कैंसर की तरह परिवार में फैलता अलगाव

हिंदी फिल्मों में से आजकल परिवार उसी तरह गायब हो गया है जैसे काफी समय से हौलीवुड की फिल्मों से हुआ है. हौलीवुड की फिल्मों में अब मारधाड़, स्पैशल इफैक्ट, स्पीड, तरहतरह की बंदूकें और स्पाइइंग ही दिखती है. भारतीय फिल्मों में बायोपिक बनने लगी हैं और जो परिवार दिखता है उन्हीं में होता है पर वे आमतौर पर एक पर्सनैलिटी पर केंद्रित रहती हैं. परिवार को सफल बनाने के लिए निरंतर पाठ पढ़ना जरूरी है. यह ऐसा नहीं कि विवाह करते समय किसी विवाह कराने वाले ने विवाह की शर्तें सुना दीं और हो गई इति. यह रोज का मामला है और रोज हर युगल के सामने एक नई चुनौती, एक नई समस्या, एक नई उपलब्धि, एक नया व्यवधान होता है और यदि आसपास के माहौल, समाचारों, पठनीय सामग्री, टीवी, फिल्मों में यह न दिखे तो वैवाहिक जीवन वैसे ही लड़खड़ाने लगता है जैसे विटामिनों की कमी के कारण शरीर.

लोग अब मैडिकल हैल्प के लिए डाक्टरों के पास ज्यादा जा रहे हैं बजाय फैमिली हैल्प के लिए जानकारी जुटाने या किसी विशेषज्ञ के पास. बढ़ते मानसिक रोगों और पारिवारिक तनाव का कारण यही है कि परिवार की सेहत का खयाल बिलकुल नहीं रखा जा रहा जबकि जिम जा कर शरीर की मेहनत पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है. यह फिल्मों में दिखने लगा है. अगर 1950-60 की फिल्में जम कर चलीं तो इसीलिए कि पतिपत्नी और बच्चों के परिवारों ने तब अचानक सदियों पुरानी संयुक्त परिवार प्रणाली से मुक्त हो कर राहत की सांस ली थी और वे अपने संबंधों को अपने अनुसार चलाने के तरीके ढूंढ़ रहे थे. तभी नई नौकरियों, बढ़ते शहरों, सहशिक्षा, दफ्तरों आदि में आदमियों और औरतों के मिलने, प्रेम विवाहों के कारण जो समस्याएं पैदा हो रही थीं लोग उन के हल खोज रहे थे. कुछ पत्रिकाओं और उपन्यासों में पाते थे तो कुछ फिल्मों में.

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पारिवारिक फिल्में मानसिक और पारिवारिक स्वास्थ्य के लिए बहुत जरूरी हैं और इन का कम बनना एक गंभीर चिंता का विषय है. पारिवारिक फिल्में चाहे परिवार को किसी भी ढंग से देखें कुछ सवालों के हल जरूर करता है. ब्लैक ऐंड व्हाइट फिल्मों की छद्म नैतिकता को चाहे हम पुरातनवादी और दकियानूसी कह लें पर कम से कम वे कुछ सवालों के जवाब तो देती थीं. ‘दंगल’ जैसी सफल फिल्में चाहे परिवार से बहुत दूर नहीं हैं पर उन में परिवार की कम खिलाड़ी की अपनी समस्याओं की चर्चा ज्यादा है. परिवार पर व्यक्ति हावी रहे इस में किसी को आपत्ति नहीं पर व्यक्तित्व निखारने के लिए जो नींव चाहिए होती है वह परिवार ही देता है. हिंदी फिल्में अब अकसर दिखाने लगी हैं कि टूटा परिवार होता है तो कैसे रहते हैं पर उन में अपनी सफलता से जूझ रहे पात्र साथसाथ परिवार की समस्याओं से भी जूझ रहे होते हैं.

‘इंगलिशविंगलिश’ और ‘हिंदी मीडियम’ जैसी फिल्मों में परिवार के अच्छे चित्रण हैं और तभी बिना सितारों के भी ये चलीं. जो फिल्में अचानक सफल हुईं उन में अधिकांश में परिवार केंद्र में था और दर्शकों ने उन्हें हाथोंहाथ लिया. परिवार के प्रति उदासीनता दुनियाभर में बुरी तरह फैली है. सैल्फ डैवलपमैंट पर हजारों किताबें लिखी गई हैं. ‘मैं’ की महत्ता बहुत बढ़ी है पर इसी चक्कर में परिवारों के दीवाले निकल रहे हैं और बिना तलाक लिए भी पतिपत्नी और बच्चे मुंह फुलाए घूम रहे हैं. आमतौर पर लोगों के पास अपने दुख व्यक्त करने के शब्द ही नहीं होते. उन्हें समझ ही नहीं आता कि दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करें. वे अपनी धुन में मस्त रहते हैं और उसी को जीवन की सफलता मानते हैं पर कैंसर की तरह परिवार में फैलता अलगाव का ट्यूमर एक दिन अचानक फट जाता है. उस समय दवा नहीं मिलती सिर्फ या तो सर्जरी, रैडिएशन होती है या फिर मौत.

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