पहले जब लोगों के दिल बड़े हुआ करते थे, तब घर भी बड़े व हवादार हुआ करते थे, भरेपूरे संयुक्त परिवार हुआ करते थे. जब से लोगों के दिल छोटे हुए, घर भी छोटे व बेकार होने लगे डब्बेनुमा. अब जब कोरोना जैसी महामारी आई तो लोगों को पूर्वजों की बड़ी व खुली सोच और बड़े व खुलेखुले घर की अहमियत समझ में आई.
बात पिछले साल की है. बिहार के अपने लंबेचौड़े, संयुक्त पुश्तैनी घर से दिल्ली के 2 कमरों के सिकुड़ेसिमटे फ्लैट में शिफ्ट हुए एक महीना भी नहीं हुआ था कि कोरोना महामारी ने समूचे विश्व पर अपने भयावह पंजे फैला दिए. लौकडाउन और कर्फ्यू के बीच घर में कैद हम बेबसी में नीरस व बेरंग दिन काट रहे थे, फोन पर प्रियजनों के साथ दूरियों को पाट रहे थे. मन ही मन प्रकृति से दिनरात मिन्नतें कर रहे थे कि, हे प्रकृति, इस विदेशी वायरस को जल्दी से जल्दी इस के मायके भेज दे.
एक दिन मुंह पर मास्कवास्क बांध कर मन ही मन कोरोना के उदगम स्थल को हम अपनी बालकनी में बैठे कोस रहे थे कि अथाह भीड़ वाली दिल्ली की कोरोनाकालीन सूनी सड़क से फूलों का एक ठेले वाला अपनी बेसुरी आवाज में चीखते हुए फूल खरीदने की गुहार मचाता गुजरा. देखते ही देखते महामारी को ठेंगा दिखाते लोगों की भीड़ ठेले के पास जमा हो गई.
हम भारतीयों की ख़ासीयत है कि हम लौकडाउन, कर्फ्यू या मास्कवास्क को अपनी सुविधानुसार ही अहमियत देते हैं. भावताव के साथ संपन्न हो रही थी सौदेबाजी, कोरोना ने कहीं महंगे कर दिए थे फूल तो कहीं सस्ते में भाजी मिल रही थी. थोड़ी ही देर बाद मैं ने देखा कि सामने वाले घर की बालकनी गुलाब के गमलों से सज गई है और गमले में लगे यौवन से उन्मत्त लालपीले सुकुमार गुलाब मेरी ओर बड़ी अदा से देख कर मुसकरा रहे हैं. अकेलेपन से व्यथित मेरे ह्रदय को अपनी ख़ूबसूरती से चुरा रहे हैं. अगलबगल के घरों की बालकनी का भी यही नज़ारा था.
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गुलाबों का बेहिसाब हुस्न मेरे दिल को बरबस ही भा चुका था. पर करें क्या, फूल वाला तो अपने सारे गुलाब बेचकर जा चुका था. अब हर दिन मैं फूलवाले के इंतज़ार में बालकनी में बैठी रहती. किसी भी बेसुरी आवाज पर मेरी सारी चेतना कानों में समा जाती. पर सूनी सड़क पर यदाकदा भीख मांगने वाले या फिर शौकिया सड़कों की ख़ाक छानने वाले ही नज़र आते. न जाने फूलवाला कहां लुप्त हो गया था.
आखिरकार, एक हफ्ते बाद फूलवाला दोबारा से सड़क पर प्रकट हुआ. भीड़ का जत्था ठेले तक पहुंचे, इस के पहले ही मैं तेज गति से ठेले के पास जा पहुंची. अलगअलग रंगों के 10 गुलाब पसंद कर के मैं ने फूलवाले से उन्हें गमले में लगा देने को कहा.
“फूल लगाने के पैसे अलग से लगेंगे, मैडम जी,” भीड़ देख कर वह वाला भाव खा रहा था.
मैं बोली, “अरे, तो ले लेना अलग से पैसे, फूल तो लगा दो.”
वह बोला, “फूल कैसे लगा दूं, मैडम जी, मिट्टी किधर है?”
मैं सोच में पड़ गई, मिट्टी कहां है. मुझे पसोपेश में देख वह फूलवाला वाला बोला, “ मिट्टी लेनी है?”
मैं ने झट से हामी भरी तो उस ने एक छोटा सा पैकेट निकाला और बोला, “यह 5 किलो मिट्टी है, 375 रुपए लगेंगे. लेना है, तो बोलो.”
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मिट्टी इतनी कम थी कि एक गमला भी ठीक से नहीं भर सकता था. पर फूल वाले ने बड़ी कुशलता से 4 गमलों में जराजरा सी मिट्टी डाल कर गुलाब के पौधे लगा दिए और बाकी मिट्टी कल लाने की बात कह कर चला गया.
6 गुलाब के पौधे बेचारे यों ही बालकनी के फर्श पर गिरे पड़े से थे. अपने अंजाम को सोच कर मानो डरेडरे से थे. मैं ने फोन पर अपनी मित्रमंडली में अपनी परेशानी बताई, तो सब ने औनलाइन मिट्टी खरीदने का सुझाव दिया. मैं झटपट औनलाइन मिट्टी सर्च करने लगी. यहां तो तरहतरह की मिट्टियों की भरमार थी. हम तो एक ही मिट्टी समझते थे. यहां मिट्टी की हजारों किस्में उपलब्ध थीं.
गुलाब के लिए अलग मिट्टी तो सिताब के लिए अलग, गुलबहार के लिए अलग तो गुलनार के लिए अलग, मनीप्लांट के लिए अलग जबकि हनी प्लांट के लिए अलग, आम के लिए अलग तो एरिका पाम के लिए अलग. साथ ही कोरोना की वजह से ‘भारी’ डिस्काउंट भी मिल रहा था. 300 रुपए किलो से 1100 रुपए किलो के बीच हजारों तरह की मिट्टियां औनलाइन बेची जा रही थीं. जैसे रेड सोयल, येलो सोयल, और्गेनिक सोयल, इनआर्गेनिक सोयल, पृथ्वी सोयल, आकाश सोयल, गोबर वाली सोयल, खाद वाली सोयल आदि. और तो और, जरा ज्यादा दाम पर यहां मिट्टी के बिस्कुट भी उपलब्ध थे.
सोने के बिस्कुट, खाने के बिस्कुट तो सुने थे पर ये मिट्टी के बिस्कुट पहली बार सुन रही थी. कई घंटे दिमाग खपाने के बाद मैं ने 15 किलो खाद वाली मिट्टी और 10 मिट्टी के बिस्कुट और्डर किए, जो कि सुबहसुबह एक छोटे से पैकेट में डिलीवरी बौय दे गया.
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बड़े बुजुर्ग कह गए थे कि एक समय ऐसा आएगा जब पानी भी पैकेट में बिकेगा. पर मिट्टी भी पैकेट में बिकेगी, यह तो किसी ने सोचा ही न होगा. खैर, बिस्कुट समेत पूरी मिट्टी बमुश्किल 5 से 7 किलो होगी. अभी औनलाइन मिट्टी खरीदने का दुख कम भी नहीं हुआ था कि दोपहर को फूलवाला भी 5 किलो कह कर दोचार मुट्ठी मिट्टी दे गया. बदले में वह पेटीएम के पूरे पैसे ले गया. औनलाइन मिट्टी खरीदने के जख्म को फूलवाला हरा कर गया और जराजरा सी मिट्टी में किसी तरह से गुलाबों को खड़ा कर गया.
ऐसी अज़ीबोगरीब मिट्टी को देख कर बेचारे गुलाब बेहद डरे हुए थे. बड़ी मुश्किल से मुट्ठीभर मिट्टी में झुकेझुके से पड़े हुए थे वे. गुलाबों की दशा देख कर मेरा मन दिल्ली के प्रदूषित आसमान की तरह धुंधवारा सा होने लगा. हाय री मिट्टी, तू तो सोने से भी कीमती निकली. मन किया कि बिहार जा कर एक बोरी मिट्टी ही ले आऊं, पर कोरोना माई की वजह से यह मंसूबा भी पूरा नहीं हो सका. भरेमन से आखिरकार मैं ने गुलाबों को उन के हाल पर छोड़ देने का फैसला किया. एक लंबी सांस के साथ मेरे मुंह से निकला- एक चुटकी मिट्टी की कीमत तुम क्या जानो…