जब भी कौलेज के दिनों को याद करता हूं तो दिल और दिमाग मानों एक सैर पर निकल पड़ता हैं. एक ऐसी सैर पर जहां खट्टी-मीठी यादों के झरने है. उस समय के नए नए अनुभवों की वादियां हैं. कुछ उबड़ खाबड़,तो कुछ सुलझे हुए रास्ते हैं. परीक्षा के बादल हैं के तो उनमें उत्तीर्ण होने की खुशी की बारिश हैं और सबसे महत्वपूर्ण मेरी दोस्ती की फुलवारी हैं.
इस फुलवारी के तरह-तरह के फूल मानों मुझे मेरी उन तरह-तरह के दोस्तों की याद दिलाते हैं जिसने साथ मैंने कौलेज के वो स्वर्णिम दिन गुजारे थे. इस फुलवारी में फूलों का एक गुछ्छा भी है. जो मुझे उन लड़कियों की याद दिलाता हैं जिनसे मैं कौलेज के तीसरे वर्ष में मिला था. उनमें से कुछ मुझसे उम्र में छोटी तो कुछ मेरी उम्र की थी.
मैं अक्सर उनके होस्टल में शाम के समय में जाया करता था. जिस समय वो सभी होस्टल के प्रांगण में इकट्ठा होकर शाम की वंदना कर रही होती थी. उनकी वो सुरमयी और लय-बंद आवाज आज भी मुझे अच्छे से याद हैं. उन्हें भी मेरी आवाज अच्छे से याद होगी और शायद सिर्फ आवाज ही याद होगी क्योंकि वो सभी देख जो नहीं सकती थी.
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लोग कहते है कि दोस्ती हमेशा अच्छे से देख परख ही करनी चाहिए, लेकिन उन लड़कियां ने तो मुझसे बिना देखें ही दोस्ती कर ली थी. हां…मुझसे या शायद मेरी आवाज से क्योंकि मेरी आवाज ही तो थी जिसे वो उन दिनों शायद रोज ही सुनती थी या कह लो वो मेरी आवाज को पढ़ती थी. मेरी उनसे दोस्ती की कहानी कुछ इस तरह शुरु होती हैं.
ये बात जनवरी 2017 की हैं में इंदौर के SGSTIS कौलेज के तीसरे साल में था. मेरी आदत थी की मेरी जेब के खुल्ले पैसे मैं एक गुल्लक में जमा करता था और उसके भर जाने पर किसी अनाथ आश्रम में दान कर देता था. एक दिन उस गुल्लक में जमा पैसों को दान करने के लिए मैं अपने दोस्त के बताएं हुए अनाथ आश्रम के लिए निकला और खौजते खौजते मैं महेश दृष्टिहीन कल्याण संग जा पहुंचा. पूछने पर पता चला की वहां प्राथमिकी से लेकर कौलेज तक में पढ़ने वाली बच्चियां रहती थी. जिनमें से कुछ अनाथ भी थी. स्कूल स्तर की क्लास वहीं छात्रावास में हूं रहती थी और कौलेज स्तर की छात्राएं शहर के अलग-अलग कौलजों में सामान्य बच्चों के साथ ही पढ़ती थी.
मैं वहां की वार्डन दत्ता मैडम से मिला और बच्चों की सहायता करने के लिए कुछ पैसे देने की इच्छा बताई. उन्होंने मुस्कुराकर कहा- बेटा इन्हें पैसों की नहीं बल्कि किसी की समय की जरुरत है.
मैंने कहां- मतलब?
तो वो बोली- की इनके पास जरुरत की सभी चीजें हैं. कई लोग संस्थान में आकर इसी तरह दान करते हैं. लेकिन इन्हें जरुरत हैं की कोई अपना समय निकालकर इनकी पढ़ाई में मदद कर सकें.
पर फिर वही परेशानी समय ही नही मिलता था शनिवार ओर रविवार को कौलेज की छुट्टी रहती थी तो उन दोनों ही दिनों में सुबह से ncc की ड्रिल ओर बाकी एक्टिविटी होती थी. तो कभी क्लब की मीटिंग रहती थी.
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8 दिन बीत चुके थे,पर में उनमे से एक भी किताब रिकॉर्ड नही कर पाया था. अगले दिन शनिवार था, ड्रिल के बाद मैं सीधा Ncc office गया और दोपहर 12.30 से शाम के 7.30 बजे तक रिकौर्डिंग करता रहा. अगले दिन रविवार को भी इसी तरह से रिकॉर्डिंग की और इस तरह मैंने उनमे से एक किताब को पूरा किया.
उस रात अपने रूम पर जाते हुए मैंने सोचा कि इस तरह से तो में इस काम को नहीं कर पाऊंगा. क्योंकि इसमें रोज़ समय देने से मेरी खुद की पढ़ाई और बाकी चीज़े भी प्रभावित होंगी. उन छात्राओ को भी समय से उनकी किताब नहीं पहुंचा पा रहा था.
मैंने सोचा की उन छात्राओं को झूठे भरोसे में रखने से अच्छा है की मैं उनकी वौर्डन को बोल दूं की मैं रिकौर्डिंग का काम नहीं कर पाऊंगा. पर उन्हें जब भी राइटर की जरूरत होगी तो मैं हमेशा तैयार हूं ऐसा सोच के मैं उस रात सो गया और अगले दिन शाम को में उन बच्चियों के होस्टल पहुंचा.
मैंने वार्डन दत्ता मैम को बताया की में एक ही किताब रिवौर्ड कर पाया और दूसरी नहीं. मैं उनसे आगे की बात करने ही वाला था कि इतने में एक लड़की जो वहां से निकल रही थी
मेरी आवाज सुन कर रुक गई और बोली- आप अमित भैया है ना?
मैने कहा- हां
भैया मैंने आपकी आवाज से आपको पहचान लिया. भैया आपकी आवाज में किताबे सुनना बहुत अच्छा लगता है. आप सभी चीज़ों को अच्छे से समझाते हैं. पिछली बार आपने जो हिंदी साहित्य की किताब रिकौर्ड करके दी थी. दो दिन पहले ही उसका क्लास टेस्ट हुआ जिसमें पहले से मेरे काफी अच्छे नंबर आए.
मैंने उससे उसका नाम पूछा तो उसने बताया कि उसका नाम Alish है. वो BA सेकंड ईयर की स्टूडेंट थी. इतनी बात करके वो तो वहां से थैंक्स बोलकर चली गई. लेकिन उसके चेहरे की खुशी और मेरे आवाज पर उसके भरोसे ने मुझे वो बोलने ही नही दिया जो में वह बोलने आया था.
दत्ता मैम ने पूछा- हां अमित तुम कुछ कह रहे थे?
मैं निशब्द सा बोला- नहीं मैम कुछ नहीं.
इसके बाद मैं वहां से चला आया. पूरे रास्ते मेरे दिमाग मे बस एलिश की बातें ही घूमती रही.
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मैने अब सोच लिया था कि अब जो भी हो ये काम कभी नहीं छोडूंगा. धीरे धीरे बाकी काम से थोड़ा थोड़ा समय निकाल कर मैं रिकौर्डिंग करने लग गया. कभी देर रात तक, तो कभी सुबह उठकर तो कभी लंच टाइम में,तो कभी दोस्तो के साथ घूमने न जाकर शनिवार और रविवार लगातार रिकौर्डिंग करता रहा.
इस दौरान मैंने उनकी पढ़ाई के लिए टेस्ट सीरीज और अन्य नोट्स भी रिकौर्ड किए. धीरे धीरे मुझे अहसास हुआ की इस काम में मुझे बहुत तसल्ली मिलती है. जब भी मैं उनके होस्टल से रिकैर्ड की हुई किताबे देकर लौटता तो मन मे बड़ी ही शांति का अनुभव होता और अपनी पर्सनल लाइफ में चल रही परेशानियों को मानो कुछ समय के लिए भूल ही जाता था.
मुझे ऐसा लगने लगा मानो ये काम मैं उनके लिए नही बल्कि अपने भले के लिए या अपनी शांति के लिए कर रहा था. मैं जब भी वहां जाता सभी बच्चियां मुझे मेरी आवाज से ही पहचान जाती थी. ऐसे ही कौलेज का मेरा 4th ईयर खत्म होने को आया था. अब मुझे इस बात की चिंता होने लगी कि मेरे जाने के बाद इस काम को कौन करेगा .
फिर मेने कुछ दोस्त और आसपास के जानने वालों से बात की तो राइटर बनने के लिए तो काफी लोग आगे आये पर रिकौर्डिंग के काम के लिए बेहद कम और जो आये भी वो रेगुलर इस काम को करने में हामी नही भर पाए. मेरे इस काम के बारे में कौलेज में जैसवाल सर के अलावा किसी को नहीं पता था. शायद यही कारण था कि मैं सभी कामों से समय निकाल कर इस काम को रेगुलर कर पाया.
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एक दिन की बात है मेरे फ़ोन पर एक बड़े अखबार के राइटर का फ़ोन आया जिसने मेरी कहानी जाननी चाही की में किस तरह रिकौर्डिंग करता हूं और कैसे में उन बच्चियों की मदद करता हूं. सभी जानकारी देने के बाद अगले दिन मेरी लाइफ बदलने वाली थी. सुबह के अखबार में मेरी फुल पेज स्टोरी छपी थी. जिसे देखने के बाद सभी जानने पहचानने वालों, दोस्तों और कौलेज के सभी लोगों ने मुझे सराहा. उनमे से कुछ ने इस काम को करने की इच्छा भी ज़ाहिर की इनमे कुछ तो मेरे कौलेज की जूनियर्स ही थे और कुछ शहर के आम लोग.
इन सब के मिलने पर मानो मेरी बहुत बड़ी चिंता दूर हो गई. इसके बाद मैंने सबको मिलाकर Whatsapp पर एक ग्रुप बनाया. जिसमे दत्ता मैम और मेरे कौलेज के कुछ सीनियर्स को भी ऐड किया. तय हुआ कि जब भी उन छात्राओं को भी किताब रिकौर्ड करानी होगी या राइटर की जरूरत होगी तो इस ग्रुप में मैसेज आ जायेगा और जो भी उस समय अवेलेबल होगा वो उनकी मदद करेगा. मेरा 4 ईयर अब कम्पलीट हो गया है और मैं दिल्ली आ गया हूं. सिविल सर्विसेज की तैयारी करने पर helping hand चल रहा था.
इस बीच ऐलिश उस कौम्पिटेटिव एग्जाम में सेलेक्ट हो गई और उसके बाद उसने उस ग्रुप में एक प्यारा सा नोट मेरे लिए लिखा. एलिश ने मुझे कहा था कि भैया अगर में सेलेक्ट हुई तो पहला thank you आपका करूंगी ओर आपको मिठाई लिखूंगी. आज मैं वहां नही था पर मेरा मन की खुशी से उस मिठाई को भली भांति महसूस कर पा रहा था.
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ये बात बताकर मुझे खुशी मिल रही है कि आज हेल्पिंग हैंड सिर्फ Whatsapp group न रहकर एक registered NGO बन गया है जिसका नाम अद्भुत पब्लिक वेलफेयर सोसाइटी हैं. अब इसके चलते दृष्टिहीन बच्चो के लिए किताबे रिकौर्ड करने के साथ साथ, गरीब बच्चो को पढ़ाना,शिक्षा से जुड़े सामान देना और कपड़े दान करना जैसे काम होते है.
आज सोचता हूं मेरी वो छोटी सी कोशिश आज एक सफलता बनकर बड़ी ही गर्व से अपनी कहानी कह पा रही है. इसका एक कारण वो निःशब्दता भी है जिसने मुझे उस दिन दत्ता मैम को इस काम के लिए ना करने से रोक दिया था.
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