‘‘मम्मी,मेरा दोष क्या था जो कुदरत ने मेरे साथ इतना क्रूर मजाक किया?’’ नंदिता अपनी मां से रोरो कर पूछ रही थी. उस के रुदन से मां का कलेजा फटा जा रहा था. वे क्या जवाब दें? बेटी का दुख इस कदर हावी हो रहा था कि जैसे उन के खुद के प्राण न निकल जाएं. बूढ़ी हड्डियां कितना सहन करेंगी? पिता का भी वही हाल था. भाईबहन सभी की आंखें गीली थीं. सभी उसे धैर्य बंधा रहे थे. मगर वह थी कि रोना बंद करने का नाम नहीं ले रही थी.
नंदिता की यह दूसरी शादी थी. पहले से उसे एक लड़की मीना थी. वह 5 साल की रही होगी जब उस के पिता एक ऐक्सीडैंट में गुजर गए. नंदिता के लिए इस हादसे को सह पाना आसान न था. मात्र 30 साल की होगी नंदिता, जब उसे वैधव्य का असहनीय दुख झेलना पड़ा. गोरीचिट्टी, तीखे नैननक्श वाली नंदिता में चित्ताकर्षण के सारे गुण थे. खूबसूरत इतनी थी कि जो उसे एक बार देखे बस देखता ही रह जाए. उस का पहला पति अक्षय एक निजी कंपनी में उच्चाधिकारी था. कार, फ्लैट, आधुनिक सुखसुविधा का सारा सामान घर में मौजूद था. अक्षय उसे बेहद प्यार करता था. वह अपने छोटे से परिवार में खुश थी कि एक दिन उस के ऐक्सीडैंट की खबर ने नंदिता की खुशियों पर ग्रहण लगा दिया. सहसा उसे विश्वास नहीं हुआ. अक्षय की लाश के पास बैठ कर वह बारबार उस से उठने को कहती. इस हृदयविदारक दृश्य को देख कर सब की आंखें नम थीं. किसी तरह लोगों ने नंदिता को संभाला.
वक्त हर जख्म को भर देता है. ऐसा ही हुआ. नंदिता ने एक निजी कंपनी में नौकरी कर ली. वह धीरेधीरे अतीत के हादसों से उबरने लगी. अब सबकुछ सामान्य हो चुका था. मगर उस के मांबाप को चैन नहीं था. वे उस की पहाड़ जैसी जिंदगी को ले कर चिंताकुल थे. वे चाहते थे कि नंदिता की दूसरी शादी हो जाए ताकि उस की जिंदगी में आया सूनापन भर जाए. कब तक अकेली रहेगी? क्या अकेले जिंदगी काटना एक स्त्री के लिए आसान होगा? माना कि वह अपने पैरों पर खड़ी है फिर भी जब काम से घर आती तो अपनेआप में खोई रहती. न किसी से ज्यादा बोलना न किसी से जिरह करना. यकीनन अकेलापन उसे अंदर ही अंदर बेचैन किए हुए था. भले ही जाहिर न करे पर क्या मांबाप की अनुभवी नजरों से छिप सकता है? वे बेटी की दुर्दशा देख कर गहरी वेदना से भर जाते.
ये सब देख कर एक दिन पिता ने नंदिता से कहा, ‘‘हम तुम्हारी दूसरी शादी करना चाहते हैं.’’
यह अप्रत्याशित था नंदिता के लिए. फिर भी इस का जवाब देना था. अत: वह बोली, ‘‘मेरी बेटी का क्या होगा? मैं उसे आप लोगों पर छोड़ कर ब्याह रचाऊं यह मेरे लिए संभव नहीं है.’’
‘‘अगर लड़का तुम्हारी बेटी को अपनाने के लिए तैयार हो जाए तब क्या स्वीकार करोगी?’’
‘‘ऐसे कैसे हो सकता है जो किसी और से पैदा बेटी को अपनी बेटी माने?’’
‘‘सब एकजैसे नहीं होते. एक ऐसा ही रिश्ता आया है. लड़के को कोई एतराज नहीं है. वह सरकारी नौकरी में है. पहली पत्नी से
2 संतानें हैं. एक 15 साल का बेटा और एक 10 साल की बेटी है,’’ पिता बोले.
‘‘उन के पालने की जिम्मेदारी मेरी होगी?’’
‘‘पालना क्या है… दोनों अपने पैरों पर खड़े हैं. सिर्फ साथ की बात है, जिस की तुम दोनों की जरूरत है.’’
पिता के कथन पर नंदिता ने सोचने के लिए समय मांगा. उस ने हर तरीके से सोचा. फिर इस फैसले पर पहुंची कि उसे शादी कर लेनी चाहिए. इस से जहां उस के मांबाप की चिंता कम होगी, वहीं उसे भी आर्थिक सुरक्षा मिलेगी. मांबाप, कब तक जिंदा रहेंगे. भैयाभाभी का क्या भरोसा? कल वे बदल गए तो क्या बेटी को ले कर जीना आसान होगा?
नंदिता की रजामंदी के बाद एक दिन उस के औफिस में उस का भावी पति विश्वजीत उसे देखने आया. सांवला रंग, सामान्य कदकाठी, सिर पर नाममात्र बाल. नैननक्श ऐसे मानों 19वीं सदी के हों. नंदिता को वह जमा नहीं. उस का पहला पति बेहद स्मार्ट था. एमबीए किया. वहीं विश्वजीत देखने से ही सरकारी विभाग का बाबू लग रहा था. न ढंग से कपड़े पहने था न ही बातचीत में स्मार्टनैस की झलक थी. उस का मन उदास हो गया. विधवा न होती तो आज भी उस के लिए कुंआरों की कमी न थी.
‘‘आप का नाम नंदिता है?’’ विश्वजीत ने पूछा.
‘‘जी,’’ नंदिता मुसकराई.
‘‘मेरा नाम विश्वजीत है. अगर आप को एतराज न हो तो आज शाम किसी रैस्टोरैंट में चलते हैं.’’
कुछ देर के लिए नंदिता हिचकिचाई. फिर खुद को संयत कर उस से क्षमा मांग कर एकांत में आई. अपनी मां को फोन लगाया. मां ने उस के साथ जाने की इजाजत दे दी. न चाहते हुए भी वह विश्वजीत के साथ रैस्टोरैंट में गई.
कौफी के शिप के बीच विश्वजीत बोला, ‘‘क्या आप शादी के लिए तैयार हैं?’’
नंदिता के सामने दूसरा कोई चारा न था. उसे लगा रंगरूप अपनी जगह है. मगर जिंदगी जीने के लिए एक पारिवारिक व्यक्ति होना बेहद जरूरी है, साथ में उस का आर्थिक भविष्य भी सुनिश्चित हो. यही सब सोच कर उस ने उस के रंगरूप को नजरअंदाज कर दिया.
‘‘मु झे अपनी बेटी की फिक्र है. क्या उसे आप पिता का नाम देंगे?’’ नंदिता के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ थीं.
‘‘क्यों नहीं? जब आप मेरे बेटेबेटी को मां का प्यार देंगी तो मैं भला क्यों पिता के फर्ज से विमुख होऊंगा? आप की बेटी मेरी बेटी होगी. भरोसा रखिए मैं आप को शिकायत का मौका कभी नहीं दूंगा.’’
‘‘मु झे अलग से कुछ नहीं चाहिए. मैं सिर्फ इस बात के लिए आश्वस्त होना चाहूंगी कि आप अपने और मेरे में कोई भेद नहीं करेंगे.’’
‘‘ऐसा ही होगा,’’ विश्वजीत मुसकराया.
नंदिता को विश्वजीत के कथन में सत्यता नजर आई. सो शादी के लिए हां कर दी.
शादी संपन्न हो गई. नंदिता ने नौकरी छोड़ दी. धीरेधीरे उस ने खुद को नए
माहौल के अनुरूप ढाल लिया. विश्वजीत के लिए वह किसी हूर से कम नहीं थी. करीबियों को छोडि़ए उस के दूरदूर के रिश्ते में नंदिता जैसी कोई खूबसूरत महिला नहीं थी. इसी के बल पर वह विश्वजीत के दिल पर राज करने लगी. विश्वजीत की हालत यह थी कि जब उसे नंदिता धकेलती तब कहीं औफिस जाता वरना उसी के मोहपाश में बंध कर समय काटना उसे अच्छा लगता. औफिस जाता तो भी नंदिता को 10 बार फोन लगा कर अपना हाल ए दिल बयां करता रहता.
2 साल गुजर गए. इस बीच वह एक लड़के की मां भी बन गई. बच्चा दोनों की सहमति से पैदा हुआ. नंदिता के लिए यह अच्छी खबर थी. एक लड़की तो थी ही. अब वह एक लड़के की भी मां बन गई. बच्चे की मां बनते ही नंदिता का पूरा ध्यान उसी पर लग गया.
लड़का पूरी तरह अपनी मां पर गया था. एकदम गोरा था. कहीं से नहीं लगता था कि वह विश्वजीत का बेटा है. ऐसा बेटा पा कर विश्वजीत निहाल था. यों बेटे का नाम सुबोध रखा.
एक दिन विश्वजीत की बड़ी बहन सुमन हालचाल लेने के लिए आई. जब तक विश्वजीत की दूसरी शादी नहीं हो गई थी तब तक घर की देखभाल वही करती थी. जब शादी हो गई तो आनाजाना कम कर दिया. उस का अपना भी परिवार था. विश्वजीत का हाल लेने के बाद वह विश्वजीत की पहली पत्नी से पैदा बेटे अंकित और बेटी अनुराधा के कमरे में आई. विश्वजीत नंदिता के साथ नीचे रहता तो उस की दोनों संतानें दूसरी मंजिल पर.
‘‘पढ़ाईलिखाई कैसी चल रही है?’’ कमरे में घुसते ही विश्वजीत की बहन ने पूछा.
दोनों बच्चे अपनी पढ़ाई छोड़ कर बूआ की तरफ मुखातिब हो गए.
‘‘ठीक चल रही है,’’ अंकित बोला.
‘‘क्या बात है तुम्हारी आवाज इतनी दबी क्यों है? सब ठीक तो है?’’ सुमन ने भांप लिया. उस ने फिर पूछा, ‘‘नई मां कैसी हैं?’’
अंकित सम झदार था, इसलिए कुछ नहीं बोला.
वहीं अनुराधा बोल पड़ी, ‘‘पापा, ऊपर बहुत कम आते हैं. ज्यादातर नीचे नई मां और बच्चे के साथ रहते हैं. पहले रोज हमारे लिए बाजार से कुछ न कुछ लाते थे, अब सिवा डांटने के उन्हें कुछ नहीं सू झता.’’
सुन कर सुमन को दुख हुआ. उसे अपने ही बच्चे पराए लगने लगे? ऐसा होना स्वाभाविक था. मगर इस कदर अपने बच्चों से बेखबर हो जाएगा, इस की कल्पना उस ने नहीं की थी. सुमन को विश्वजीत का दोबारा बाप बनना नागवार गुजरा. जब पहले से ही 2 संतानें थीं, नंदिता की जोड़ें तो 3 उस पर एक और बेटा लाना कहां की सम झदारी थी? सुमन को विश्वजीत मूर्ख लगा, जो अपनी बीवी के रंगरूप में ऐसा डूबा कि सहीगलत का फैसला भी नहीं कर पाया. सुमन पहले से ही उस के इस फैसले से खिन्न थी.
एक बार सोचा विश्वजीत से इस संदर्भ में बात करे. उसे दुनियादारी सिखाए पर फिर अगले ही पल सोचा यह उन लोगों का आपसी मामला है. बिना वजह बुरा बनेगी. विचारप्रक्रिया बदली तो सोचा उन का आपसी मामला बता कर क्या वह अपनी जिम्मेदारी से नहीं भाग रही?
क्या उस का इस परिवार पर कोई हक नहीं? सगी बहन है कोई सौतेली मां नहीं. जब कोई नहीं था तब तो उसी ने अपने परिवार का हरज कर के विश्वजीत का घर संभाला. अब उन का आपसी मामला बता कर किनारा कर ले? उस का मन नहीं माना. उसे अंकित और अनुराधा की फिक्र थी. इसलिए विश्वजीत को रास्ते पर लाना जरूरी लगा.
‘‘विश्वजीत, आजकल तुम अपने बच्चों पर ध्यान नहीं दे रहे हो? वे बेचारे खुद को उपेक्षित महसूस करते हैं.’’
‘‘अपने बच्चे? यह क्या कह रही दीदी? क्या नंदिता के बच्चे मेरे अपने बच्चे नहीं हैं?’’
‘‘मैं ने यह कब कहा? मगर तुम्हें उन पर विशेष ध्यान देना चाहिए क्योंकि वे बिन मां के हैं.’’
विश्वजीत को सुमन की बात बुरी लगी.
सुमन आगे बोली, ‘‘सुना है तुम ने अनुराधा का नाम पहले वाले स्कूल से कटवा कर उसे एक छोटे से स्कूल में डलवा दिया है?’’
दूसरे कमरे में अपने नवजात को दूध पिलाते हुए नंदिता सारी बातें सुन रही थी. एक बार सोचा इस का प्रतिकार करे, मगर भाईबहन का आपसी मामला सम झ कर चुप रही.
‘‘स्कूल इसलिए छुड़वा दिया क्योंकि उस की फीस बहुत ज्यादा थी. अंकित का पढ़ाई में मन नहीं लग रहा था. ऐसे में बिना वजह महंगे स्कूल में डालने का क्या औचित्य है?’’
‘‘इसीलिए सस्ते स्कूल में डलवा दिया?’’ सुमन के स्वर में व्यंग्य का पुट था, ‘‘तुम उस की पढ़ाईलिखाई पर ध्यान देते तो वह कमजोर नहीं होती. तुम्हारा सारा ध्यान नंदिता के इर्दगिर्द रहता है.’’
सुमन का कथन विश्वजीत को शूल की तरह चुभ गया. अत: गुस्से में बोला, ‘‘दीदी, बेहतर होगा तुम इस पचड़े में न पड़ो. नंदिता मेरी पत्नी है. मैं उस का ध्यान नहीं रखूंगा तो कौन रखेगा?’’
‘‘बीवी का खयाल है अपने खून का नहीं?’’ सुमन तलख स्वर में बोली, ‘‘अब मैं तुम्हारे घर कभी नहीं आऊंगी. अंकित और अनुराधा को नहीं पाल सकते तो मेरे यहां छोड़ देना. मैं देख लूंगी,’’ कह कर सुमन चली गई.
विश्वजीत खून का घूंट पी कर रह गया. उस का मन किया कि सुमन को खूब खरीखोटी सुनाए, मगर हिम्मत नहीं हुई.
उस दिन पतिपत्नी दोनों में इस बात को ले कर खूब कहासुनी हुई. नंदिता कहने लगी, ‘‘मैं ने सपने में भी न सोचा था कि तुम्हारे बच्चे इस हद तक जा सकते हैं? क्या जरूरत थी सुमन दीदी के कान भरने की? क्या नहीं उन्हें यहां मिल रहा है? लगाईबु झाई करना कोई इन से सीखे,’’ और फिर वह मुंह फुला कर बैठ गई.
विश्वजीत को काफी देर तक उसे मनाना पड़ा. तब जा कर मानी.
उधर सुमन का मन विश्वजीत के रवैए से खिन्न था. नंदिता का रंगरूप इस कहर हावी हो गया कि अपना खून ही बेगाना लगने लगा. नंदिता की बेटी को अच्छे से अच्छे कपड़े लाना, बड़े स्कूल में दाखिला दिलाना, बाजार, मौल घूमना, उस की उलटीसीधी हर मांग पूरी करना, प्यारदुलारमनुहार सब नंदिता के ही परिवार तक सिमट गया.
विश्वजीत के व्यवहार में आए इस परिवर्तन से उस की सभी बहनें उस से कटने लगीं. मगर विश्वजीत को कोई फर्क नहीं पड़ा. उस के लिए नंदिता ही सबकुछ थी. नंदिता ने इस का भरपूर फायदा उठाया. विश्वजीत के मकान पर नंदिता का नाम चढ़ गया. औफिस में पत्नी की जगह नंदिता का नाम हो गया. ये सब नंदिता ने खुद को आर्थिक रूप से सुरक्षित करने के लिए किया.
अंकित से कुछ भी छिपा न था. राखी के दिन जब वह सुमन के घर आया तो सारी बातों का खुलासा कर दिया. सारी बात जानने के बाद वह बोली, ‘‘नंदिता ने अच्छा नहीं किया. आते ही तुम्हारी मां के सारे गहने ले लिए. अब धीरेधीरे हर चीज पर कब्जा करती जा रही है.’’
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मां का जिक्र आते ही अंकित की आखें भर आईं. भरे कंठ से बोला, ‘‘मां होतीं तो ये सब न होता.’’
‘‘सब समय का खेल है. कल विश्वजीत के लिए तुम्हारी मां ही सबकुछ थी. बदलाव आता है, मगर विश्वजीत इतना बदल जाएगा, मु झे सपने में भी भान नहीं था. खैर छोड़ो, तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है?
‘‘जल्दी से पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़े हो जाओ… सब ठीक हो जाएगा.’’
‘‘बूआजी, मु झे अनुराधा की फिक्र होती है. सोचता हूं जितनी जल्दी हो सके मैं कमाने लायक हो जाऊं ताकि उस की अच्छी शादी कर सकूं.’’
अंकित की बातों से लगा सचमुच वह सम झदार हो गया है. सुमन का मन भर आया.
अंकित ने सिविल सर्विसेज की तैयारी की और उस में सफल हो गया. उस के नौकरी पा जाने पर नंदिता ज्यादा खुश नहीं थी. उस की नजर में अंकित औसत बुद्धि का लड़का था. वहीं विश्वजीत खुश था. नंदिता को लगा विश्वजीत का झुकाव कहीं अंकित की तरफ न हो जाए, इसलिए तंज कसने से बाज नहीं आती.
सबकुछ ठीकठाक चल रहा था कि एक दिन मनहूस खबर आई कि
विश्वजीत को फूड पौइजनिंग हो गया है. वह शहर से 100 किलोमीटर दूर एक गांव में शादी अटैंड करने अकेला गया था. वहीं पर उसे फूड पौइजनिंग हो गया. तब तक काफी देर हो चुकी थी. वह रास्ते में ही चल बसा.
अंकित फैजाबाद में पोस्टेड था. भागाभागा आया. पिता की लाश देख कर फूटफूट कर रोने लगा. आज पहली बार उसे लगा कि वह सचमुच अनाथ हो गया.
पिता के सारे क्रियाक्रम करने के बाद वह वापस जाने लगा तो नंदिता के पास आया. बोला, ‘‘मम्मी, आप यह मत सम िझएगा कि आप अकेली हो गईं. मैं हमेशा आप के साथ रहूंगा. मोना की शादी मेरे हिस्से की जिम्मेदारी है. जैसे अनुराधा वैसी मोना. मैं आप को शिकायत का मौका नहीं दूंगा.’’
अचानक नंदिता फफकफफक कर रो पड़ी. वहां बैठे सब के सब अचंभित.
अंकित पास बैठी सुमन से बोला, ‘‘बूआ, मां को देखिए क्या हो गया?’’
एकबारगी सुमन को लगा क्यों वह उस से सहानुभूति जताने जाए… जैसा किया वैसा भुगते.
बूआ की दुविधा अंकित ने भांप ली. उसे अच्छा नहीं लगा. जो भी हो वह उस की मां है. क्या उन्हें मं झधार में छोड़ कर यों चले जाना उचित होगा? उन्हें दोबारा वैधव्य की पीड़ा झेलने पड़ी, इस से बड़ा दंड क्या हो सकता है कुदरत का एक स्त्री के लिए?
‘‘मु झे क्षमा कर दें. मैं स्वार्थ में अंधी हो गई थी. मु झे नहीं पता था कि जिस के साथ भेदभाव कर रही हूं वह मेरे बेटे से भी बढ़ कर होगा.’’
नंदिता का इतना भर कहना था कि सब के मन के भाव एकाएक बदल गए. सुमन को अब भी नंदिता के व्यवहार में आए परिवर्तन पर भरोसा नहीं था. उसे यही लग रहा था कि उस ने वक्त की नजाकत सम झ कर अपना पैतरा बदल लिया है. फिर एकांत में ले जा कर अंकित को सम झाने का प्रयास किया.
‘‘नहीं बूआजी, उन का अब मेरे सिवा कोई नहीं है. उन्होंने चाहे जैसा भी व्यवहार मेरे साथ किया हो मैं अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होऊंगा.’’
सुमन को अंकित का कद उस से भी बड़ा नजर आने लगा. वह इंसान नहीं साक्षात फरिश्ता लगा उसे. वह भावविभोर हो उठी.
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