सोशल डिस्टेंसिंग के दबाव में कहीं गायब न हो जाएं खेल के मैदान!

पिछले कुछ दिनों में कई समाजशास्त्रियों ने फिल्मों के लिए अंगतरंगता दर्शाने की शूटिंग को लेकर आयी समस्या के बारे में लिखा है. साथ ही यह भी अनुमान लगाया गया है कि इस समस्या को तकनीक के जरिये किसी हद तक दूर कर दिया जायेगा. लेकिन अभी शायद समाजशास्त्रियों का ध्यान खिलाड़ियों की ओर नहीं गया. कोविड-19 के बाद जिन्हें अनगिनत किस्म के निर्देशों का पालन करना पड़ रहा है, जिसमें सबसे ज्यादा निर्देश दो खिलाड़ियों के आपस में एक दूसरे को स्पर्श करने को लेकर हैं.

यही कारण है कि जहां टेनिस और रैकेट आधारित दूसरे खेलों में खिलाड़ियों ने पिछले दिनों लाॅकडाउन के दौरान भी किसी हद तक मैदानी प्रैक्टिस की, वहीं पहलवान, बाॅक्सर, कबड्डी के खिलाड़ी, फुटबाॅलर और क्रिकेट जैसे खेल के  खिलाड़ियों को लाॅकडाउन के दौरान टेªनिंग जारी रखने में बहुत दिक्कतें आयी हैं. कारण यह कि इन तमाम खेलों में खिलाड़ी एक दूसरे को छुए बिना रह ही नहीं सकते. जिन देशों के खिलाड़ियों ने सख्ती से इन निर्देशों का पालन नहीं किया, वहां बड़ी संख्या में खिलाड़ी कोरोना पाॅजीटिव हो गये हैं. जैसे पाकिस्तान में 7 इंटरनेशनल और करीब 24 नेशनल स्तर के क्रिकेटर कोरोना पाॅजीटिव पाये गये हैं. अगर इनमें पूर्व खिलाड़ियों को जोड़ लें तो यह संख्या 100 के ऊपर जाती है.

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हमारे यहां फिलहाल संक्रमित खिलाड़ियों की संख्या तो बहुत नहीं है, लेकिन एक बात जो सिर्फ हमारे यहां ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में देखी जा रही है वह यह है कि कोविड-19 के बाद मैदान में किये जाने वाले अभ्यासों से ज्यादातर खिलाड़ी वंचित हैं, वे फुटबाॅल से लेकर क्रिकेट तक का इन दिनों स्क्रीन में आभासी अभ्यास कर रहे हैं जैसे- राहुल पटेल को लें. 16 साल के राहुल को उम्मीद थी कि इस साल वह मुंबई की तीन चार ट्राॅफियों में से किसी एक ट्राॅफी के लिए अपने स्कूल से जरूर खेलेगा. लेकिन लाॅकडाउन के चलते सारी योजनाएं धरी की धरी रह गई.

लाॅकडाउन और इसके बाद बढ़ते संक्रमण के कारण राहुल दोस्तों के साथ मुंबई के आझाद मैदान जाकर पै्रक्टिस भी नहीं कर पा रहा. वह इन दिनों दिनरात सिर्फ अपने लैपटाॅप के स्क्रीन में ही बाॅलिंग से लेकर बैटिंग तक का कृत्रिम अभ्यास कर रहे हैं. यह सिर्फ राहुल का किस्सा नहीं है तमाम उभरते हुए, उभरे हुए और स्थापित खिलाड़ियों का भी यही हाल है. हालांकि अनलाॅक 2.0 के बाद अब ज्यादातर जगहों में पार्क खोल दिये गये हैं, लेकिन स्टेडियमों के दरवाजों में अभी भी या तो ताले पड़े हैं या वहां कोई आ ही नहीं रहा. ऐसे खिलाड़ी जो अभ्यास कर रहे हैं, वह वास्तविक नहीं, एक वर्चुअल अभ्यास है. हालांकि अब आभासी खेल पहले जैसे नहीं रहे. कुछ साल पहले तक खेलने वाले को ही तय करना होता था कि वह हारे या जीते. प्रतिद्वंदी टीम को जिताये या खुद की टीम को. लेकिन अब ये वर्चुअल खेल इतने सरल रैखिक नहीं रहे.

अब माउस के जरिये स्क्रीन में धमाल मचाने वाले क्रिकेट और फुटबाॅल के तमाम ऐसे कंप्यूटर गेम्स हैं जिनमें यह नहीं तय किया जा सकता कि खेलने वाला हारे या जीते. जी हां, आप सही समझ रहे हैं, ये आर्टिफिशियल गेम भी अब धीरे धीरे वास्तविक खेलों की तरह अनप्रिडेक्टेबल होने की तरफ बढ़ रहे हैं यानी भले आप अपनी अंगुलियों के इशारे से स्क्रीन में फुटबाॅल के खिलाड़ियों को नचाते हों, लेकिन तमाम ऐसे गेम्स आ चुके हैं, जिनमें आप पहले से यह तय नहीं कर सकते कि कौन जीतेगा? कुल मिलाकर बात यह है कि अब ये कंप्यूटर गेम्स निरानिर आर्टिफिशियल नहीं रहे बल्कि इनमें आर्टिफिशियल रियलिटी कहीं ज्यादा मुखर हो गई हैं. पर सवाल है क्या जल्द ही वो दिन आने वाले हैं जब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंसी या आईआर वास्तविकता पर विजय पा लेगी? यानी खिलाड़ी आभासी अभ्यासों के चलते वास्तविक अभ्यासों को टाटा टाटा, बाय बाय कर देंगे?

दूसरे शब्दों में कहें तो क्या एक दिन ऐसा भी आने वाला है जब हमें हाड़मांस के खिलाड़ियों को मैदान में गेंद और बाॅल के लिए जूझते देखने जैसा रोमांच विद्युत तरंगों के जरिये स्क्रीन पर बनने वाले आभासी खिलाड़ियों को भी देखकर होगा? अगर और सरल शब्दों में कहें तो क्या एक दिन वास्तविक खेलों को आभासी खेल बेदखल कर देंगे? अगर बहुत गहराई से देखें तो कहना होगा कि कई मायनों में ऐसा होगा नहीं बल्कि पहले ही हो चुका है.

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यदि आप आईरेसिंग जैसी प्रणालियों को नियमित देखते हों तो आपको एहसास होगा कि हाल के सालों में कैसे साल दर साल रफ्तार की एक नाजुक भौतकी ने अपना मजबूत अस्तित्व ग्रहण कर लिया है, जिसके चलते हम जानते बूझते हुए भी बार बार इस भ्रम के शिकार होने के लिए बाध्य हैं कि रेसिंग की रफ्तार नियंत्रित मशीनों की रफ्तार है या किसी भी तरह का जोखिम लेकर रफ्तार के असंभव का रोमांच पैदा करने वाले किसी इंसान की यानी जीते, जागाते, हाड़मांस वाले रेसर का कमाल है? हालांकि अभी पूरी तरह से संतुष्ट करने वाली कोई कृत्रिम तकनीक सौ फीसदी सच का भ्रम करने वाला जादू नहीं पैदा कर सकीं, कम से कम उन लोगों के लिए तो नहीं ही, जो इसके जानकार हैं.

लेकिन जिस तेजी से तकनीक की जीवंतता और इंसान का मशीनीपन बढ़ता जा रहा है,उसको देखते हुए तो यही लग रहा है कि आने वाले दिनों में पार्कों, मैदानों, स्टेडियमों और अपने कोटयार्ड तक में खेले जाने वाले वास्तविक खेलों को स्क्रीन में खेले जाने वाले कृत्रिम खेल जीवंतता और एहसास के स्तर पर पीछे छोड़ देंगे. लगता है बहुत जल्द वे दिन आने वाले हैं, जब कोई डिजिटल फुटबाॅल मैच देखते हुए लोगों के कलेजे धड़केंगे और हार जीत पर जबरदस्त भावनाएं आहत होंगी. क्योंकि तब ये हार जीत माउस से मैच नियंत्रित करने वाले के हाथ में नहीं होगा. तब यह अंजाने नतीजे के रूप में टपकेगा.

यूं तो कंप्यूटर आर्टिफिशियल गेम्स पहले से ही इस तरह की सनसनी लगातार पैदा कर रहे थे. लेकिन कोरोना के विश्वव्यापी संक्रमण ने लोगों को जब से घरों में कैद किया है या कैद मुक्त होने के बाद भी घरों तक सीमित कर दिया है, तब से आर्टिफिशियल गेम्स के प्रति लोगों का विशेषकर नयी पीढ़ी का रूझान कुछ ज्यादा ही हो गया है. …और हम सब जानते हैं कि जिस गतिविधि पर ज्यादा से ज्यादा लोग फोकस कर रहे होते हैं, वह गतिविधि जल्द से जल्द अपने प्रयोगों और सफलताओं की नयी ऊंचाईयों को छूती है. जब से लोग घरों में कैद हैं, वास्तविक गतिविधियां अवरूद्ध हैं, तब से बहुत तेजी से आभासी गतिविधियां नयी ऊंचाईयां छू रही हैं. यह स्वभाविक ही है. ऐसे में ये सवाल भी लगता है, अब वक्त गुजर जाने के बाद पूछे जा रहे हैं कि क्या एक दिन खेलों की वास्तविक गतिविधियों को वर्चुअल गतिविधियां बेदखल कर देंगी?

लगता है वो दिन दूर नहीं जब वास्तविक खेलों की जगह वर्चुअल खेल ले लेंगे. वर्चुअल रियलिटी ने वैसे भी जिंदगी के ज्यादातर क्षेत्रों में जबरदस्त असर डाला है. इससे लगता है कि अगर वास्तविक खेल पूरी तरह से समाप्त नहीं होंगे, तो भी ये कृत्रिम खेलों के लिए अपने हिस्से की बड़ी जगह छोडेंगे. दुनिया के ज्यादातर तकनीकी के विशेषज्ञ खासकर गेमिंग तकनीक के जानकार दावे के साथ कहते हैं कि अंततः आभासी वास्तविकता गेमिंग और तकनीकी के दूसरे क्षेत्रों में छा जायेगी. साल 2016 में पहली बार हेड फोन के जरिये वर्चुअल गेम्स ने एहसास और रोमांच की बिल्कुल वास्तविक सी लगने वाली ऊंचाईयां छुई थीं. सच बात तो यह है कि तभी से वर्चुअल रियलिटी को वह भव्यता और सम्मान मिला था, आज वह जिसके लिए जानी जा रही है.

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कुल मिलाकर जिस तरह से आर्टिफिशियल इंटेलीजेंसी ने नकली और असली के बीच दूरी मिटायी है, जिस तरह से नकली गतिविधियां बेहद जीवंत गतिविधियों में बदली हैं, उससे यही लगता है कि आने वाले दिनों में शायद वर्चुअल गेम्स और ज्यादा मजबूत होंगे तथा मैदानी और जिस्मानी खिलाड़ियों के इंट्रैक्शन घटेंगे.

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