Serial Story: फैसला दर फैसला- भाग 3

पिछला भाग- फैसला दर फैसला: भाग 2

‘‘मैं समझाती, तो कु्रद्ध हो उठता, प्यार का प्रदर्शन करती तो उस का पुरुषार्थ जाग्रत हो उठता और दया दिखाती तो नन्हे बालक के समान आत्महीनता का केंचुल ओढ़ कर नन्हे बालक के समान सुबकने लगता. यही समझौता कर लिया था मैं ने कि प्रसन्न अब कुछ नहीं करेगा.

‘‘धीरेधीरे मेरा कार्यक्षेत्र बढ़ने लगा. समय, सितारों और संघर्ष ने हाथ मिलाया और काफी धन अर्जित किया मैं ने. पक्षी भी घर लौटते होंगे तो वे 2 पल सुस्ता लेते होंगे, लेकिन प्रसन्न के परिवारजन मुझ पर यों टूटते थे जैसे कबूतरों के झुंड दाना डालने पर टूटते हैं. पैसा देते समय बुरा नहीं लगता था.

‘‘हां, प्रसन्न को देख कर मन जरूर क्षुब्ध हो उठता था. एक प्रतिभाशाली, कर्मठ व्यक्ति की तरह धन अपनी प्रतिभा को अपनी जड़मति से समाप्त कर रहा था. जब तक हम दोनों पतिपत्नी एकजुट हो कर धन अर्जित नहीं करते, उन उत्तरदायित्वों का निर्वहन कैसे करते, जिन्हें हम ने विरासत में पाया था? प्रसन्न की 2 बहनों का ब्याह रचाना था, देवर की शिक्षा का दायित्व था मुझ पर, लेकिन उसे किसी बात से सरोकार नहीं था.

‘‘अब एक नई धुन सवार थी उस पर… अपनी भवन निर्माण कंपनी खुलवाना चाहता था वह. दिनरात मुझ से पैसे मांगता. उधर मां को बेटियों की चिंता थी. अपने सीमित साधनों से एक ही समय में सारे दायित्व निभाना कठिन था मेरे लिए. हर समय घर में क्लेश रहता. जवान ननदों का विवाह करना मेरी पहली प्राथमिकता थी.

अपनी सारी जमापूंजी एकत्रित कर के ननदों का ब्याह किया तो मां बहुत खुश हो गई थीं. झोली भर कर आशीर्वाद मिले मुझे. प्रशंसा मिली, मान मिला, लेकिन यह प्रशंसा ही मेरे दांपत्य पर ग्रहण के रूप में छा गई. प्रसन्न मेरी प्रशंसा से ईर्ष्यालु हो उठा. अब तक जिन्हें प्रसन्न करने के लिए अपनी पत्नी को अपमानित करता आया, वह ही क्योंकर प्रशंसा की पात्र बन गई? उस का अहं दर्प के समान उजागर हो उठा. हर समय मुझ पर फिकरे कसता, शक करता.

‘‘प्रतिस्पर्धा की थका देने वाली दौड़ की थकान से चूर शरीर और मस्तिष्क, महत्त्वाकांक्षा के ऊंचेऊंचे क्षितिज ढूंढ़ती आंखें, घर लौट कर पति का प्यार पाने को लालायित रहतीं, लेकिन वहां मेरे लिए प्रसन्न के मन में थी वितृष्णा और कई ऐसे अनबूझे प्रश्न, जो मेरे चरित्र पर कीचड़ उछालते थे. शक में बंधी जिंदगी से मुक्ति पाने के लिए मैं ने एक निर्णायक कदम उठाना चाहा कि काम पर जाना बंद कर दूं.

‘‘रोज के झगड़ों का बेटे के व्यक्तित्व पर बुरा असर पड़ रहा था. मेरे इस निर्णय से प्रसन्न घबरा गया. नन्हे बालक के समान गिड़गिड़ाने लगा. आखिर जीने के लिए 2 वक्त का खाना और कपड़ा तो चाहिए ही था न.

‘अब हमारा तलाक हो ही जाए तो ही ठीक,’ मन के एक कोने से पुरजोर स्वर उभरा. एक हलकी सी उम्मीद थी मन में, शायद तलाक मंजूर होने से पहले अदालत द्वारा मिलने वाली समयावधि मौका देगी और प्रसन्न को अपनी गलती का एहसास होगा और हम फिर पहले जैसे जी सकेंगे.

‘‘तलाक लेने से पहले अवधि देने का नियम बनाने वाले कितने

समझदार रहे होंगे दीदी… या तो दंपती भावनाओं में और बंध जाते हैं या फिर प्रसन्न जैसे संकल्प कर चुके होते हैं कि तुम चाहे जो भी करो हम तो ऐसे ही जिंदगी काटेंगे.

‘‘मेरी हर उम्मीद निर्मूल साबित हुई. न बेटे के आगमन ने उसे घर से बांधा और न ही उस की जिम्मेदारियों ने. इस कमरतोड़ महंगाई में सब की इच्छाएं, जरूरतें पूरी करतेकरते न जाने कितने पल मुट्ठी में बंद रेत की तरह फिसल गए. आकर्मण्य सा वह व्यक्ति घर के छोटेछोटे दायित्व भी नहीं निभाता था.

‘‘दिन यों ही बीतते चले गए. रोहन अब वयस्क था. पिता के संबंध में कई प्रश्न पूछता. कभी मुझे दोषी ठहराता कभी पिता के अनर्गल वाक्यों का मर्म समझने की चेष्टा करता. मैं बड़ी सतर्कता से उस के प्रश्नों के उत्तर देती. उस के मन में  मैं ने पिता की ऐसी छवि उतारी कि वह आदरणीय हो उठा था उस के मन में. शायद कोई भी औरत अपने पति का अनादर अपने बेटे से नहीं करवाना चाहती.

‘‘ग्रहक्लेश और वातारण के कलुषित होने के डर से मैं ने होंठ सी लिए थे. कई संभ्रांत परिवारों से मुझे आमंत्रण मिलते, आखिर मेरा अपना भी कोई अस्तित्व है और फिर प्रतिष्ठा, मान, यश, धन सबकुछ था मेरे पास, लेकिन जी नहीं करता था कहीं भी जाने का. लोग पति से संबंधित प्रश्न पूछते तो क्या उत्तर देती? मेरा पति मुफ्त में रोटियां तोड़ने वाला एक आलसी पुरुष है? एक क्रोधी व्यक्ति के रूप में परिचय देती उस का?

‘‘जानती हो दीदी, अपने बेटे को अपने पिता की देखरेख में छोड़ कर जब काम पर जाती तो लगता, पिता के संरक्षण में सुरक्षित है मेरा बेटा, कम से कम उसे तो वह पढ़ा सकता था, लेकिन ऐसा नहीं था. प्रसन्न मेरे बेटे के मन में विष घोलता रहा. उस ने रोहन के मन में मेरे प्रति घृणा के ऐसे बीज बोए कि अब वह मेरी तरफ एक नजर भी नहीं देखना चाहता.’’

उस ने विस्फारित नजरों से मुझे देखा जैसे मुझ से ही प्रश्न कर रही हो.

फिर कुछ देर बाद आगे बोली, ‘‘दीदी, विश्वास कर सकती हो तुम इस नीच हरकत पर?’’

‘‘तुम ने प्रतिवाद नहीं किया?’’

‘‘कई बार किया था पर मनुष्य कभी आत्मविश्लेषण नहीं करता. करता भी है तो

सामने वाले को ही दोषी मानता है. यही प्रसन्न

ने भी किया. कई बार मनुष्य के अच्छे संस्कार उसे बुरा करने से रोकते हैं, लेकिन प्रसन्न के मन में शायद अच्छे संस्कार थे ही नहीं और फिर किसी के प्रति मन में पे्रम या सद्भावना हो तो मनुष्य अपने दोष ढूंढ़ने का प्रयत्न भी करता है.

‘‘प्रसन्न के मन में मेरे लिए घृणा थी, प्यार नहीं. नीचा दिखाने की चाहत थी, सम्मान की भावना नहीं. एकतरफा संबंध था हमारा. संबंध भी नहीं समझौता कहो इसे… क्या नहीं किया मैं ने उस के परिवार के लिए? एक कुशल योद्धा की तरह हर कर्तव्य का पालन किया मैं ने और फिर मैं ने तो एक सभ्य, सुसंस्कृत और शिक्षित व्यक्ति से विवाह किया था और उस ने असभ्यता की हर सीमा का उल्लंघन किया. पत्नी के शरीर को जागीर समझ कर पीड़ा दी. मैं चुप रही, मेरी अनमोल धरोहर को छल से मुझ से दूर किया, फिर भी होंठ सी लिए… शत्रु की तरह व्यवहार किया मुझ से उस ने.’’

ये भी पढ़ें- #coronavirus: कोरोना वायरस पर एक हाउसवाइफ का लेटर

‘‘है कहां प्रसन्न आजकल?’’

‘‘खाड़ी देश में. एक बड़ी भवन निर्माण कंपनी खोल ली है उस ने.

आगे पढ़ें- पिछले वर्ष उस का एक मित्र उसे वहां ले गया था….

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें