नरेश को दहेज में घरगृहस्थी के आवश्यक सामान के अतिरिक्त 4 सालियां भी मिली थीं. ससुर के पास न केवल जायदाद थी बल्कि एक सफल व्यवसाय भी था. इस कारण जब एक के बाद एक 5 पुत्रियों ने जन्म लिया तो उन के माथे पर एक भी शिकन न पड़ी. उन्होंने आरंभ से ही हर पुत्री के नाम काफी रुपया जमा कर दिया था जो प्रतिवर्ष ब्याज कमा कर पुत्रियों की आयु के साथसाथ बढ़ता जाता था.
नरेश एक सरकारी संस्थान में सहायक निदेशक था. समय के साथ तरक्की कर के उस का उपनिदेशक और फिर निदेशक होना निश्चित था. हो सकता है कि वह बीच में ही नौकरी छोड़ कर कोई दूसरी नौकरी पकड़ ले. इस तरह वह और जल्दी तरक्की पा लेगा. युवा, कुशल व होनहार तो वह था ही. इन्हीं सब बातों को देखते हुए उसे बड़ी पुत्री उर्मिला के लिए पसंद किया गया था.
उर्मिला को अपने पति पर गर्व था. वह एक बार उस के दफ्तर गई थी और बड़ी प्रभावित हुई थी. अलग सुसज्जित कमरा था. शानदार मेजकुरसी थी. मेज पर फाइलों का ढेर लगा था. पास ही टेलीफोन था, जो घड़ीघड़ी बज उठता था. घंटी बजाने से चपरासी उपस्थित हुआ और केवल नरेश के सिर हिलाने से ही तुरंत जा कर एक ट्रे में 2 प्याले कौफी और बिस्कुट ले आया था. यह बात अलग थी कि वह जो वेतन कटकटा कर घर लाता था उस से बड़ी कठिनाई से पूरा महीना खिंच पाता था. शादी से पहले तो उसे यह चिंता लगी रहती थी कि रुपया कैसे खर्च करे, परंतु शादी के बाद मामला उलटा हो गया. अब हर घड़ी वह यही सोचता रहता था कि अतिरिक्त रुपया कहां से लाए.
उर्मिला का हाथ खुला था, जवानी का जोश था और नईनई शादी का नशा था. अकसर नरेश को हाथ रोकता देख कर बिना सोचेसमझे झिड़क देती थी. खर्चा करने की जो आदत पिता के यहां थी, वही अब भी बदस्तूर कायम थी.
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महीने का आरंभ था. घर का खानेपीने का सामान आ चुका था और मन में एक हलकापन था. शाम को फिल्म देखने का कार्यक्रम बना लिया था. फिल्म का नाम ही इतना मजेदार था कि सोचसोच कर गुदगुदी सी होने लगती थी. फिल्म थी ‘दिल धड़के, शोला भड़के.’
दिन के 11 बजे थे. नरेश अपने दफ्तर के कार्य में व्यस्त थे. निदेशक बाहर दौरे पर जाने वाले थे. उन के लिए आवश्यक मसौदे व कागजों की फाइल तैयार कर के 4 बजे तक उन के सुपुर्द करनी थी. इसी समय टेलीफोन बज उठा. निदेशक का निजी सचिव सुबह से 4 बार फोन कर चुका था. फिर उसी का होगा. होंठ चबाते हुए उस ने फोन उठाया.
‘‘नरेश.’’
फोन पर उर्मिला के खिलखिलाने की आवाज सुनाई दी.
‘‘बोलो, मैं कौन हूं?’’
‘‘तुम्हारा भूत लगता है. सुनो, अभी मैं बहुत व्यस्त हूं. तुम 1 बजे के बाद फोन करना.’’
‘‘सुनो, सिनेमा के टिकट खरीद लिए?’’
‘‘नहीं, अभी समय नहीं मिला. चपरासी बिना बोले बैंक चला गया है. आने पर भेजूंगा.’’
‘‘इसीलिए फोन किया था. 4 टिकट और ले लेना.’’
‘‘क्यों?’’ नरेश ने चौंक कर कहा.
दूसरी तरफ से कई लोगों के खिल- खिलाने की आवाजें आईं, ‘‘जीजाजी… जीजाजी.’’
नरेश ने माथा पीट लिया. उर्मिला फोन करने पास की एक दुकान पर जाती थी. वह प्रति फोन 1 रुपया लेता था. सड़क पर आवाजें काफी आती थीं, इसलिए जोरजोर से बोलना पड़ता था. नरेश ने कह रखा था कि जब तक एकदम आवश्यक न हो यहां से फोन न करे. सब लोग दूरदूर तक सुनते हैं और मुसकराते हैं. उसे यह बिलकुल अच्छा नहीं लगता था और उस समय तो वहां पूरी बरात ही खड़ी थी. वह सोचने लगा, दुनिया भर को मालूम हो जाएगा कि वह पलटन के साथ फिल्म देखने जा रहा है. और तो और, ये सालियां क्या हैं एक से एक बढ़ कर पटाखा हैं, इन्हें फुलझडि़यां कहना तो इन का अपमान होगा.
‘‘ठीक है,’’ कह कर उस ने फोन पटक दिया. आगे बात करने का अवसर ही नहीं दिया. रूमाल निकाल कर माथे का पसीना पोंछने लगा. उसे याद था कि कैसे बड़ी कठिनाई से उस ने उर्मिला को टरकाया था, जब वह सब सालियों समेत दफ्तर आने की धमकी दे रही थी.
2 जने जाते तो 14 रुपए के टिकट आते. अब पूरे 42 रुपए के टिकट आएंगे. सालियां आइसक्रीम और पापकार्न खाए बिना नहीं मानेंगी. वैसे तो वह स्कूटर पर ही जाता, पर अब पूरी टैक्सी करनी पड़ेगी. उस का भी ड्योढ़ा किराया लगेगा. उस ने मन ही मन ससुर को गाली दी. घर में अच्छीखासी मोटर है. यह नहीं कि अपनी रेजगारी को आ कर ले जाएं. उसे स्वयं ही टैक्सी कर के घर छोड़ने भी जाना होगा. अभी तो महीना खत्म होने में पूरे 3 सप्ताह बाकी थे.
सालियां तो सालियां ठहरीं, पूरी फिल्म में एकदूसरी को कुहनी मारते हुए खिलखिला कर हंसती रहीं. आसपास वालों ने कई बार टोका. नरेश शर्म के मारे और कभी क्रोध से मुंह सी कर बैठा रहा. उस का एक क्षण भी जी न लगा. जैसेतैसे फिल्म समाप्त हुई तो वह बाहर आ कर टैक्सी ढूंढ़ने लगा.
‘‘सुनो,’’ उर्मिला ने कहा.
‘‘अब क्या हुआ?’’
‘‘देर हो गई है. इन्हें खाना खिला कर भेजूंगी. घर में तो 2 ही जनों का खाना है. होटल से कुछ खरीद कर घर ले चलें.’’
बड़ी साली ने इठला कर कहा, ‘‘जीजाजी, आप ने कभी होटल में खाना नहीं खिलाया. आज तो हम लोग होटल में ही खाएंगे. दीदी घर में कहां खाना बनाती फिरेंगी?’’
बाकी की सालियों ने राग पकड़ लिया, ‘‘होटल में खाएंगे. जीजाजी, आज होटल में खाना खिलाएंगे.’’
नरेश सुन्न सा खड़ा रहा.
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उर्मिला ने मुसकरा कर कहा, ‘‘हांहां, क्यों नहीं, शोर क्यों मचाती हो?’’ और फिर नरेश की ओर मुंह कर के बोली, ‘‘सुनो, आज इन का मन रख लो.’’
नरेश ने जेब की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘रुपए हैं पास में? मेरे पास तो कुछ नहीं है.’’
उर्मिला ने पर्स थपथपाते हुए कहा, ‘‘काम चल जाएगा. यहीं ‘चाचे दा होटल’ में चले चलेंगे.’’
जब तक खाना खाते रहे पूरी फिल्म के संवाद दोहरादोहरा कर सब हंसी के मारे लोटपोट होते रहे. और जो लोग वहां खाना खा रहे थे वे खाना छोड़ कर इन्हें ही विचित्र नजरों से देख रहे थे. नरेश अंदर ही अंदर झुंझला रहा था.
टैक्सी में बिठा कर जब वह उन्हें घर छोड़ कर वापस आया तो उस ने उर्मिला से पूरा युद्ध करने की ठान ली थी. परंतु उस के खिलखिलाते संतुष्ट चेहरे को देख कर उस ने फिलहाल युद्ध को स्थगित रखने का ही निश्चय किया.
अगले सप्ताह रूमा की वर्षगांठ थी. जाहिर था उस के लिए अच्छा सा तोहफा खरीदना होगा. सस्ते तोहफे से काम नहीं चलेगा. उस का अपमान हो जाएगा. बहन के आगे उस का सिर झुक जाए, यह वह कभी सहन नहीं करेगी.
‘‘मैं सोच रही थी कि उसे सलवार- कुरते का सूट खरीद दूं. उस दिन देखा था न काशीनाथ के यहां,’’ उर्मिला बोली.
‘‘क्या?’’ नरेश ने चौंक कर कहा, ‘‘मैं ने तो सोचा था कि तुम अपने लिए देख रही थीं. वह तो 150 रुपए का था.’’
‘‘तो क्या हुआ?’’ उर्मिला ने नरेश के गले में हाथ डालते हुए कहा, ‘‘मेरा पति कोई छोटामोटा आदमी थोड़े ही है. अरे, सहायक निदेशक है. पूरे दफ्तर में रोब मारता है.’’
‘‘छोड़ो भी. जरा खर्चा तो देखो. सब काम अपनी हैसियत के अनुसार करना चाहिए.’’
‘‘तो क्या मेरे मियां की इतनी भी हैसियत नहीं है?’’ उर्मिला ने रूठ कर कहा, ‘‘मैं पिताजी से उधार ले लूंगी.’’
नरेश को यह बात अच्छी नहीं लगती. पहले भी इस बात पर लड़ाई हो चुकी थी.
‘‘उधार लेने से तो यह फर्नीचर बेचना ठीक होगा,’’ उस ने गुस्से में आ कर कहा.
‘‘हां, क्यों नहीं,’’ उर्मिला ने नाराज हो कर कहा, ‘‘मेरे पिता का दिया फर्नीचर फालतू है न.’’
‘‘तो मैं ही फालतू हूं. मुझे बेच दो.’’
‘‘जाओ, मैं नहीं बोलती. बहन को एक अच्छी सी भेंट भी नहीं दे सकती.’’
‘‘भेंट देने को कौन मना करता है, पर इतनी महंगी देने की क्या आवश्यकता है? वर्षगांठ तो हर साल ही आएगी. और फिर एक थोड़े ही है, 4-4 हैं. अभी तो औरों की वर्षगांठ भी आने वाली होगी,’’ नरेश ने कहा.
‘‘क्यों, 5वीं को भूल गए?’’ उर्मिला ने व्यंग्य कसा. तभी नरेश को याद आया, 25 तारीख को तो उर्मिला की भी वर्षगांठ है.
‘‘जब मेरी वर्षगांठ मनाओगे तो मेरे लिए भी तो भेंट आएगी. पिताजी बंगलौर गए थे. जरूर मेरे लिए बढि़या साड़ी लाए होंगे. और सुनो,’’ उर्मिला ने आंख नचाते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी वर्षगांठ पर मैं सूट का कपड़ा दिलवा दूंगी.’’
‘‘मुझे नहीं चाहिए सूटवूट. तुम अपने तक ही रखो,’’ नरेश ने झुंझला कर कहा, ‘‘एक तुम ही इतनी भारी भेंट पड़ रही हो.’’
‘‘ऐसी बात कह कर मेरा दिल मत दुखाओ,’’ उर्मिला ने नरेश का हाथ अपने दिल पर रखते हुए कहा, ‘‘देखो, कितना छोटा सा है और कैसा धड़क रहा है.’’
और नरेश फिर भूल गया.
दूसरे दिन जब उर्मिला सलवारकुरते का सूट ले आई तो नरेश ने आह भर कर कहा, ‘‘तुम्हारे पिताजी भी बड़े योजना- बद्ध हैं.’’
‘‘कैसे?’’ उर्मिला ने शंका से पूछा. उसे लगा कि नरेश कुछ कड़वी बात कहने जा रहा है.
‘‘तुम सारी बहनों की वर्षगांठें एकएक दोदो सप्ताह के अंतर पर हैं. उन्होंने जरा सा यह भी नहीं सोचा कि दामाद को कुछ तो सांस लेने का अवसर दें.’’
‘‘चलो हटो, ऐसा कहते शर्म नहीं आती?’’
‘‘नहीं. बिलकुल नहीं आती.’’
अब आ गई 25 तारीख, उर्मिला की वर्षगांठ. कई दिनों से तैयारी चल रही थी. शादी के बाद पहली वर्षगांठ थी. माता- पिता ने कहा था कि उन के यहां मनाना. परंतु उर्मिला ने न माना. उसे सब को अपने यहां बुलाने का बड़ा चाव था. अपना ऐश्वर्य व ठाटबाट जो दिखाना था. नरेश 400-500 के खर्च के नीचे आ गया. साड़ी मिलेगी उर्मिला को. हो सकता है बहनें भी कुछ थोड़ाबहुत भेंट के नाम पर दे दें. परंतु उस का खर्चा कैसे पूरा होगा? बैंक में रुपया शून्य तक पहुंच रहा था. वह बारबार उर्मिला को समझा रहा था. परंतु उसे वर्षगांठ मनाने का इतना शौक न था जितना दिखावा करने का. उत्साह न दिखाना नरेश के लिए शायद एक भद्दी बात होती. काफी नाजुक मामला था. नरेश ने सोचा कि पहला साल है. इस बार तो किसी तरह संभालना होगा, बाद में देखा जाएगा.
दावत तो रात की थी, पर बहनें सुबह से ही आ धमकीं. दीदी का हाथ जो बंटाना था. अकेली क्याक्या करेगी? दिन भर होहल्ला मचाती रहीं. फ्रिज में रखा सारा सामान चाट गईं. एक की जगह 2 केक बनाने पड़े. दिन में खाने के लिए गोश्त और मंगाना पड़ा. मिठाई भी और आई. एक दावत की जगह 2 दावतें हो गईं.
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संध्या होते ही मातापिता भी आ गए. ‘मुबारक हो, मुबारक हो’ के नारे लग गए. सब के मुंह ऐसे खिले हुए थे जैसे आतशी अनार. उधर नरेश सोच रहा था कि वह अपने घर में है या ससुराल में. काश, यह जश्न एक निजी जश्न होता, केवल वह और उर्मिला ही उस में भाग लेते. अंतरंग क्षणों में यह दिन बीतता और शायद सदा के लिए एक सुखद यादगार होता. तब अगर 1,000 रुपए भी खर्च हो जाते तो वह परवा न करता. सब लोग उसे भूल कर एकदूसरे में इतने मगन थे कि किसी ने यह भी न सोचा कि वहां दामाद भी है या नहीं.
रात के 12 बजतेबजते न जाने कब यह तय हो गया कि 30 तारीख शनिवार को, जिस दिन नरेश की छुट्टी रहती है, सब लोग बहुत दूर एक लंबी पिकनिक पर चलेंगे और इतवार को ही लौटेंगे. रहने और खाने का प्रबंध ससुर की ओर से रहेगा. तब ही यह रहस्य भी खुला कि उर्मिला को 2 महीने का गर्भ है.
‘मुबारक हो, मुबारक हो,’ का शोर गूंज उठा.
‘‘दावत लिए बिना नहीं छोड़ेंगे, जीजाजी,’’ एक साली ने कहा और फिर तो बाकी सालियां भी चिपट गईं.
नरेश का तो भुरता ही बन गया. एकएक साली को चींटियों की तरह झाड़ रहा था और फिर से वे चिपट जाती थीं. उर्मिला मुसकरा रही थी और मां व्यर्थ ही उसे बताने का प्रयत्न कर रही थीं कि उसे क्याक्या सावधानी बरतनी चाहिए.
‘‘मां, मैं कल आ कर समझ लूंगी. अभी तो कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा है,’’ उर्मिला ने शरमा कर कहा.
‘‘बेटी, कोई लापरवाही नहीं होनी चाहिए. मेरे विचार में तो तुझे अब हमारे पास ही आ कर रहना चाहिए. वहां तेरी देखभाल अच्छी तरह हो जाएगी.’’
‘‘अरे मां, अभी तो बहुत जल्दी है, मैं आ गई तो फिर इन के खाने का क्या होगा?’’
‘‘ओ हो, कितनी पगली है. अरे नरेश भी आ कर हमारे साथ रहेगा.’’
सालियों ने ताली बजा कर इस सुझाव का स्वागत किया, ‘‘जीजाजी हमारे साथ रहेंगे तो कितना मजा आएगा. जीजाजी, सच, अभी चलिए. हम सब सामान बांध देते हैं. बताइए, क्या ले चलना है?’’
नरेश ने दृढ़ता से कहा, ‘‘यह तो संभव नहीं है. अभी बहुत समय है. वैसे देखभाल तो मां को ही करनी है. बीचबीच में आ कर देखती रहेंगी.’’
‘‘जीजाजी, आप बहुत खराब हैं. पर दावत से नहीं बच सकते. क्यों दीदी?’’
‘‘हांहां,’’ उर्मिला ने कहा, ‘‘यह भी कोई बात हुई? क्या खाओगी, बोलो?’’
न सिर्फ फरमाइशों का ढेर लग गया बल्कि यह भी निर्णय ले लिया गया कि सारी सालियां शुक्रवार को ही आ जाएंगी. दिन में घर रहेंगी. दोनों समय का पौष्टिक भोजन करेंगी. रात में रहेंगी और फिर यहीं से शनिवार को पिकनिक के लिए प्रस्थान करेंगी. पिताजी कार ले कर आ जाएंगे.
नरेश की आंखों के आगे अंधेरा छा गया. उस के पास तो एक फूटी कौड़ी भी नहीं बची थी. सारे दिन इन छोकरियों के नखरे कौन उठाएगा?
सब लोग इतना पीछे पड़े कि नरेश को शुक्रवार की छुट्टी लेने के लिए राजी होना पड़ा. फिर एक बार हर्षध्वनि के साथ तालियां बज उठीं. उस ध्वनि में नरेश को ऐसा लगा कि वह एक ऐसा गुब्बारा है जिस में किसी ने सूई चुभो दी है और हवा धीरेधीरे निकल रही है.
रात में भिगोए हुए काले चनों का जब सुबह नरेश नाश्ता कर रहा था तो उर्मिला ने याद दिलाया कि आज शुक्रवार है और छोकरियां आती ही होंगी. अंडे, आइसक्रीम, मुर्गा, बेकन, केक, काजू की बर्फी इत्यादि का प्रबंध करना होगा, तो नरेश ने अपनी पासबुक खोल कर उर्मिला के आगे कर दी.
‘‘क्या मेरी नाक कटवाओगे?’’
‘‘तो फिर पहले सोचना था न?’’
‘‘क्या हम इतने गएगुजरे हो गए कि उन्हें खाना भी नहीं खिला सकते?’’
‘‘खाना खिलाने को कौन मना करता है. पर जश्न मनाने के लिए पास में पैसा भी तो होना चाहिए.’’
‘‘अब इस बार तो कुछ करना ही होगा.’’
‘‘तुम ही बताओ, क्या करूं? उधार लेने की मेरी आदत नहीं. ऐसे कब तक जिंदगी चलेगी?’’
‘‘देखो, कल पिकनिक पर जाना है. कुछ न कुछ तो खर्च होगा ही. अब ऐसे झाड़ कर खड़े हो गए तो मेरी तो बड़ी बदनामी होगी,’’ उर्मिला ने नरेश को अपनी बांहों में लेते हुए कहा, ‘‘मेरी खातिर. सच तुम कितने अच्छे हो.’’
‘‘सुनो, अपना हार दे दो. बेच कर कुछ रुपए लाता हूं.’’
‘‘क्या कह रहे हो? क्या मैं अपना हार बेच दूं?’’
‘‘तो फिर रुपए कहां से लाऊं?’’
‘‘क्या अपने दोस्तों से उधार नहीं ले सकते?’’
‘‘वे सब तो मेरे ऊपर हंसते हैं. और वैसे वे लोग तो दफ्तर में होंगे. मैं कहां जाता फिरूंगा?’’
तभी घंटी बज उठी. दरवाजा खुलने में देर हुई इसलिए बजती रही, बजती रही. सालियां जो ठहरीं.
‘‘लो, आ गईं.’’
फिर वही खिलखिलाहट.
‘‘जीजाजी, आज तो फिल्म देखने चलेंगे. ऐसे नहीं मानेंगे.’’
‘‘क्यों नहीं, फिल्म जरूर देखेंगे.’’
‘‘ठीक है, तो आप फिल्म का टिकट ले कर आइए और हम लोग दीदी को ले कर बाजार जा रहे हैं.’’
चायपानी के बाद जब नरेश जाने लगा तो अकेले में उर्मिला ने कहा, ‘‘सुनो, रुपए जरूर ले आना. मेरे पास मुश्किल से 40 रुपए होंगे, और वे भी मां के दिए हुए. वापस जल्दी आ जाना.’’
‘‘हां, जल्दी आऊंगा,’’ नरेश ने कहा, ‘‘मेरे पास रुपए कहां हैं? टिकट के पैसे भी तो जेब में नहीं हैं, और फिर पिकनिक का खर्चा अलग.’’
‘‘कहा न, इतने बड़े अफसर होते हुए भी ऐसी बात करते हो,’’ उर्मिला ने कहा.
‘‘ठीक है, जाता हूं, पर संन्यास ले कर लौटूंगा.’’
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नरेश चला तो गया, पर सोचने लगा कि इस ‘चंद्रकांता संतति’ पर कहीं न कहीं पूर्णविराम लगाना ही होगा.
कुछ देर भटक कर वह वापस आ गया. देखा तो चौकड़ी पहले से ही घर में बैठी हुई थी और सब का मुंह लटका हुआ था. उन को देखते ही नरेश ने भी अपना मुंह और लटका लिया.
‘‘क्या हुआ, जीजाजी? आप को क्या हुआ?’’
‘‘बहुत बुरा हुआ. कुछ कहने योग्य बात नहीं है. पर तुम लोगों का मुंह क्यों लटका हुआ है? तुम लोग तो खानेपीने का सामान लेने गई थीं न?’’
‘‘हां, गए तो थे, पर दीदी के पर्स में रुपए ही नहीं थे. सारा सामान खरीदा हुआ दुकान पर ही छोड़ कर आना पड़ा. आप कैसे हैं, जीजाजी? पत्नी को घरखर्च का रुपया भी नहीं देते?’’
‘‘लो, यह तो ‘उलटा चोर कोतवाल को डांटे’ वाली बात हो गई. अरे, मैं तो सारा वेतन तुम्हारी दीदी के हाथ में रख देता हूं. मेरे पास तो सिनेमा के टिकट खरीदने के भी पैसे नहीं थे. जल्दीजल्दी में मांगना भूल गया था, सो रास्ते से ही लौट आया.’’
‘‘तो क्या आप टिकट नहीं लाए?’’
‘‘क्या करूं, उधार टिकट मांगने की हिम्मत नहीं हुई, पर मैं ने तसल्ली के लिए एक काम किया है.’’
‘‘हाय जीजाजी, हम आप से नहीं बोलते.’’
उर्मिला ने कहा, ‘‘पर पूछो तो सही क्या लाए हैं?’’
औपचारिकता के लिए छोटी ने पूछा, ‘‘आप क्या लाए हैं, जीजाजी?’’
जेब में से 4 पुस्तिकाएं निकालते हुए नरेश ने कहा, ‘‘सिनेमा के बाहर 50 पैसे में फिल्म के गानों की यह किताब बिक रही थी. मैं ने सोचा कि फिल्म न सही, उस की किताब ही सही. लो, आपस में एकएक बांट लो.’’
जब किसी ने भी किताब न ली तो नरेश आराम से सोफे पर पैर फैला कर बैठ गया और हंसहंस कर किताब जोरजोर से पढ़ कर सुनाने लगा और जहां गाने आए वहां अपनी खरखरी आवाज में गा कर पढ़ने लगा. एक समय आया जब सालियों से भी हंसे बिना नहीं रहा गया.
उर्मिला ने किताब हाथ से छीनते हुए कहा, ‘‘अब बंद भी करो यह गर्दभ राग. कुछ खाने का ही बंदोबस्त करो.’’
‘‘बोलो, हुक्म करो. बंदा हाजिर है. बिरयानी, चिकनपुलाव, कोरमा, पनीर, कोफ्ते, शामी कबाब, सींक कबाब, मुगलई परांठे, मखनी तंदूरी मुर्गा?’’
‘‘बस भी करो, जीजाजी, पता लग गया कि आप वही हैं कि थोथा चना बाजे घना. मैं तो 2 दिन से उपवास किए बैठी थी. लगता है सूखा चना भी नहीं मिलेगा.’’
‘‘भई, सूखा चना तो जरूर मिलेगा. क्यों, उर्मिला? बस, तो फिर आज चना पार्टी ही हो जाए. जरा टटोलो बटुआ अपना, कहीं उस के लिए भी चंदा इकट्ठा न करना पड़ जाए.’’
बड़ी साली ने कहा, ‘‘अच्छा, दीदी, हम चलते हैं. कल ही आएंगे. तैयार रहना.’’
‘‘नहींनहीं, ऐसे कैसे जाओगी. कुछ तो खा के जाओ. जरा बैठो, कुछ न कुछ तो खाना बन ही जाएगा. बात यह है कि सारी गलती मेरी है. वेतन तो तुम्हारे जीजाजी सब मेरे हाथ में देते हैं, पर मैं झूठी शान में सारा एक ही सप्ताह में खर्च कर देती हूं. अब कब तक तुम से छिपाऊंगी.’’
‘‘नहीं, दीदी, थोड़ी गलती तो हमारी भी है. हमें भी तुम्हारे साथ मिलबैठ कर आनंद लेना चाहिए. तुम्हारे ऊपर बोझ नहीं बनना चाहिए,’’ बड़ी ने कहा.
छोटी ने शैतानी से कहा, ‘‘देखा, दीदी, नंबर 2 कितनी चालाक हैं. अपना रास्ता पहले ही साफ कर लिया कि कोई हम में से जा कर उस के ऊपर बोझ न बने.’’
नरेश ने हंसते हुए कहा, ‘‘तो फिर अब जब पोल खुल गई है तो सिनेमा देखने के लिए तैयार हो जाओ.’’
और फिर जो चीखपुकार मची तो लगा सारा महल्ला सिर पर उठा लिया है. टिकट बालकनी के नहीं, पहले दरजे के थे, जिस पर किसी को आपत्ति नहीं हुई. फिल्म देखने के बाद नरेश उन्हें ढाबे में तंदूरी रोटी और दाल खिलाने ले गया. वह भी सब ने बहुत मजे से पेट भर कर खाया.
इस तरह एक दामाद और बच गया.
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