीर के साथ जन्म लेते हैं जबकि मित्र हमारा मन स्वयं चुनता है. इसीलिए उन में औपचारिकता नहीं होती, रिश्तों का परंपरागत आडंबर नहीं होता.

‘‘मैं ने भी यही किया है दीदी, औपचारिकता की सारी कडि़यां एक ओर समेट मैं ने भैयाभाभी को अपना मित्र बना लिया है.’’

‘‘मैं समझी नहीं, वीरा?’’

‘‘तुम तो जानती हो दीदी, दिनेश के साथ मैं अकसर दिल्ली आ जाती हूं. पर एक बहन के अधिकार से नहीं बल्कि एक मित्र की हैसियत से और इसी नाते मैं उन का हर सुखदुख बांटने का प्रयत्न करती हूं.

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