लेखिका- शकीला एस. हुसैन
फिर 40वां आया (40 दिन बाद की रस्म) एक दिन पहले ही सास और ननद जुबेदा के पास आ कर बड़ी मुहब्बत से बातें करने लगीं. उस की सेहत की फिक्र करने लगीं. फिर सास धीरे से बोलीं, ‘‘जुबेदा बेटी, कल इमरान की 40वें की रस्म है. यह बहुत धूमधाम से करनी होती है. यह आखिरी काज है. तुम 40 हजार का एक चैक भर दो ताकि यह प्रोग्राम भी शानदार तरीके से हो जाए. करीब 200 लोगों को बुलाना पड़ेगा. रिश्तेदार भी फलमिठाई वगैरह लाएंगे, पर खाना तो अपने को पकाना पड़ेगा.’’
जुबेदा ने सोचते हुए कहा, ‘‘अम्मां, ऐक्सीडैंट के वक्त मैं ने 1 लाख का चैक सुभान भाई को दिया था. उस में से कर लीजिए 40वें का इंतजाम. अब बैंक में मुश्किल 70-80 हजार होगें जो मेरी बड़ी मेहनत से की गई बचत है. इमरान का वेतन तो घर खर्च व उन के अपने खर्च में ही खत्म हो जाता था.’’
‘‘हां तुम ने 1 लाख दिए थे. उन में से 35-40 हजार तो अस्पताल का बिल बना. 12-13 हजार बाइक ठीक होने में लगे. बाकी पैसे सियूम की फातेहा में खर्च हो गए.’’
जुबेदा ने धीमे से कहा, ‘‘अम्मां मरने वाला तो मर गया… यह गम कितना बड़ा है मेरा दिल जानता है पर इस गम में लोगों को बुला कर खानेपिलाने में खर्च करने का क्या फायदा?’’
‘‘अपना ज्ञान अपने पास रखो. यह 40वां करना जरूरी है. इस से इमरान की रूह को शांति मिलेगी और जितने लोग खाएंगे सब उस के लिए दुआ भी करेंगे.’’
जुबेदा को मजबूरन एक चैक भर कर देना पड़ा पर उस ने सिर्फ 30 हजार भरे. सास व ननद का मुंह बन गया. अभी उस के सामने कई खर्चे थे. एक साल पहले उस ने एक फ्लैट बुक किया था. उस की किस्त भी भरनी थी. अभी और भी कई काम थे.
2 दिन बाद 40वां हुआ. दूरदूर के रिश्तेदार और दूसरे लोग जमा हुए. खूब हंगामा रहा. जुबेदा तटस्थ अपने कमरे में रही. औरतें उस से मिलने आती रहीं.
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वक्त गुजरता रहा. इद्दत भी पूरी हो गई. उस के बाद अम्मां ने मिन्नत कर के भारी बनारसी साडि़यां बेटी के लिए मांग लीं. जेवरों की भी डिमांड करने लगीं. उस ने एक सोने का सैट दे कर जान छुड़ाई. यह सैट उसे अम्मां ने ही दिया था. इस तरह जिंदगी थोड़ी आसान हो गई.
एक दिन जब जुबेदा स्कूल से वापस आई तो रूना भाभी का चेहरा उतरा हुआ था.
आंखें खूब रोईरोई लग रही थीं. उस ने बहुत पूछा क्या हुआ पर रूना भाभी ने कोई जवाब नहीं दिया. उस के बाद रूना ने जुबेदा से बातचीत भी करीबकरीब खत्म कर दी. उस की समझ में नहीं आया कि आखिर बात क्या हुई है? ऐसा क्या हुआ कि ऐसी बेरूखी दिखा रही हैं? आखिर राज एक छुट्टी के दिन खुल गया. वह नाश्ते के बाद सब्जी काट रही थी कि अम्मां ने बात छेड़ी, ‘‘देखो जुबेदा बेटी तुम बहुत कम उम्र में बेवा हो गई. अभी तुम्हारी उम्र सिर्फ 27 साल है. पहाड़ जैसी जिंदगी बिना किसी मर्द के सहारे के गुजारना बड़ा मुश्किल काम है. हमारा क्या है आज हैं कल नहीं रहेंगे. यह दुनिया बड़ी जालिम है. तुम्हें तनहा जीने नहीं देगी. अकेली औरत सब के लिए एक आसान शिकार होती है. मेरी सलाह यह है कि अब तुम शादी कर लो.’’
जुबेदा ने अपने गुस्से को दबा कर कहा, ‘‘अम्मां, मुझे शादी नहीं करनी है. आप तो हिना (ननद) की शादी की फिक्र करें.’’
अम्मां ने मीठे लहजे में कहा, ‘‘जुबेदा, हम हिना के लिए लड़का तलाश कर रहे हैं. तुम्हारे लिए तो रिश्ता घर में ही मौजूद है. सुभान है न इमरान से 4 साल ही बड़ा है, अच्छा कमाता है. फिर मजहब भी 4 शादियों की इजाजत देता है. जरूरत पड़ने पर भाई भाई की बेवा का सहारा बन सकता है. उस से निकाह कर सकता है. कम से कम मजबूरी में वह 2 शादियां तो कर सकता है. तुम्हारे सिर पर एक सायबान हो जाएगा. तुम्हें शौहर के रूप में एक मददगार मिल जाएगा. मैं ने सुभान से बात कर ली है, वह तुम से निकाह करने को राजी है. बस, तुम हां कर दो.’’
जुबेदा तैश से उबल पड़ी, ‘‘अम्मां, आप कैसी बेहूदा बातें कर रही हैं? ऐसा कभी नहीं हो सकता है. वे मेरे लिए बड़े भाई की तरह हैं और मैं उन्हें भाई ही समझती हूं. मैं कभी भी रूना भाभी का घर नहीं उजाड़ूंगी. आप इस बात को यहीं खत्म कर दीजिए.’’ कह कर वह गुस्से में उठ कर अपने कमरे में चली गई. उस के दिमाग में जैसे लावा उबल रहा था. सास के अल्फाज उस के कानों में हथोड़े की तरह बज रहे थे. ‘सुभान तुम से निकाह करने को राजी है.’ वह तो राजी ही होगा शादी करने के लिए कम उम्र, कमाऊ, खूबसूरत औरत जो मिल रही है. उन्हें जरा भी शर्म नहीं आई… 2 बच्चे हैं, रूना भाभी जैसी प्यार करने वाली बीवी है, फिर भी दूसरी बीबी के ख्वाब देख रहे हैं. अब उसे समझ में आया कि रूना भाभी क्यों उस से उखड़ीउखड़ी रह रही थीं. घर में शादी की बातें चल रही होंगी. ये सब सुन कर रूना भाभी दुखी हो रही होंगी. जुबेदा खूब समझ रही थी. सुभान भाई की कोई खास आमदनी नहीं थी. अब उस की तनख्वाह पर नजर है. फिर कुछ सालों में फ्लैट भी मिल जाएगा. उस पर हक जमाएंगे और साथ ही जवान खूबसूरत नई बीवी मिल जाएगी. उस ने पक्का फैसला कर लिया कि वह किसी भी कीमत पर सुभान भाई से शादी नहीं करेगी. वह सोच में डूब गई कि उस का अगला कदम क्या होना चाहिए, क्योंकि वह जानती थी कि ये लोग अपनी जिद पूरी करने की हर संभव कोशिश करेंगे. शादी से बहुत फायदा है उन्हें.
दूसरे दिन जुबेदा ने स्कूल पहुंच कर अपनी सारी परेशानी प्रिंसिपल को बता दी.
प्रिंसिपल बहुत समझदार व जुबेदा की हमदर्द थीं. काफी देर सोचने के बाद उन्होंने कहा, ‘‘जुबेदा बेटा, मेरी समझ में तो इस का एक ही हल है कि तुम इन लोगों से कहीं दूर चली जाओे… तभी तुम इस अनचाही शादी से बच सकती हो. यहां से करीब 200 किलोमीटर दूर पहाड़ी कसबे सहदपुर में गर्ल्स स्कूल खुला है. उन्हें वहां अच्छी उत्साही टीचर्स की जरूरत है. वहां गर्ल्स होस्टल भी है. उस के वार्डन के लिए एक जिम्मेदार व अनुभवी टीचर की जरूरत है. मेरे पास भी नोटिस आया है. जो टीचर्स रुचि लें, उन्हें प्रेरित कर के मैं इस स्कूल में भेजूं. छोटा है पर अच्छा व सुरक्षित है. तुम्हारा नाम होस्टन वार्डन के तौर पर भिजवा देती हूं. तुम्हारे लिए होस्टल वार्डन क्वार्टर भी है और खाने का मेस भी. तुम्हें सारी सहूलतें मिलेंगी, वेतनवृद्धि भी अच्छी मिलेगी. तुम कहो तो मैं तुम्हारा नाम होस्टल वार्डन के लिए भेज देती हूं, साथ में लैटर भी लिख दूंगी. वहां की प्रिंसिपल मेरी कुलीग रह चुकी हैं. 3-4 साल बाद सही मौका देख कर तुम ट्रांसफर भी ले सकती हो. मेरी राय में तुम्हारी प्रौब्लम का यही उचित हल है.’’
जुबेदा को बात एकदम ठीक लगी. यही हल उस की परेशानी दूर कर सकता है. उस ने उसी वक्त अपना नाम दे दिया. प्रिंसिपल ने ट्रांसफर फार्म भरवा कर, सारी काररवाई पूरी कर अच्छी रिपोर्ट के साथ उस का फार्म विभाग को भिजवा दिया. जुबेदा ने सुकून की सांस ली.
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जुबेदा ने कहकशां को फोन कर सारे हालात बताए. जबरन शादी की बात सुन कर वह भी परेशान हो गई. फिर ट्रांसफर की बात उसे भी पसंद आई. उस ने कहा, ‘‘जुबेदा, तुम जल्दी वहां से निकलने की कोशिश करो. जैसे ही तुम्हारा जौइनिंग और्डर आता है मुझे खबर कर देना. मैं तुम्हारे दूल्हाभाई अरशद के साथ गाड़ी ले कर आ जाऊंगी. तुम्हें जौइन करवा कर, वहां सैट कर के ही हम दोनों वापस आएंगे.’’
जुबेदा ने घर में किसी को इस बात की भनक नहीं लगने दी. सब से नौर्मल व्यवहार रखा. चुपचाप अपनी तैयारी करती रही. उसे कुछ खास तो साथ ले जाना न था. कुछ कपड़े, जरूरी चीजें और कागजात संभाल कर रख लिए. 15 दिनों के बाद ही उस का ट्रांसफर और्डर आ गया. स्कूल से उसे रिलीव कर दिया गया. रात को उस ने पूरी तैयारी कर ली. दूसरे दिन सुबह ही कहकशां और अरशद गाड़ी ले कर आ गए. नाश्ता करने के बाद उस ने सासससुर को बताया कि उस का ट्रांसफर सहदपुर हो गया है. उसे कल ही जौइन करना है, इसलिए वह कहकशां व अरशद के साथ जा रही है. आज ही निकलना जरूरी है.
ट्रांसफर की सुन कर सब सकते में आ गए. सुभान कहने लगा, ‘‘तुम मत जाओ. मैं कुछ दे दिला कर ट्रांसफर रुकवा दूंगा. तुम लंबी छुट्टी ले लो. ऐसा सब तो होता है. मैं सब ठीक कर दूंगा.’’
सासससुर ने भी खूब समझाया. तरहतरह की दलीलें दे कर उसे रोकना चाहा. पर उस ने दोटूक कह दिया, ‘‘मुझे प्रमोशन मिल रही है… मेरे भविष्य का सवाल है. मैं ने जाने का निर्णय कर लिया है. आप लोग परेशान न हों.’’
जुबेदा सोच चुकी थी इस बार इंतहाई कदम उठाना है. इस पार या उस पार. उस के सख्त रवैए को देख कर सब की बोलती बंद हो गई.
जुबेदा ने जाते वक्त रूना भाभी से गले मिलते हुए कहा, ‘‘भाभी, आप ने मुझे गलत समझा. मैं कभी आप की दुनिया नहीं उजाड़ती. मैं एक औरत का दर्द समझती हूं. मैं अब आप से दूर जा रही हूं. आप बेफिक्र हो कर खुश रहना.’’
रूना भाभी ने रुंधे गले से कहा, ‘‘जुबेदा मुझे माफ कर दो. मुझ से तुम्हें जानने में भूल हुई. पर तुम्हारा अकेलापन देख कर मेरा जी दुखता है…’’
‘‘आप मेरी फिक्र न करें. मैं काम में व्यस्त रहती हूं. वहां तो और भी तनहाई महसूस न होगी. होस्टल वार्डन बन कर जा रही हूं. मैं यह नहीं कहती कि मैं कभी शादी नहीं करूंगी पर अगर मुझे मेरा हमखयाल, हमदर्द, हमसफर मिल गया तो जरूर शादी करूंगी और मुझे उम्मीद है ऐसा मुखलिस बंदा मुझे मिल जाएगा.’’
जुबेदा सब से मिल कर मजबूत कदमों से जिंदगी के नए सफर के लिए रवाना हो गई. एक खुशनुमा जिंदगी उस की मंतजिर थी.
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लेखिका- शकीला एस. हुसैन
जुबेदा पढ़ीलिखी थी, सब समझती थी, पर इमरान की बेइंतहा मुहब्बत पा कर खुश थी. सास की जलीकटी चुपचाप सह लेती. कभी बात न बढ़ाती. रूना भाभी का व्यवहार ठीक ही था पर वे भी उस की नौकरी और खूबसूरती से खार खाती थीं. सुभान उसे खर्चे के सीमित पैसे देता था, इसलिए भी उसे चिढ़ होती थी.
पिछले कुछ दिनों से अम्मां ने एक नया मसला खड़ा कर दिया था कि शादी को 2 साल हो गए. अभी तक बच्चा नहीं हुआ. इस में जुबेदा का कोई कुसूर न था, पर उसे उलटीसीधी बातें सुननी पड़तीं कि बच्चे बिना औरत लकड़ी के ठूंठ जैसी होती है, न फूल लगने हैं न फल. ऐसी औरतें घर के लिए मनहूस होती हैं. रूना को देखो 5 साल में 2 बच्चे हो गए. घर में कैसी रौनक लगी रहती है.
वैसे बच्चे संभालने में कोई कभी मदद न करतीं. कभी थोड़ीबहुत सिलाई कर देतीं या फिर बेटों की फरमाइश पर कुछ पका देतीं. बाकी का वक्त महल्ले की खबरों में चला जाता. सब को सलाहें देने में और टीकाटिप्पणी करने में सब से आगे.
अम्मां की बातें सुन कर इमरान जुबेदा के साथ डाक्टर के पास गया. दोनों को पूरी तरह जांच करने के बाद डाक्टर ने कहा, ‘‘दोनों एकदम ठीक हैं. कोई खराबी नहीं है. औलाद हो जाएगी.’’
इमरान ने आ कर अम्मां को सब बता दिया और कहा, ‘‘अब आप औलाद को ले कर परेशान न होना. जब होना होगा बच्चा हो जाएगा. अब आप सब्र से बैठें और हां जुबेदा को भी कुछ कहने की जरूरत नहीं है. सब समय पर छोड़ दीजिए.’’
1-2 महीने अम्मां शांत रहीं, फिर एक नया राग शुरू कर दिया कि ‘करामात पीर’ के पास जाना पड़ेगा. उस पीर का एक एजेंट अकसर अम्मां के पास आ फटकता और उन्हें अपने हिसाब से ऊंचनीच समझाना शुरू कर देता. हर बार अम्मां की अंटी कुछ हलकी हो जाती. अम्मां बोलती रहीं पर जुबेदा ने ध्यान न दिया. अनसुनी करती रही.
उस दिन छुट्टी थी. सब घर पर ही थे. नाश्ते के बाद लान में बैठे बातें कर रहे थे कि तभी अम्मां कहने लगीं, ‘‘चलो जुबेदा तैयार हो जाओ. आज हम करामात पीरबाबा के पास जाएंगे. बहुत दिन झेल ली तुम्हारी बेऔलादी… वे एक ताबीज देंगे और पढ़ कर फूकेंगे कि तुम्हारी गोद में बच्चा आ जाएगा. आज तुम्हें चलना पड़ेगा.’’
जुबेदा ने धीरे से कहा, ‘‘अम्मां मैं इन बातों पर यकीन नहीं रखती और यह तो कतई नहीं मानती कि पीरबाबा की फूंक और ताबीज से बच्चे हो जाते हैं.’’
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यह सुन कर अम्मां का पारा चढ़ गया. गुस्से से बोलीं, ‘‘यही तो बुराई है इन पढ़ीलिखी लड़कियों में. ये पीरबाबाओं पर यकीन नहीं रखतीं. पड़ोस की सकीना की बहू पीरबाबा के पास गई थी. 2 महीने से उम्मीद से है और सलामत की बेटी को 5 साल से बच्चा न था. उस की भी गोद भर गई. बाबा की एक और करामात है कि ऐसा पढ़ कर फूंकते हैं कि बेटा ही होता है. चलो, तुम्हारी गोद भी हरी हो जाएगी.’’
जुबेदा ने मजबूत लहजे में कहा, ‘‘अम्मां जब मुझे इन बातों पर यकीन ही नहीं है, तो मैं बाबा के पास क्यों जाऊं? ये सब झूठ है. मुझे समय पर भरोसा है… आप के कहने से सारे टैस्ट करवा लिए. सब ठीक है पर मैं करामात बाबा के पास नहीं जाऊंगी, यह मेरा फैसला है.’’
अम्मां ने शिकायती नजरों से इमरान को देखा तो वह बोला, ‘‘अम्मां, मुझे भी इन बातों पर यकीन नहीं है और मैं जुबेदा की मरजी के खिलाफ उस पर जबरदस्ती नहीं करूंगा. वह नहीं जाना चाहती है तो आप न ले जाएं.’’
इस बात पर अम्मां तैश में आ गईं. पूरा घर उन दोनों को छोड़ कर एक हो गया. कई तरह की खोखली दलीलें दे कर समझाने की कोशिश की गई पर वह न मानी और उठ कर अपने कमरे में चली गई. दरवाजा बंद कर लिया. उस की इस हरकत पर पूरा घर उस से नाराज हो गया. कोई उस से बात नहीं करता. ज्यादातर वह स्कूल या अपने कमरे में रहती. एक डेढ़ महीने के बाद घर का माहौल ठीक हुआ. जुबेदा सब्र से सब सह गई. दिन धूपछांव की तरह गुजरते रहे.
कहकशां जब दूध का गिलास ले कर आई तो जुबेदा चौंक कर अपने खयालों से बाहर आई. कहकशां ने जबरदस्ती उसे थोड़ी बै्रड दूध से खिलाई. 2-3 दिन तक रिश्तेदारों के यहां से खाना आता रहा. तीसरे दिन सियूम (मौत का तीसरा दिन तीजा) था उस दिन घर में खाना बनता है और सब रिश्तेदार व दोस्त वहीं खाना खाते हैं. सियूम बहुत शान से किया गया.
सारा दिन जुबेदा को सब के साथ बैठना पड़ा. पूरा वक्त इमरान की मौत का जिक्र, लोगों की बनावटी हमदर्दी, सियूम की तारीफ, शानदार खाना खिलाने पर वाहवाही. जुबेदा का दिल चाह रहा था वह इस माहौल से कहीं दूर भाग जाए.
कहकशां उसे ले कर कमरे में जाने लगी तो सास ने कहा, ‘‘अभी इसे यहीं बैठने दो. आज दिन भर औरतें पुरसा देने (हमदर्दी जताने) आएंगी. इस का यहां रहना जरूरी है.’’
‘‘जुबेदा को चक्कर आ रहा है. वह बैठ नहीं सकती. मुझे उसे लिटाने दीजिए,’’ कह कर उसे कमरे में ले गई.
उस के बाद 1 महीने की फारोहा हुई.
यह खाना करीबी रिश्तेदारों ने पकवा कर कुछ करीबी लोगों को खिलाया. 40-50 लोग हर बार शामिल होते थे. जुबेदा खामोश सब देखती रहती.
कहकशां 4 दिन के बाद चली गई थी. फिर 1 महीना होने पर बहन की मुहब्बत उसे फिर खींच लाई. 1 महीना होने के बाद दूसरे दिन जुबेदा सादे कपड़े पहन कर स्कूल जाने को तैयार हो गई. जैसे ही वह बाहर निकलने लगी सास और फूफी सास ने रोनापीटना शुरू कर दिया, ‘‘यह कैसी बदशगुनी है कि तुम इद्दत पूरी होने से पहले बाहर निकल रही हो.’’
यह सुन कर जेठ और ससुर भी रास्ता रोक कर खड़े हो गए, ‘‘तुम अभी घर से बाहर निकल कर स्कूल नहीं जा सकती. मैं अभी मौलाना साहब को बुलाता हूं, वहीं तुम्हें समझाएंगे.’’
मौलाना साहब आ गए. जबरन जुबेदा को परदे के पीछे बैठा दिया गया. कहकशां भी बेबस सी उस के पास बैठ गई. उन्होंने एक लंबा लैक्चर दिया, जिस का खुलासा यह था, ‘‘साढ़े 4 महीनों तक औरत न किसी गैरमर्द से मिल सकती है न कहीं बाहर जा सकती है और न ही भड़कीले रंगबिरंगे कपड़े पहन सकती है. उसे अपने कमरे में ही रहना होगा.’’
मौलाना साहब की बात सुन कर, तो सासससुर व जेठ सब को जबान मिल गई सब ने एकसाथ बोलना शुरू कर दिया. जुबेदा ने बुलंद आवाज में कहा, ‘‘एक मिनट, मेरी बात सुन लीजिए.’’
कमरे में सन्नाटा छा गया. जुबेदा ने कहा, ‘‘मौलाना साहब, मैं ने दुनिया के जानेमाने आलिम और इसलाम के बहुत बड़े स्कौलर से यूट्यूब पर सवाल किया था कि क्या औरत इद्दत के दौरान कतई बाहर नहीं निकल सकती? तब उन्होंने जो जवाब दिया उसे आप भी सुन लीजिए. उन का जवाब था, ‘‘औरत की अगर कोई मजबूरी है तो वह बाहर जा सकती है. अगर कोई सरकारी या फिर अदालत का काम करना जरूरी है तो भी उसे बाहर जाने की इजाजत है. अगर वह खुद कफील (खुद कमाने वाली) है और बाहर जाना जरूरी है तो वह परदे की एहतियात के साथ घर से निकल सकती है. मजबूरी की हालत में साढ़े 4 महीने की इद्दत पूरी करना जरूरी नहीं है.’’
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आलिम साहब का बयान सुन कर सन्नाटा छा गया. सब चुप हो गए. परदे के पीछे से जुबेदा की आत्मविश्वास से भरी आवाज सुनाई दी, ‘‘आप ने आलिम साहब का फतवा सुन लिया. उन के मुताबिक मैं नौकरी के लिए बाहर जा सकती हूं. यह मेरी जरूरत और मजबूरी है. मैं पहले ही 1 महीने की छुट्टी ले चुकी हूं. अब और नहीं ले
सकती. मेरी सरकारी नौकरी है. मेरा स्कूल लड़कियों का स्कूल है. इसलिए बेपर्दगी का सवाल ही नहीं उठता. आलिम साहब के बयान के मुताबिक मुझे बाहर जाने की व नौकरी करने की इजाजत है.’’
मौलवी साहब व दूसरे लोग इतने बड़े आलिम साहब का विरोध करने का साहस न कर सके. उन लोगों के चुप होते ही बाकी लोगों ने भी हथियार डाल दिए. दूसरे दिन से जुबेदा ने हिजाब के साथ स्कूल जाना शुरू कर दिया. जिंदगी फिर सुकून से गुजरने लगी. जुबेदा अपने काम से काम रखती. ज्यादा वक्त तो उस का स्कूल में गुजर जाता. घर के बाकी लोग भी अपने काम में मसरूफ रहते.
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लेखिका- शकीला एस. हुसैन
ऐक्सीडैंट की खबर मिलते ही जुबेदा के तो होश उड़ गए. इमरान से शादी को अभी 3 ही साल हुए थे. इमरान की बाइक को किसी ट्रक ने टक्कर मार दी थी. घर के सभी लोगों के साथ जुबेदा भी अस्पताल पहुंची थी. सिर पर गंभीर चोट लगी थी. जिस्म पर भी काफी जख्म थे. औपरेशन जरूरी था. उस के लिए 1 लाख चाहिए थे. जुबेदा ससुर के साथ घर आई. फौरन 1 लाख का चैक ले कर अस्पताल पहुंचीं, पर तब तक उस की दुनिया उजड़ चुकी थी. इमरान अपनी आखिरी सांस ले चुका था. जुबेदा सदमे से बेहोश हो गई. अस्पताल की काररवाई पूरी होने और लाश मिलने में 5-6 घंटे लग गए.
घर पहुंचते ही जनाजा उठाने की तैयारी शुरू हो गई. जुबेदा होश में तो आ गई थी पर जैसे उस का दिलदिमाग सुन्न हो गया था. उस की एक ही बहन थी कहकशां. वह अपने शौहर अरशद के साथ पहुंच गई थी. जैसे ही जनाजा उठा, जुबेदा की फूफी सास सरौते से उस की चूडि़यां तोड़ने लगीं.
कहकशां ने तुरंत उन्हें रोकते हुए कहा, ‘‘चूडि़यां तोड़ने की क्या जरूरत है?’’
‘‘हमारे खानदान में रिवायत है कि जैसे ही शौहर का जनाजा उठता है, बेवा की चूडि़यां तोड़ कर उस के हाथ नंगे कर दिए जाते हैं,’’ फूफी सास बोलीं.
जुबेदा की खराब हालत देख कर कहकशां ने ज्यादा विरोध न करते हुए कहा, ‘‘आप सरौता हटा लीजिए. मैं कांच की चूडि़यां उतार देती हूं.’’
मगर फूफी सास जिद करने लगीं, ‘‘चूडि़यां तोड़ने का रिवाज है.’’ तब कहकशां ने रूखे लहजे में कहा, ‘‘आप का मकसद बेवा के हाथ नंगे करना है, फिर चाहे चूडि़यां उतार कर करें या उन्हें तोड़ कर, कोई फर्क नहीं पड़ता है,’’ और फिर उस ने चूडि़यां उतार दीं और सोने की 2-2 चूडि़यां वापस पहना दीं.
इस पर भी फूफी सास ने ऐतराज जताना चाहा तो कहकशां ने कहा, ‘‘आप के खानदान में चूडि़यां फोड़ने का रिवाज है, पर सोने की चूडि़यां तो नहीं तोड़ी जाती हैं. इस का मतलब है सोने की चूडि़यां पहनी जा सकती हैं.’’
फूफीसास के पास इस तर्क का कोई जवाब न था.
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जुबेदा को सफेद सलवारकुरता पहनाया गया. फिर उस पर बड़ी सी सफेद चादर ओढ़ा कर उस की सास उसे एक कमरे में ले जा कर बोलीं, ‘‘अब तुम इद्दत (इद्दत शौहर के मरने के बाद बेवा को साढ़े चार महीने एक कमरे में बैठना होता है. किसी भी गैरमर्द से मिला नहीं जा सकता) में हो. अब तुम इस कमरे से बाहर न निकलना.’’
जुबेदा को भी तनहाई की दरकार थी. अत: वह फौरन बिस्तर पर लेट गई. कहकशां उस के साथ ही थी, वह उस के बाल सहलाती रही, तसल्ली देती रही, समझाती रही.
जुबेदा की आंखों से आंसू बहते रहे. उस की आंखों के सामने उस का अतीत जीवित हो उठा. उस के वालिद तभी गुजर गए थे जब दोनों बहनें छोटी थीं. उन की अम्मां ने कहकशां और जुबेदा की बहुत प्यार से परवरिश की. दोनों को खूब पढ़ाया लिखाया. पढ़ाई के बाद कहकशां की शादी एक अच्छे घर में हो गई. जुबेदा ने एमएससी, बीएड किया. उसे सरकारी गर्ल्स स्कूल में नौकरी मिल गई. जिंदगी बड़े सुकून से गुजर रही थी. किसी मिलने वाले के जरीए जुबेदा के लिए इमरान का रिश्ता आया. इमरान अच्छा पढ़ालिखा और प्राइवेट कंपनी में नौकरी करता था. अम्मां ने पूरी मालूमात कर के जुबेदा की शादी इमरान से कर दी. अच्छा खानदान था. भरापूरा घर था.
इमरान बहुत चाहने वाला शौहर साबित हुआ. मिजाज भी बहुत अच्छा था. दोनों ने 1 महीने की छुट्टी ली थी. उमंग भरे खुशी के दिन घूमनेफिरने और दावतों में पलक झपकते ही गुजर गए. दोनों ने अपनीअपनी नौकरी जौइन कर ली. इमरान सवेरे 9 बजे निकल जाता. उस के बाद जुबेदा को स्कूल के लिए निकलना होता. घर में सासससुर और इमरान से बड़ा भाई सुभान, उस की बीवी रूना और उन के 2 छोटे बच्चों के अलावा कुंआरी ननद थी, जो कालेज में पढ़ रही थी.
अभी तक जुबेदा किचन में नहीं गई थी. इतना वक्त ही न मिला था. बस एक बार उस से खीर पकवाई गई थी. वे घूमने निकल गए. उस के बाद दावतों में बिजी हो गए. आज किचन में आने का मौका मिला तो उस ने जल्दीजल्दी परांठे बनाए. भाभी ने आमलेट बना दिया. नाश्ता करतेकराते काफी टाइम हो गया. इमरान नाश्ता कर के चला गया. आज लंच बौक्स तैयार न हो सका, क्योंकि टाइम ही नहीं था. दोनों शाम को ही घर आ पाते थे.
शाम को दोनों घर पहुंचे. जुबेदा ने अपने लिए व इमरान के लिए चाय बनाई. बाकी सब पी चुके थे. चाय पीतेपीते वह दूसरे दिन के लंच की तैयारी के बारे में प्लान कर रही थी. तभी सास की सख्त आवाज कानों में पड़ी, ‘‘सारा दिन बाहर रहती हो… कुछ घर की भी जिम्मेदारी उठाओ… रूना अकेली कब तक काम संभालेगी. उस के 2 बच्चे भी हैं… उन का भी काम करना पड़ता है. फिर हम दोनों की भी देखभाल करनी पड़ती है. अब कल सुबह से नाश्ता और खाना बना कर जाया करो. समझ गई?’’
जुबेदा दूसरे दिन सुबह जल्दी उठ गई. सब के लिए परांठे बनाए. भाभी ने दूसरी चीजें बनाईं. उस ने जल्दीजल्दी एक सब्जी बनाई. फिर थोड़ी सी रोटियां बना कर दोनों के लंच बौक्स तैयार कर लिए. जल्दी करतेकरते भी देर हो गई. इसी तरह जिंदगी की गाड़ी चलने लगी. कभी दाल नहीं बन पाती तो कभी पूरी रोटियां पकाने का टाइम नहीं मिलता. हर दूसरेतीसरे दिन सास की सलवातें सुननी पड़तीं. शाम को बसों के चक्कर में इतना थक जाती कि शाम को कुछ खास नहीं कर पाती. बस थोड़ी बहुत रूना भाभी की मदद कर देती.
छुट्टी के दिन कहीं आनेजाने का या घूमने का प्रोग्राम बन जाता तो सब के मुंह फूल जाते. सास सारा गुस्सा जुबेदा पर उतारतीं, ‘‘पूरा हफ्ता तो घर से बाहर रहती हो छुट्टी के दिन तो घर रहा करो. कुछ अच्छी चीजें पकाओ… पर तुम्हें तो उस दिन भी मौजमस्ती सूझती है. जबकि छुट्टी के दिन तो हफ्ते भर के काम करने को होते हैं.’’
जुबेदा जवाब नहीं देती. सास खुद ही बकझक कर के चुप हो जातीं. इमरान सारे हालात देख रहा था. जुबेदा भरसक कोशिश करती पर काम निबटाना मुश्किल था. करने वाले 2 थे. काम ज्यादा लोगों का था और रूना भाभी के बच्चे भी छोटे थे. इमरान ने एक खाना पकाने वाली औरत का इंतजाम कर दिया. उस का वेतन जुबेदा देती थी. अब उसे राहत हो गई थी. वह बस सुबह के परांठे बनाती. तब तक बाई आ जाती. वह सास की सब्जी बना देती. बाकी बाद का काम भी संभाल लेती. रूना भाभी को भी आराम हो गया. दिन सुकून से गुजर रहे थे.
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मुश्किल यह भी कि सास पुराने ख्यालात की थीं. उन्हें जुबेदा का नौकरी करना बुरा लगता था. वे और जगह खुले हाथ से खर्च करती थीं पर घर खर्च में कुछ नहीं देती थीं. इमरान सुभान के बराबर घर खर्च में पैसे देता था. फिर अब्बा की पेंशन भी थी. उस में से सास बचत कर लेती थीं और बेवजह ही घर तंगी का रोना रोतीं. हां, जुबेदा कभी फ्रूट्स ले आती तो कभी नाश्ते का सामान. खास मौके पर सब को तोहफे भी देती. तब सास खूब खुश हो जातीं पर टोकने का कोई मौका नहीं छोड़तीं.
जुबेदा काफी खूबसूरत और नाजुक सी थी. इमरान उस पर जान देता था. उस का बहुत खयाल रखता. यह भी अम्मां को बहुत अखरता था कि उन का लाड़ला उन के अलावा किसी और से मुहब्बत करता है.
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