Serial Story: फैसला दर फैसला- भाग 4

पिछला भाग- फैसला दर फैसला: भाग 3

पिछले वर्ष उस का एक मित्र उसे वहां ले गया था. काफी नाम कमाया उस ने. पैसा भी कमाया… मैं बहुत खुश थी. देर से ही सही मेरे सुख का सूरज उदित तो हुआ. लेकिन वह मेरा भ्रम था… उस ने दूसरा विवाह कर लिया है.’’

‘‘विवाह?’’

‘‘हां दीदी… तुम्हारी तरह फटी आंखों से एकसाथ कई सवाल मेरे चेहरे पर भी उभर आए थे… हमारा तलाक तो हुआ ही नहीं था.

‘‘मन ने धीरे से हिम्मत बंधाई कि उस के पास पैसा है, खरीदे हुए रिश्ते हैं तो क्या हुआ, सच तो सच ही है, हिम्मत मत हार.

‘‘दरवाजा खोलो, दरवाजा खोलो… मुझे न्याय दो, मेरा हक दो… झूठ और फरेब से मेरी झोली में डाला गया तलाक मेरी शादी के जोड़ से भारी कैसे हो सकता है? न जाने किस अंधी उम्मीद में मैं ने अदालत का दरवाजा खटका दिया.

‘‘आज अपने मुकदमे की फाइल उठाए कचहरी के चक्कर काटती मैं खुद एक मुकदमा बन गई हूं. आवाज लगाने वाले अर्दली, नाजिर, मुंशी, जज, वकील, प्यादा, गवाह सभी मेरी जिंदगी के शब्दकोश में छपे नए काले अक्षर हैं. रात के अंधेरे में मैं ने जज की तसवीर को अपनी पलकों से चिपका पाया है. न्यायाधीश बिक गया… बोली लगा दी चौराहे पर मेरी चंद ऊंची पहुंच के अमीर लोगों ने.

‘‘लानत है… यह सोचने भर से मुंह का स्वाद बिगड़ जाता है… भावनाओं के भंवर में डूबतीउतराती कभी सोचती हूं मेरा दोष ही क्या था, जिस की उम्रकैद की सजा मिली मुझे और फांसी पर लटकी मेरी खुशियां?’’ न चाहते हुए भी फाड़ कर फेंक देने का जी चाहता है उन बड़ीबड़ी, लाल, काली किताबों को, जिन में जिंदगी और मौत के अंधे नियम छपे हैं… निर्दोषों को सजा और कुसूरवारों को खुलेआम मौज करने की आजादी देते हैं. जीने के लिए संघर्ष करती औरत का अस्तित्व क्यों सदियों से गुम होता रहा है. समाज की अनचाही चिनी गई बड़ीबड़ी दीवारों के बीच?’’

‘‘एक निजी प्रश्न पूछूं इशिता?’’

‘‘हूं… पूछो.’’

‘‘जिंदगी में फिर कोई हमसफर नहीं मिला? मेरा मतलब है पुनर्विवाह का विचार फिर कभी मन में नहीं आया?’’ मैं ने उसे चुभते प्रश्नों के जंगल में भटकने के लिए छोड़ दिया था.

‘‘मिला था. अभिनंदन… मेरे अधीनस्थ

काम करता था. कोर्टकचहरी की भागदौड़ से

ले कर बैंक से रुपए निकलवाने में उस ने मेरी मदद की थी. उस के साथ रह कर लगा

इंसानियत अभी मरी नहीं है… अभिनंदन जैसे लोगों के मन में बसती है. विश्वास करने का मन किया था उस पर… सच पूछो तो उस के साथ एक बार फिर घर बसाने का विचार भी आया था मन में.

‘‘लेकिन वह भी मेरा भ्रम था. अपनी उच्चाकांक्षाओं के चलते उस ने अपने सहकर्ताओं से पहले प्रौन्नति पाने के लिए मेरा जीभर कर इस्तेमाल किया… बौस यानी बेताज बादशाह, जिसे चाहे नौकरी पर रखे, जिसे चाहे निकाले… महिला मंडल में हर समय फुसफुसाहट होती… पुरुष वर्ग खुल्लमखुल्ला फबतियां कसता कि अभिनंदन की तो लौटरी लग गई… हम से जूनियर है और प्रगति हम से अधिक कर गया… भई जिस के ऊपर बौस का वरदहस्त हो उस की आनबानशान के क्या कहने. अभिनंदन खिसियानी हंसी की आड़ में यह कटुता झेल जाता पर मेरा मन उस के प्रति दया से द्रवीभूत हो उठता. अजीब हैं ये लोग, कैसीकैसी बातें करते हैं?’’ एक दिन मैं ने दुखी हो कर कहा.

‘‘इशिताजी जलते हैं ये लोग हमारे रिश्ते से. सब को तो आप के जैसी सुंदर, सुगढ़ प्रेयसी नहीं मिलती न.’’

‘‘उस के इन शब्दों को सुन कर मैं सहज भाव से सोचने लगती कि कितना निर्मल हृदय है अभिनंदन का… जमाने के उतारचढ़ाव से अनजान.

‘‘एक दिन मैं ने विवाह जैसे गंभीर विषय को ले कर उस से बात की तो वह

तुरंत टाल गया. फिर कभी गांव जाने का बहाना, कभी मां से अनुमति लेने का बहाना बनाता रहा. एक दिन मैं ने बहुत जोर दिया तो फिर विद्रूप सा बोला कि किस गलतफहमी में जी रही हैं इशिताजी? आप ने कैसे सोच लिया कि मैं आप जैसी तलाकशुदा और 1 बेटे की मां से शादी करूंगा? मेरा रिश्ता पिछले साल मेरी बचपन की मित्र सोनाली से तय हो चुका है… सिर्फ इंतजार कर रहा था, कब मेरी प्रमोशन हो और मैं शादी के कार्ड छपवाऊं?

‘‘चीखचीख कर रोने को मन करने लगा. गले से घुटती सी आवाजें निकलने लगीं… चीख ने घुटती आवाजों का रूप ले लिया… उस शातिर इंसान ने एक निष्पाप मन को अपमानित किया था… वह सीधासरल नहीं, बल्कि वस्तुस्थिति से अनभिज्ञ दिखने की चेष्टा करता रहा था. लगा उसी वक्त अपने तेज नाखूनों से उस का मुंह नोच डालूं… वह मुझे दलदल में धकेलता गया और मैं जान तक नहीं पाई.

‘‘कितने दिनों तक घर का दरवाजा बंद कर के रोती रहती थी… लगता रोने के लिए यह जगह बेहद सुरक्षित है, न कोई देखने वाला… किसी को दिखाना भी नहीं चाहती थी. लेकिन धीरेधीरे मेरे आंसू थम गए. सोचती, घर के बाहर मैं सीना तान कर, सिर उठा कर चलती हूं, लेकिन घर आ कर मुझे क्या हो जाता है? बाहर निकल कर ये आवाजें दीवारों, खिड़कियों, दरवाजों से टकराएंगी, फिर यंत्रवत यहांवहां फैले शोर में घुलमिल जाएंगी. घुटती आवाजें जब बंद हो जाएंगी तब सीने से दर्द का यह सैलाब मुझे नीचे से ऊपर तक झकझोर देगा और मैं भंजित प्रतिमा की तरह बिखरती जाऊंगी… नहींनहीं मुझे बिखरने का अधिकार नहीं… हालांकि दुनिया चाहती है कि कब मैं गिरूं और वह तमाशा देखे. मेरे फिसल कर गिर जाने से, मेरे अंगभंग हो जाने से न जाने कितने दिलों और दिमागों को सुकून मिलेगा… लेकिन ऐसा होगा नहीं. मेरे पैर चलतेचलते इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि लड़खड़ा कर भी मुझे गिरने नहीं देते… ठोकरें पड़ी हों तो उन को भी झेल लेते हैं, धरती से मुझे प्यार है और धरती पर पुष्पों का सपना बेमानी हो गया है.’’

इशिता मेरे साथ बाहर दालान में आ गई. बागीचे के फूलों की ताजगी उस के भीतर प्रविष्ट हो उसे अलौकिक आनंद दे रही थी… सुखद हो संघर्षमयी इशिता की यात्रा, इसी कामना के साथ मैं उठ खड़ी हुई.

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