REVIEW: पैसे और समय की बर्बादी है फिल्म ‘दिल्ली कांड’

रेटिंगः एक स्टार

निर्माताः फैशन परेड फिल्मस

लेखक व निर्देशकः क्रिटिक कुमार

कलाकारः वीरेंद्र सक्सेना, काशवी कंचन, सैम संुडेसा, प्रीतिका चैहाण, रीम शेख, शशांक राठी, अमित शुक्ला,  शाहबाज बावेजा, राजेश सिंह, मोना मैथ्यू व अन्य.

अवधिः एक घंटा पचास मिनट

16 दिसंबर 2012 में राजधानी दिल्ली में हुए गैंगरेप यानी कि ‘निर्भया काड’पर 2014 के अंत में फिल्मकार क्रितिक कुमार ने फिल्म ‘‘दिल्ली कांड’’ के निर्माण की घोषणा की थी, जो कि 24 सितंबर को सिनेमाघरों में प्रदर्शित होगी.

कहानीः

गैंगरेप जैसे घिनौने और जघन्य अपराध पर बनी फिल्म‘‘दिल्ली कांड’’की कहानी दिल्ली के एक कालेज से शुरू होती है, जहां कुछ लड़के,  लड़कियों की रेगिंग कर रहे हैं. जब मासूम और आंखों में कई सपने लिए नई लड़की अलिश्का (काशवी कंचन) कालेज में प्रवेश  करती है, तो लड़कों का यह ग्रुप उसके साथ रैगिंग के नाम पर बदतमीजी करने का प्रयास करता है, पर ऐन वक्त पर समीर (सैम सुंडेसा) पहुंचकर उन लड़कों को डांटकर भगा देता है और अलिश्का उसी वक्त उसे अपना दिल दे बैठती है. अचानक एक रात एक विदेशी महिला के साथ चलती टैक्सी के अंदर गैगरेप की घटना घटती है. जिससे पूरी दिल्ली  वासियों के साथ आलिश्का की मां माधुरी (रीम खान) और पिता मनोज (वीरेंद्र सक्सेना) भी अपनी बेटी की सुरक्षा को लेकर परेशान हो जाते हैं. अलिश्का को अकेले कालेज से घर जाने में डर लगने लगता है. तब समीर खुद उसे अपनी मोटर सायकल पर बिठाकर  अलिश्का को रोज घर छोड़ने लगता है. एक दिन समीर अपने प्यार का इजहार कर देता है. एक दिन रात में सिनेमा देखकर निकले समीर व अलिश्का को द्वारिका के लिए रिक्शा नही मिलता है, तो वह एक बस में सवार हो जाते हैं. इसी चलती बस में रिजवान(शाहबाज बवेजा ) व छोटू सहित छह लोग समीर को अधमरा करने के साथ ही अलिश्का के साथ गैंगरेप करने के साथ उसकी जघन्य हत्या करने के बाद उसे नग्न कर सड़क वर समीर के साथ फेक देते हैं. इंस्पेक्टर पांडे(अमित शुक्ला)इस जघन्य गैंगरेप कांड की जांच शुरू करते हैं. अलिश्का व समीर को अस्पताल पहुंचाया जाता है.  टीवी पत्रकार रिया बत्रा (प्रीतिका चैहान)के साथ दूसरे पत्रकार इस कांड को लेकर सरकार,  मंत्री व गृह मंत्री(मोना मैथ्यू) की खिंचाई करते हैं. जनता सड़क पर उतर आती है. अंततः रिजवान सहित सभी छह आरोपी पकड़े जाते हैं. अलिश्का को इलाज के लिए सिंगापुर भेजा जाता है. पर उसकी मौत हो जाती है. अदालत सभी आरोपियों को फांसी की सजा सुनाती है.

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लेखन व निर्देशनः

इस फिल्म को देखकर एक कहावत याद आती है-‘‘बंदर के हाथ में उस्तरा. ’’जी हॉ! देश के सर्वाधिक चर्चित गैंगरेप पर फिल्म बनाते समय फिल्मकार क्रितिक कुमार ने बेसिर पैर की फिल्म बना डाली. यदि फिल्मकार थोड़ा भी समझदार होते तो उस वक्त के अखबारों को पढ़कर सही ढंग से कहानी व पटकथा लिख सकते थे. लेकिन अफसोस अति घटिया पटकथा के साथ अति घटिया निर्देशन के चलते फिल्म देखते हुए दर्शक अपना माथा पीटते हुए कह उठता है-कहां फंसायो नाथ. ’’फिल्म का क्लायमेक्स भी बहुत घटिया है. फिल्म मे प्यार व रोमांस को भी ठीक से चित्रित नहीं किया गया. फिल्मकार ने गैंगरेप को पूरे नौ मिनट तक विभत्स तरीके से दिखाया है. अफसोस की बात यह है कि संेसर बोर्ड ने भी इस घटिए दृश्य को नौ मिनट दिखाने के लिए हरी झंडी दे दी. गैंगरेप के दृश्य को देखकर दर्शक केे मन में बलात्कारियों के प्रति गुस्सा उभरना चाहिए,  दर्शक को गैगरेप पीड़िता के दर्द व पीड़ा का अहसास होना चाहिए, पर ऐसा कुछ नही होता. इतना ही नही इस गैंगरेप की अदालती काररवाही भी महज तीन मिनट में खत्म हो जाती है. फिल्म का क्लायमेक्स भी अतिघटिया है. फिल्म के संवादों का भी कोई स्तर नही है. दुःखद बात यह है कि इस फिल्म के निर्माण के लिए उत्तर प्रदेश के संस्थान ‘‘फिल्म बंधु’’से आर्थिक सहायता मिली है. फिल्म का लेखन, निर्देशन व तकनीकी पक्ष बहुत कमजोर है.

अभिनयः

फिल्म का एक भी कलाकार अपने अभिनय की छाप नही छोड़ पाता.

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