जब प्रथम प्रसव में कन्या हुई तो विपुला पति की आंखों में उतरे क्रोध व शोक को देख कांप उठी थी. वकील साहब उपस्थित प्रियजनों के सम्मुख तो कुछ न बोले, किंतु एकांत पाते ही दांत पीस विपुला को यह जताना न भूले, ‘लड़की ही पैदा करनी थी…?’
विपुला के नेत्रों में आंसू डबडबा आए. वह चुपचाप मुंह दूसरी तरफ कर सिसकने लगी.
दूसरी बार प्रसव कक्ष में सरबती भी विपुला के साथ थी. नवजात शिशुओं के रुदन के बीच ही सरबती का चेहरा लटक गया था. उस का मुख देख ही विपुला का चेहरा स्याह पड़ गया था. परिणाम तो सरबती के चेहरे पर परिलक्षित था किंतु फिर भी उस ने प्रश्नभरी निगाह सरबती पर डाली थी.
सरबती अटकअटक कर बोली थी, ‘मालकिन, अब के तो दोनों जुड़वां बेटियां हैं.’
विपुला पर तो मानो वज्र गिर पड़ा. वह उस की ओर जीवनदान मांगती सी इतना भर कह पाई, ‘सरबती, कुछ सोच, वे बरदाश्त न कर पाएंगे,’ और वह बेहोश हो गई.
सरबती विपुला के दर्द और घाव को समझती थी, पर अनपढ़, गरीब किस बल पर उस का साहस बंधाती. उस को जो सूझा, उस ने किया.
विपुला को घंटेभर बाद होश आया तो वकील साहब को तनिक संतुष्ट व प्रसन्न देख फटी आंखों से चारों तरफ निहारने लगी. कहीं स्वप्न तो नहीं देख रही या इतने वर्षों तक वह अपने पति को ही भलीभांति न जान सकी? इतने में वकील साहब तन कर बोले, ‘देखना, बेटे को बैरिस्टर बनाऊंगा, बैरिस्टर.’
वह चौंकी, मानो स्वप्न की दुनिया से वास्तविकता में आ गई हो. वकील साहब ने बेटे को उस की बगल में लिटा दिया था. विपुला के कांपते हाथ अनायास ही बच्चे के शिश्न पर चले गए. वह मूक ठगी सी कृतज्ञ सरबती की ओर ताकने लगी.
थोड़ी देर बाद वकील साहब घर चले गए थे. विपुला ने दोनों हाथों से कंगन उतारते सरबती को इशारे से पास बुला पहना दिए और फफक कर रो पड़ी थी.
सरबती ने धीरे से बताया था, ‘चिंता न करो बहूजी, एक डाक्टर के बेटा हुआ है, उस से बदल लिया है.’
इस के बाद बड़ी देर तक सरबती खुसुरफुसुर कर बताती रही अपनी वीरगाथा कि कैसे नर्स को लोभ दिखा कर उसे यह सफलता मिली. विपुला सुन तो रही थी पर पीड़ा भी उसे हुई इस कृत्य पर. फिर भी सरबती की कृतज्ञ थी, जिस ने अपने गले में पड़ी सोने की चेन तुरंत नर्स के हाथ में रख दी थी.
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अचानक विपुला को वकील साहब ने जोरों से झकझोरा तो उस की तंद्रा टूटी. वह हड़बड़ा कर खड़ी हो गई. वे बोले, ‘‘तुम अभी तक यहीं मुंह लटकाए बैठी हो?’’
विपुला अपना सिर पकड़ बिना कुछ कहे वहां से चल दी. नलिनी ने पूछा, ‘‘मां, सिर में दर्द है?’’
दीपक ने भी कहा, ‘‘मैं सिर दबा दूं?’’
विपुला इनकार में सिर हिलाती एक लंबी सांस खींच बोली, ‘‘मुझे अकेला छोड़ दो. कोई बात मत करो.’’
‘‘पर मां, खाना तो खा लो,’’ दीपक ने कहा तो विपुला शून्य में देखती हुई बोली, ‘‘भूख नहीं है.’’
इतना कह विपुला कमरे में सोने चली गई. नींद उसे कहां आनी थी. वह आंखों में आंसू भरे करवटें लेती रही. कभी अपनी कायरता पर रोती, कभी अपराधबोध त्रस्त कर देता, ‘हाय, क्यों इतना भय समा गया था? किसी की कोख से बेटा छीन लेने का जो अपराध किया, उस से तिलतिल जलती ही रही हूं, कोई सुख नहीं पाया. इतने वर्षों तक घुटघुट कर जीती रही. पर अपने को कभी माफ नहीं कर पाई. अपनी ही नजर में जब व्यक्ति गिर जाए तो उस का जीनामरना एक समान होता है.’
अगले दिन विपुला नलिनी से ज्योति के घर का पता पूछ चली गई. उसे देखते ही डा. प्रशांत व्यंग्य से मुसकराए और बोले, ‘‘मैं जानता था, आज आप में से कोई या दोनों पतिपत्नी आओगे जरूर. इस कारण ही मैं क्लीनिक बंद कर घर में बैठा हूं,’’ फिर लंबी सांस छोड़ कर गंभीरता ओढ़ ली, ‘‘कहिए, मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं?’’
विपुला सिर झुकाए अपराधी की भांति कुछ क्षण सूखे होंठ चाटती रही. सहसा फूटफूट कर रो पड़ी. रुदन थमा तो बोली, ‘‘डाक्टर साहब, मैं आप की अपराधिन हूं, मुझे दंड मिलना ही चाहिए. मैं ने अपने स्वार्थ के कारण आप का बेटा छीना. पर विश्वास कीजिए, यह कदम मैं ने बेटीबेटे के भेद के कारण नहीं बल्कि अपने पति के भय से उठाया था. फिर भी कुछ भी हो, मैं ने यह अपराध किया तो अपने स्वार्थ के लिए ही न. इसलिए सजा मिलनी ही चाहिए.
‘‘यह सच है कि ज्योति मेरी ही बेटी है और दीपक आप का बेटा, मैं स्वीकार करती हूं. सजा भोगने को भी तैयार हूं,’’ उस ने अंतिम वाक्य सजल नेत्र ऊपर उठा सीधे उन की आंखों में झांकते हुए कहा.
डा. प्रशांत फिर भी चुप रहे.
वह आगे बोली, ‘‘आप अपना दीपक दावा कर के ले लीजिए.’’
‘‘क्यों, आज पति का भय नहीं रहा?’’
‘‘भय आज भी है, परंतु उस को सहने की ताकत मुझ में पैदा हो गई है,’’ जोर दे कर निर्भीकता से बोली विपुला.
ज्योति, जिस ने सबकुछ सुनसमझ लिया था, कमरे की ओट से उन के सामने आते हुए बोली, ‘‘पिताजी, मैं ने आप को बहुत दुख दिया है,’’ इतना कह उन के पैरों में गिर पड़ी. उस की आंखों से आंसू बह रहे थे.
डा. प्रशांत अचकचा गए. इस स्थिति की तो उन्होंने कल्पना भी न की थी. उन्होंने उसे उठाते हुए ताज्जुब से पूछा, ‘‘तू कब कालेज से आई? छि… बेटियां पांव नहीं पड़तीं. तू रो क्यों रही है? पगली, तेरे बिना तो मेरा जीवन ही व्यर्थ है,’’ उसे दुलारते, समझाते बोले, ‘‘तू तो मेरे शरीर का हिस्सा है, ज्योति, मैं दीपक ले कर क्या करूंगा, जब ज्योति ही न होगी. तू तो सचमुच मेरी ज्योति है.’’
यह कह कर उन्होंने उस के सिर पर स्नेह से चपत लगाई और कहा, ‘‘तू दुखी मत हो, हम यह शहर ही छोड़ देंगे. मैं जल्लाद नहीं हूं, जो तुझे ऐसी जगह झोंक दूं जहां बेटियों के जन्म का भय समाया हो. तू तो मेरा बेटा और बेटी दोनों ही है.’’
‘‘नहीं, पिताजी, मुझे पता है, आप मुझे मानसिक रूप से असुरक्षित नहीं देखना चाहते हैं. पर मैं इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती हूं. मैं ने आज तक बहुत लाड़प्यार और दुलार आप से पाया है. यद्यपि मैं आप को खोना नहीं चाहती, पर आप को बेटे से वंचित रखना…’’
‘‘चुप,’’ जोर से बीच में ही उन्होंने टोका, ‘‘बहुत बोलने लगी है.’’
विपुला आगे बढ़ कर ज्योति से आंखें मिलाने का साहस न कर सकी, गले लगाना तो दूर रहा. वह बोली, ‘‘डाक्टर साहब, मैं ने आप जैसे महान व्यक्ति के साथ धोखा किया, मुझे सजा मिलनी ही चाहिए. मैं दंड की ही अधिकारिणी हूं,’’ इतना कह वह फिर रोने लगी.
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डा. प्रशांत को विपुला पर क्रोध तो आ रहा था पर वे उसे सजा भी नहीं देना चाह रहे थे. कुछ चिढ़ कर बोले, ‘‘जानती हैं, आप को भय तब क्यों लग रहा था क्योंकि आप मोह में फंसी थीं और आज अपराधबोध से शायद आप की अपनी देह से ही ममता छूट गई है, इसलिए भयभीत नहीं हैं…’’
‘‘डा. साहब, सही कहा आप ने. आज मैं ने जान लिया है, जो मनुष्य भयवश झूठा आचरण करता है वह पशु से भी बदतर है.’’
डा. प्रशांत के चेहरे की कठोरता कुछ कम हुई. उन्होंने सोचा, सजा के बजाय क्षमा अधिक वीरतापूर्ण कार्य है. क्षमा जो वीर पुरुष का भूषण है. अपने कुटुंब और प्रियजन के लिए तो सभी त्याग करते हैं पर जो दूसरों के लिए करे वही प्रशंसनीय है. फिर अपकार का बदला अपकार नहीं बल्कि उपकार ही हो सकता है. जिस पौधे को उन्होंने सींच कर बड़ा किया ही नहीं, उस से मोह उत्पन्न होगा भी कैसे और न ही वह उन्हें अपना पाएगा.
विपुला दोनों हाथ जोड़ बड़ी निर्भयता से परिणाम जानने के लिए उन के आगे खड़ी थी. डा. प्रशांत बड़ी दृढ़ता से बोले, ‘‘आप ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया, मैं इसी से प्रसन्न हूं. अब आप जा सकती हैं. और हां, जो पहेली आप ने आज तक अपने तक सीमित रखी है, आगे भी रख सकती हैं. मेरी ज्योति मुझे प्राणों से प्यारी है. शायद आप मेरा अभिप्राय समझ गई होंगी.’’
विपुला आश्चर्य से कुछ पल उन की ओर ताकती रही, फिर उन के चरणों में झुक गई, ‘‘डा. साहब, आप सचमुच महान हैं.’’
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इंटर की परीक्षा पास कर नलिनी ने जिस कालेज में प्रवेश लिया, इत्तफाक से उस की हमशक्ल ज्योति नाम की एक लड़की ने भी उसी कक्षा में दाखिला लिया. शुरूशुरू में तो लोग समझते रहे कि दोनों सगी जुड़वां बहनें होंगी परंतु जब धीरेधीरे पता चला कि ये बहनें नहीं हैं तो सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ.
लोगों के आश्चर्य का तब ठिकाना न रहा जब ज्योति ने बताया कि वह इस वर्ष ही कानपुर से यहां आई है और नलिनी को जानती तक नहीं. इस चर्चा के कारण दोनों गहरी मित्र बन गईं. ज्योति तो बहुत मेधावी व चंचल थी परंतु नलिनी थोड़ी संकोची व अपने में सिकुड़ीसिमटी. ज्योति जीवन की भरपूर हिलोरे लेती नदिया सी लहराती बहती दिखती थी, वहीं नलिनी शांत, स्थिर जल के समान थी. यही अंतर दोनों में भेद रख सकता था वरना यदि दोनों को समान वेशभूषा व समान बालों की बनावट कर खड़ा कर दिया जाता तो उन के अभिभावक तक धोखा खा सकते थे.
धीरेधीरे यह बात उन के घरों तक भी पहुंची. नलिनी के घर में कोई तवज्जुह न दी गई. हंसीहंसी में बात उड़ गई. शायद विपुला की स्मरणशक्ति भी धूमिल पड़ चुकी थी. वकील साहब यानी नलिनी के पिता ने एक कान से सुनी, दूसरे से निकाल दी. वैसे भी वे बेटियों को महत्त्व ही कब देते थे.
किंतु ज्योति के पिता डा. प्रशांत ने जब यह सुना तो उन्हें थोड़ा ताज्जुब हुआ चूंकि उन की एकमात्र संतान ज्योति ही थी, वे उस की खुशियों का इतना अधिक खयाल रखते थे कि उस की छोटीछोटी बातों को भी पूरा कर के उन्हें संतोष मिलता था. पत्नी नवजात शिशु को जन्म देते ही इस दुनिया से चल बसी थी. वे इसी बच्ची को चिपकाए रहे. उन्होंने दूसरी शादी नहीं की. उन की सारी खुशियां ज्योति के इर्दगिर्द सिमट कर रह गई थीं.
ज्योति के कालेज में वार्षिकोत्सव था. डा. प्रशांत हमेशा की भांति वहां गए. ज्योति अपनी सहेली नलिनी को अपने पिता से मिलवाने ले गई. नलिनी ने दोनों हाथ जोड़ कर उन का अभिवादन किया. डा. प्रशांत तो यह समानता देख ठगे से रह गए. वे एकटक निहारते रहे. यह देख ज्योति उन की आंखों के आगे हाथ से पंखा करती हंसती हुई बोली, ‘‘पिताजी, कहां खो गए? है न बिलकुल मेरी तरह?’’
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वे मानो उस को देखते ही अपनी सुधबुध क्षणभर को खो बैठे थे. सामान्य होते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’
सकुचाते हुए वह बोली, ‘‘नलिनी.’’
‘‘तुम्हारे मातापिता भी आए हैं?’’
नलिनी दुखी स्वर में बोली, ‘‘नहीं.’’
‘‘क्यों?’’
‘‘पता नहीं, शायद दिलचस्पी नहीं ली है.’’
वे एक कटु मुसकान छोड़ उसे पुचकारते से स्वर में बोले, ‘‘अच्छा बेटा, जाओ.’’
ज्योति नलिनी का हाथ पकड़ उछलतेकूदते छात्राओं की पंक्ति में जा कर बैठ गई. डा. प्रशांत कार्यक्रम तो जरूर देख रहे थे पर उन का ध्यान कहीं दूसरी ओर था. बैठेबैठे उन्हें ध्यान आया कि नलिनी के घर का पता व फोन नंबर पूछना तो वे भूल ही गए. ज्यों ही समारोह समाप्त हुआ उन की बेटी ज्योति पास आई और बोली, ‘‘पिताजी, नलिनी को भी ले चलें. उस के घर पर छोड़ देंगे.’’
‘‘क्यों, क्या उस के घर से उसे लेने कोई नहीं आया?’’
‘‘ऐसी बात नहीं है, उस का भाई आया होगा. परंतु मैं उस का घर देखना चाहती हूं.’’
‘‘अच्छा, ठीक है.’’
नलिनी का भाई सचमुच मोटरसाइकिल लिए खड़ा था. परंतु ज्योति ने हठ कर के उसे अपने साथ कार में बैठा लिया. नलिनी भी कुछ न बोली. इसी बहाने डा. प्रशांत ने भी उस का घर देख लिया. वह उतरने लगी तो उन्होंने पूछा, ‘‘बेटा, तुम्हारे यहां फोन है?’’
‘‘घर पर नहीं है, पिताजी के दफ्तर में है.’’
‘‘जरा नंबर बताना,’’ डा. प्रशांत ने जेब से छोटी डायरी निकाली और नंबर नोट किया.
नमस्ते व धन्यवाद कह कर नलिनी घर में चली गई.
डा. प्रशांत रातभर ठीक से सो न सके. बड़ी उथलपुथल सी उन के हृदय में मची रही. 2 लड़कियों की शक्लसूरत व उम्र की इतनी समानता देख वे दुविधा में पड़ गए थे. अगले दिन उन्होंने नलिनी के पिता को फोन किया. उन्होंने फोन पर ही अपना पूरा परिचय दिया और पूछा, ‘‘क्या आप की बेटी नलिनी का जन्म 4 जनवरी, 1974 को कानपुर के भारत अस्पताल में हुआ था?’’
उधर वकील साहब का स्वर गूंजा, ‘‘बिलकुल सही फरमाया आप ने. तारीख और सन मुझे इसलिए भी याद है क्योंकि मेरे बेटे की जन्मतिथि भी वही है. समय मैं बता देता हूं, रात के करीब 12 बज कर 10 मिनट.’’
डा. प्रशांत फोन पर ही चकित हो उठे. इसी समय के आसपास तो उन की बेटी भी पैदा हुई थी. उन्होंने मन ही मन सोचा, ‘अभी तक किस्सेकहानियों में ही ऐसी बातें पढ़ने को मिलती थीं लेकिन क्या वास्तविक जीवन में भी ऐसा हो सकता है?’ उन का जिज्ञासु वैज्ञानिक मन यह मानने को बिलकुल तैयार नहीं था कि समान कदकाठी के चेहरेमोहरे की 2 लड़कियां 2 भिन्न परिवारों में पैदा हो सकती हैं.
डा. प्रशांत बड़े चुपचाप से रहने लगे, कहीं खोएखोए से. घंटों सोचा करते, पर कोई निष्कर्ष निकालने में सफल न हो पाते. ज्योति भी पिता की इस स्थिति से अनभिज्ञ न थी. परंतु उन के दुख व चिंता का कारण भी वह न समझ पा रही थी. एक दिन पिता के गले झूलते हुए बोली, ‘‘क्या मुझ से कोई गलती हो गई, पिताजी?’’
‘‘नहीं, बेटे.’’
‘‘फिर आप इतना गुमसुम क्यों रहते हैं? मुझे आप का इतना गंभीर होना बहुत खलता है, पिताजी.’’
डा. प्रशांत बेटी के गाल थपथपा कर हंस दिए और बोले, ‘‘बेटा, तुम अपनी सहेली को इतवार के दिन घर ले आना, हम सब बैडमिंटन खेलेंगे.’’
ज्योति खुशीखुशी चली गई. डा. प्रशांत का वैज्ञानिक दिमाग कुछ परीक्षण कर लेना चाहता था.
इतवार को गाड़ी ले ज्योति अपनी सहेली के घर उसे लाने गई तो डा. प्रशांत लौन में ही बेचैनी से टहलते रहे और सोचते रहे, अपने परीक्षण के विषय में. इंतजार में घडि़यां बीत रही थीं और ज्योति का कहीं अतापता न था. अंत में गाड़ी बंगले में दाखिल हुई.
परंतु यह क्या? नलिनी तो उस के साथ नहीं थी. यह तो कोई और ही लड़की थी. ज्योति को क्या मालूम कि उस के पिता के दिमाग में क्या गूंज रहा है या वह किस विशेष सहेली को लाने को बोले थे. वह पास आते हुए बड़ी शान से बोली, ‘‘चलिए, अब खेलते हैं. गीता बेजोड़ है बैडमिंटन में.’’
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डा. प्रशांत इस पर क्या बोलते, उन का तो तीर खाली चला गया था. वे धीरे से बोले, ‘‘और वह तुम्हारी सहेली क्या नाम बताया था, हां, नलिनी, उसे क्यों नहीं लाईं?’’
ज्योति हंस दी, ‘‘पिताजी, उसे खेलने में विशेष दिलचस्पी नहीं है.’’
डा. प्रशांत ने मन ही मन अपने को कोसा. चूंकि वे बेटी से वादा कर चुके थे. इसलिए बड़े मरे मन से बैडमिंटन खेलने लगे. बच्चों के साथ खेलतेखेलते थोड़ी देर को वास्तव में भूल गए अपने परीक्षण व परिणाम को और उन के साथ नोकझोंक करते खेलने लगे.
एक दिन इत्तफाक से नलिनी स्वयं अपने भाई के साथ डा. प्रशांत के क्लीनिक पहुंच गई. उस के गाल में सूजन आ गई थी. अंदर की दाढ़ में काफी दर्द था. डा. प्रशांत को तो मानो बिना लागलपेट के परीक्षण करने का सुराग हाथ लग गया था. कहां तो उन्होंने सोचा था कि ज्योति जब नलिनी को ले कर घर आएगी तो खेल तो एक बहाना होगा, वास्तव में तो उस का दंत परीक्षण मजाकमजाक में कर अपनी शंका दूर करेंगे.
उन्होंने नलिनी का मुख खोल कर परीक्षण किया. उस का इलाज तो किया ही साथ ही, यह भी नोट किया कि नलिनी के पीछे संपूर्ण दांत न हो कर केवल 2 ही दांत हैं. सुबह उन्होंने ज्योति को बुलाया और उस का दंत परीक्षण किया. वे दंग रह गए. उस के भी पीछे केवल 2 ही दांत थे. उन्हें विश्वास हो गया कि ज्योति व नलिनी दोनों जुड़वां ही हैं. जरूर किसी ने बीच में शरारत की है. कहीं ऐसा तो नहीं कि उन की एक बेटी किसी ने चुराई हो? उन का मन व्याकुल हो उठा. डा. प्रशांत तो पत्नी के प्रसव से 8 माह पूर्व ही विदेश चले गए थे. उन्हें तो जब पत्नी के निधन का समाचार मिला था तब भागे चले आए थे.
आगे पढ़ें- रिकौर्ड में तो एक ही बच्चा हुआ लिखा था. थोड़ी देर बाद…
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उन की जिज्ञासा उन्हें कानपुर खींच ले गई. उन्होंने अस्पताल से सारी रिपोर्टें निकलवाईं, परंतु व्यर्थ. रिकौर्ड में तो एक ही बच्चा हुआ लिखा था. थोड़ी देर बाद उन्होंने सोचा, क्यों न नलिनी का रिकौर्ड देख लिया जाए. पहले तो अस्पताल के कर्मियों ने इनकार कर दिया परंतु डा. प्रशांत को वहां के डा. मल्होत्रा बहुत अच्छी तरह जानते थे. उन्होंने कहसुन कर नलिनी का रिकौर्ड निकलवा दिया.
विपुला के 2 जुड़वां बच्चे होने का रिकौर्ड था. साथ में यह भी लिखा था कि एक ही नाल से दोनों बच्चे जुड़े थे. उन्होंने देखा, वजन के स्थान पर एक बच्चे का वजन स्वस्थ बच्चे के वजन के बराबर काट कर लिखा गया था. यह बात वह समझ न सके कि आखिर एक ही नाल से जुड़े बच्चों के वजन में इतनी असमानता कैसे? जबकि जुड़वां बच्चों का वजन जन्म के समय एक स्वस्थ बच्चे जितना नहीं होता. ऊपर से लड़के का वजन काट कर लिखा हुआ था. यही नहीं, मात्रा भी कटी थी, मानो भूल से लड़की लिख दिया गया हो.
उन्होंने फिर अपनी फाइल देखी. कहीं कुछ कटापिटा नहीं था. इतना उन के दिमाग में दौड़ा भी नहीं कि बेटा को बेटी करने में या लड़का को लड़की करने में कहीं काटनेपीटने की जरूरत ही नहीं पड़ती. वे चुपचाप घर लौट आए.
पहेली हल नहीं हुई थी. यदि ज्योति नलिनी की बहन थी तो उन का बच्चा कौन था? वह कहां गया? उन की उत्सुकता इतनी तीव्र थी कि वे रातदिन सोचते ही रहते. नलिनी ज्योति से मिलने अकसर आ जाती. उसे बड़ा आनंद आता जब डा. प्रशांत उन दोनों के साथ गपशप में व्यस्त हो जाते.
एक दिन डा. प्रशांत ने नलिनी व ज्योति के खून का परीक्षण किया. दोनों के कार्डियोग्राफ, उंगलियों के चिह्न, विभिन्न अंगों के एक्सरे, कानों के परदे, आंखों के अंदर की नसों आदि की फोटो ले डालीं.
ज्योति ने हंसते हुए कहा, ‘‘नलिनी, पिताजी शायद यह देखना चाह रहे हैं कि हम किसी गंभीर रोग से पीडि़त या पीडि़त होने वाली तो नहीं हैं. उन्हें यह सब करने में बड़ा मजा आता है.’’
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डा. प्रशांत ने जितने भी परीक्षण किए, उन से यही साबित हुआ कि दोनों लड़कियां जुड़वां बहनें ही हैं. वे दुविधा में डूबे सोच रहे थे कि अंतिम व मान्यताप्राप्त परीक्षण रह गया है. यदि वह परीक्षण होहल्ला कर के करेंगे तो हो सकता है उन्हें अपनी ज्योति से हाथ न धोना पड़ जाए. और यदि लड़कियों को मूर्ख बना कर करना चाहेंगे तो वे तैयार न होंगी किसी सूरत में.
परीक्षण भी तो अजीबोगरीब था. यदि लड़कियों को राजी करने का प्रयत्न करते तो वे उन्हें पागल ही समझतीं. किसी घायल व्यक्ति का अगर मांस कहीं से उखड़ जाए तो उसी की जांघ का मांस उस स्थान पर लगाया जाता है. परंतु किसी दूसरे व्यक्ति का मांस कटे स्थान पर लगाने से वह सूख जाता है. यहां तक कि उस घायल व्यक्ति के मांबाप, भाईबहन का मांस भी काम नहीं दे सकता. सिर्फ जुड़वां भाई या बहन का मांस काम दे सकता है. अब इस परीक्षण के लिए भला जवान लड़कियां कहां से तैयार होतीं.
डा. प्रशांत ने सोचा, ‘सारे परीक्षण अभी तक पक्ष में गए हैं. फिर इस एक परीक्षण को ले कर शंका को शंका बने रहने देना कोई अक्लमंदी नहीं है. वे जान गए थे कि दोनों लड़कियां एक ही मां की हैं परंतु एक प्रश्न खड़ा था, फिर उन का बच्चा कहां गया? क्या किसी ने बच्चे बदल लिए? पर क्यों? यह प्रश्न वे सुलझा नहीं पा रहे थे क्योंकि ज्योति देखने में सुंदर, स्वस्थ बच्चे के रूप में थी और अपने यौवन के चढ़ते और भी निखर आई थी. लंगड़ी, लूली, गूंगी, काली कोई भी दोष तो न था, फिर किसी ने क्यों बदला?’
वे इस गंभीर प्रश्न में उलझे हुए थे कि उन के एक मित्र ने टोका, ‘‘क्या बात है, प्रशांत, कुछ परेशान से दिखते हो?’’
‘‘कोई स्त्री अपना बच्चा किसी
दूसरे से किनकिन कारणों से बदल सकती है?’’
उन के मित्र ने मुसकरा कर जवाब दिया, ‘‘अपने भारतीय समाज में सब से प्रमुख व पहला कारण तो ‘लड़का’ है, जिसे पाने के लिए…’’
वे पूरा वाक्य न कह पाए थे कि डाक्टर प्रशांत बोले, ‘‘धन्यवाद. तुम ने मेरी गुत्थी सुलझा दी.’’
डा. प्रशांत के दिमाग में बिजली सी कौंध गई. रिकौर्ड पर लिखी हस्तलिपि उन्हें याद हो आई, जिस में ‘लड़की’ शब्द के ऊपर की मात्रा कटी थी और वजन भी काट कर सामान्य बच्चे का लिखा गया था. उन्हें विश्वास हो गया कि जरूर दाल में काला है. परंतु फिर एक दुविधा थी. नलिनी के पिता एक प्रतिष्ठित वकील थे, जिन के पास न धन की कमी थी और न ही विद्वत्ता की.
डा. प्रशांत एक दिन बिना बुलाए मेहमान की तरह नलिनी के घर पहुंच गए. वकील साहब सपरिवार घर पर ही थे. नलिनी ने उन के साथ ज्योति को न देख कर पूछा, ‘‘चाचाजी, ज्योति नहीं आई?’’
वे हंस कर बोले, ‘‘नहीं बेटे, मैं घर से थोड़े ही आ रहा हूं. मैं तो सीधे क्लीनिक बंद कर तुम्हारे घर आ धमका हूं, तुम्हारे हाथ की चाय पीने,’’ उन के इतना खुल कर बोलने से सब हंस पड़े.
वकील साहब बोले, ‘‘चाय ही क्यों, कुछ और पीना चाहेंगे तो वह भी मिलेगा.’’
उन्होंने बड़ी शिष्टता से इशारा समझते हुए कहा, ‘‘क्षमा करें, मैं इस के सिवा कुछ और नहीं पीता.’’
विपुला भी शिष्टाचारवश आ कर बैठ गई थी.
वकील साहब के बच्चों ने बारीबारी आ कर नमस्ते की तो वे पूछ बैठे, ‘‘इन में से जुड़वां कौन हैं?’’
इस अकस्मात किए गए प्रश्न पर विपुला चौंक सी गई. नलिनी भी ताज्जुब में पड़ गई क्योंकि उस ने कभी ज्योति से अपने जुड़वां भाई होने की बात कही ही नहीं थी.
‘‘नलिनी और यह मेरा बेटा दीपक. ये दोनों जुड़वां हैं,’’ वकील साहब मुसकराते हुए बोले.
डा. प्रशांत ताज्जुब से देख तो रहे थे, पर विचलित तनिक न हुए. बेटे की ओर वे टकटकी लगाए देखते रहे. बिलकुल चेहरामोहरा, नाकनक्श उन के जैसा ही था. एक विचित्र सी तरंग उन के हृदय में दौड़ गई.
परंतु सामान्य स्वर में बोले, ‘‘वकील साहब, लोग जाने कैसे हैं, बच्चों की अदलाबदली करने में शर्म नहीं महसूस करते. एक लड़के के लिए लोग दूसरे का बच्चा चुरा लेते हैं.’’
वकील साहब, जो वास्तव में कुछ भी न समझने की स्थिति में थे, मेहमान की ‘हां’ में ‘हां’ मिलाते बोले, ‘‘हो सकता है साहब, इस दुनिया में कुछ भी संभव है.’’
‘‘संभव नहीं, वकील साहब, ऐसा हुआ है. एक केस हमारे पास ऐसा है, जिस में मैं चाहूं तो एक दंपती को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा सकता हूं, पूरे प्रमाण के साथ,’’ डा. प्रशांत कुछ ज्यादा जोश में कह गए.
विपुला को तो बिजली का करंट सा लगा. वह सुन्न सी पड़ गई. वकील साहब को तो जोश से कोर्ट में जिरह सुनने और कहने की आदत सी थी. वे प्रभावहीन बने देखते रहे.
डा. प्रशांत शायद अपने को तब तक काबू में कर चुके थे. वे मुलायम पड़ते रूखी हंसी हंसते हुए बोले, ‘‘पर मैं ऐसा करूंगा नहीं,’’ यह कहते उन्होंने तिर्यक दृष्टि विपुला पर डाली, जो सूखे पत्ते की तरह कांप रही थी.
उन के जाने के बाद वकील साहब विपुला से इतना भर बोले, ‘‘डा. प्रशांत ऐसे कह रहे थे मानो उन का कटाक्ष हम पर ही हो.’’
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विपुला पति के मुंह से यह सुन और भी डर गई. उस का अनुमान अब और पक्का हो गया कि डाक्टर इशारे में उन्हीं को कह रहे थे. शिथिल, निढाल सी विपुला कुछ भी न बोल पाने की स्थिति में जहां बैठी थी वहीं बैठी रही. उस की आंखों के आगे अपना अतीत साकार हो उठा.
नामी वकील जगदंबा प्रसाद की पत्नी बनने से पूर्व विपुला कितनी चंचल थी, किंतु उस की हंसी, वह अल्हड़ता शादी के सातफेरों के बीच ही शायद स्वाहा हो गई थी. ससुराल के एक ही चक्कर के बाद किसी ने मायके में उसे हंसतेखिलखिलाते, बातबात पर उलझते नहीं देखा. जगदंबा प्रसाद के रोबदार व्यक्तित्व के आगे वह इतनी अदनी होती चली गई कि धीरेधीरे उस का अपना अस्तित्व ही विलीन हो गया. जगदंबा प्रसाद के बेबुनियादी क्रोध पर कई बार उस के मन में आया कि छोड़छाड़ कर मायके चली जाए. पर हर बार मां उसे तमाम ऊंचनीच समझा और अपनी असमर्थता जता वापस भेज देती थीं.
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