हमारी टोली की ट्रैक गाइड आइसा कह रही थी, ‘‘इस बार कुछ नया हंगामा करेंगे. खानाबदोशी का निराला जश्न मनाएंगे. ऐसा ट्रैक पकड़ेंगे कि हिमाचल प्रदेश के अधिकांश ऊपरी रोमांचक स्थलों पर पैदल घूमा जा सके और वहां बसे लोगों के संग फुरसत से रहा जा सके. हम तिब्बत से जुड़ी भारत की अंतिम आबादियों तक जाएंगे.’’
इस सफर में 14 मित्र शामिल हुए, हालांकि हमें 10 से ज्यादा की उम्मीद नहीं थी. पहाड़ों पर छोटी टोली में झं झट कम रहते हैं. आइसा जैसी गाइड हों तो 2 ही बहुत हैं.
अगली सुबह हम ओल्ड मनाली से क्लबहाउस के रास्ते सोलंगनाला की पगडंडी पर थे. मनालसू नदी पीछे छूट गई. अब व्यास नदी हमारे दाहिने थी. सब नदी पार बसे वसिष्ठ गांव और उस के आगे के जोगनी फौल के खुलेपन को देख रहे थे. धीरेधीरे हम सब में एक फासला आ गया और हम बातचीत भूल कर नजारों में डूब गए.
हिमालय की घाटियों से बचपन से परिचित आइसा सब से आगे थी. पीछे छूट जाने वाले मित्रों की सुविधा के लिए वह हर मोड़ या दोराहे पर चट्टान पर चाक से तीर का निशान बना कर ‘एस’ लिख रही थी, ताकि अगर मोबाइल फोन काम न कर सके तो आगे मिला जा सके.
स्कूल के लिए निकले बालकबालिकाएं और बागों व वनों में निकले स्त्रीपुरुष मुसकराते और हाथ हिलाते. दोनों ओर फैले सेब के बागों में भरे अधपके सेबों पर लाली आ रही थी. सामने धौलाधार का अंतिम शिखर और उस से जुड़ा रोहतांग पर्वत अपने विराट रूप में सुबह की किरणों का सुनहरा जादू ओढ़े प्रतीत हो रहे थे.
2 घंटे के बाद सोलंगनाला के चट्टानी नदी तट पर हमारी टोली शवासन में लेटी थी. आइसा ने हमें मन और सांस को साधने की यौगिक क्रिया से गुजारा और बताया कि किस तरह शरीर थक जाने के बाद भी वह स्वयं को दोबारा अनोखी ऊर्जा से भर देता है. होश और जोश के साथ मन से मिलजुल कर भोजन पकाया व खाया. दोपहर बाद चाय पी कर हम मनाली-लेह रोड की चढ़ाई की ओर मुड़े. पलचान और कोठी के बीच के अनोखे मखमली भूभाग से गुजर कर शाम को गुलाबा के ऊपरी वन में पहुंचे, जहां देवदारों का सिलसिला समाप्त होता है और भोजपत्र के वन दिखाई देने लगते हैं.
सुबह हम चले तो ग्लेशियरों और झरनों से घिरी चढ़ाई पार कर के मढ़ी पहुंचे, जहां पेड़पौधे नहीं उगते. हमारे सिरों के ऊपर सैलानी हैंडग्लाइडरों पर उड़ रहे थे. यहां से मनाली तक की ढलानों और उन पर बिछी सर्पीली सड़क और चारों ओर के बर्फ ढके पहाड़ों को देखना रोमांचक है.
मढ़ी के निचले क्षेत्र में नदी की धाराओं और ग्लेशियरों पर हजारों पर्यटकों को एक नजर में खेलते और खातेपीते देखा जा सकता है. मढ़ी में भी एक ढाबे में जलते चूल्हे के इर्दगिर्द हमारे रैनबसेरे का इंतजाम हो गया, अपने पल्ले में ओढ़नेबिछाने और खानेपीने का इंतजाम हो तो मईजून में जनवरीफरवरी की ठंडक पाने का मजा ही कुछ और है. जहां जलाने की लकड़ी नहीं होती, वहां चाय बनाने के लिए नन्हा गैसस्टोव हमारी मदद कर रहा था. रोमांच की आंच हो तो इस से अच्छा और क्या हो सकता है.
हमारी टोली की जयपुरवासी नेहा गा रही थी, ‘‘इस रंग में कोई जी ले अगर…’’
सुबह सूरज निकलते ही हम रोहतांग पर्वत की चोटी पर चढ़ रहे थे, दिसंबर से 5-6 महीने के लिए यह रास्ता वाहनों और पैदल यात्रियों के लिए पूरी तरह बंद हो जाता है, लेकिन जून से अक्तूबर तक इस पर दुनियाभर के सैलानियों का मेला दिखाई देता है. हजारों लोग जोखिम उठा कर अपनी कारों पर सपरिवार यहां पहुंचते हैं.
मनाली से रोहतांग शिखर 52 किलोमीटर है. हम ने शौर्टकट वाली कुछ पगडंडियां पकड़ कर 10-12 किलोमीटर कम कर लिए थे. इस में चढ़ाई ज्यादा बढ़ जाती है, लेकिन कुदरत के अजूबे ज्यादा मिलते हैं.
दोपहर से पहले हम रोहतांग की चोटी पर थे. पर्यटकों को ले कर मनाली से मुंहअंधेरे निकली गाडि़यों की कतारें लग रही थीं. यहां की बर्फ से व्यास नदी निकली है जो आगे आने वाले झरनों और नालों से भरती चली गई है. रोहतांग पर्वत पर नीले आसमान से उतरी मीठी धूप में बैठने, बर्फीले मैदानों पर टहलने और ढलानों पर फिसलने का मजा लेने के बाद रोहतांग के उस पार निकले.
उतराई पर बसमार्ग से हट कर निकली पगडंडी ने हमारे सफर को राहत दी. 3 घंटे के बाद हम रोहतांग की तलहटी पर बहती चंद्र नदी के किनारे अगले भोजन के लिए
3 पत्थरों वाला चूल्हा बना रहे थे. सूखे हुए तिनके और डंठल आसानी से मिल गए. सूखा हुआ गोबर भी काम आया. ग्रांफू नामक इस जगह से बाएं लाहुलस्पिति के मुख्यालय केलांग को और दाएं स्पिति घाटी को रास्ते हैं. हमें स्पिति जाना था. तभी घास से अधभरा एक ट्रक हमारे चूल्हे के पास आ कर रुका. ड्राइवर ने हमारी चाय सुड़की और बताया कि अगर हम 14 नरनारी घास के बीच समाना पसंद करें तो वह हमें बातल तक पहुंचा देगा. यह एक संयोग था कि हमें बातल में डेरा डालना था, जहां से 12 किलोमीटर का चंद्रताल लेक ट्रैक दुनिया के बेहतरीन घुमक्कड़ों को निमंत्रण देता आया है. शाम को हम चंद्र नदी के किनारे बातल में डेरा डाल चुके थे.
रोमांच से भरा चंद्रताल
सुबह आइसा की आवाज गूंजी, ‘‘चायवाय और बाकी सब कुछ रास्ते में होगा. 7 बजने वाले हैं. दोपहर को हम चंद्रताल पर खिली धूप में खाना पका रहे होंगे. आप लोग वहां फैसला करेंगे कि आज यहां लौटना है या वहीं कहीं गुफा में रहना है. मैं रात को वहीं रुकना चाहती हूं.’’ मैं ने बताया, ‘‘मैं अकेला होता हूं तो सप्ताहभर वहीं रहता हूं. आज तो नहीं लौटूंगा.’’
चंद्रताल पहुंचे तो वहां का मंजर देख कर चिल्लाए, ‘‘आज यहीं रहेंगे.’’ जेएनयू दिल्ली के हितेश और लंदन की मिरांडा को कल से हलका बुखार था, लेकिन उन्होंने बताया कि यहां की प्यारी हवा में दोपहर तक बुखार उड़ जाएगा. सब उस पतली धारा में हाथपांव भिगोने लगे जो चंद्रताल झील में से निकल कर चंद्रताल नदी बनाती है और केलांग के पास भागा नदी से मिल कर चंद्रभागा हो जाती है. इसी नदी को चेनाब कहा जाता है यानी चंद्रनीरा.
एक छोर पर थैले और स्टिक्स छोड़ कर सब चुपचाप अकेलेअकेले झील की ढाई किलोमीटर की परिक्रमा पर निकल गए. हम ने पूर्णिमा की रात यहां रहने के लिए चुनी थी. आइसा यह देख कर मुसकराई कि कुछ साथी अपनी नोटबुकें निकाल कर कुछ लिखने लगे हैं. वह बोली, ‘‘यहां आ कर मैं ने अकसर कविताएं और कहानियां लिखी हैं. हिमाचल प्रदेश में यह एकमात्र जगह है, जहां मकान या मंदिर जैसी कोई चीज दिखाई नहीं देती. आकाश जैसी यह झील है और उस के चारों ओर खड़े बर्फीले पर्वत. मन सीधा कुदरत से बात करता है,’’ सहसा वह गाने लगी, ‘‘अज्ञात सा कुछ उड़नखटोले पर आता है और हमारे कोरे कागज पर उतर जाता है…’’
रात को चांद निकला तो वही हुआ, जिसे सम झाया नहीं जा सकता. चांद के निकलते ही झील में लहरें उठने लगीं और चांद की परछाईं उन में नाचती रही. हमारे पास चांद और लहरों के साथ थिरकने के अलावा और कुछ नहीं था. चंद्रताल और उस के सारे विराट मंजर को प्रणाम कर के हम अपना हर निशान मिटा कर लौटे. अधकचरे लोग तो हर कहीं अपना नाम खोद कर ही लौटते हैं.
तन और मन का शोध करने वालों की बस्ती
बातल से कुंजुम दर्रे तक खड़ी चढ़ाई है. दोपहर को बातल में बस मिली और शाम को हम कुंजुम और लोसर गांव की अनोखी बुलंदियों से होते हुए स्पिति के मुख्यालय काजा में पहुंचे. अगली सुबह हम पास ही ‘की’ गोंपा को निकले और दोपहर को दुनिया के ऐसे सब से ऊंचे गांव किब्बर में पहुंचे जहां बिजली भी है और बस भी पहुंचती है. स्पिति नदी के तट पर बसे काजा क्षेत्र और वहां के लोगों के बीच 2 दिन बिताने और जीभर कर सुस्ताने के बाद हम ने ताबो की बस पकड़ी. लगभग डेढ़ सदी पहले ताबो में ऐसे स्त्रीपुरुषों ने डेरा जमाया था जो निपट सन्नाटे में रह कर तन और मन के रहस्यों को जानना चाहते थे. ताबो संग्रहालय में उन लोगों की प्रतिमाएं और ममियां देखी जा सकती हैं. ‘की’ गोंपा, काजा और ताबो में आज भी गहरी रुचियों वाले लोग अज्ञातवास में रहने आते हैं. हर गोंपा में ध्यान, निवास और खानेपीने की सुविधाएं हैं. बौद्ध परंपरा में भी हालांकि रूढि़यां भर गई हैं लेकिन वहां हर व्यक्ति को अपने ढंग से भीतरबाहर का अध्ययन करने की स्वतंत्रता है. शांत चित्त के लिए तो यहां की दुनिया संजीवनी है.
किन्नर कैलास और वास्पा घाटी
चांगो की हिमानी और चट्टानी दुनिया और नाको झील की खामोशी से बातें करते हम उस सतलुज नदी के तटों पर थे जो मानसरोवर से निकल कर यहां से गुजरती है. हिमाचल का जिला किन्नौर सामने था. मुख्यालय रिकांगपिओ और कल्पा से हम ने किन्नर कैलास की बुलंदियों को देखा.
रिकांगपिओ से हम सतलुज और वास्पा नदियों के संग पर कड़छम गए और वास्पा नदी के साथसाथ सांगला घाटी पहुंचे. वास्पा या सांगला घाटी किन्नर कैलास पर्वत के ठीक पीछे बसी है. यहां काला जीरा और केसर की खेती होती है. कई गांवों में से गुजरते हुए हम अंतिम भारतीय गांव चितकुल पहुंचे. हर गांव कलात्मक मंदिरों से संपन्न हैं. हर कहीं देवदारों के सिलसिले हैं.
ओगला और फाफरा नामक अनाजों से खेत सजे हुए मिले. नृत्य व संगीत के लिए कभी मौका न चूकने वाली मेहनती युवतियों ने हमें कई जगह घेरा और मेहमान बनाया. हिमालय के लोगों का दुर्लभ सरल स्वभाव इस घाटी की माटी में रचाबसा हुआ है. चितकुल में हमें शिमला जाने वाली बस मिली.
जलोड़ी दर्रे के आरपार
किन्नौर के टापरी, वांगतू, भाभानगर, तरंडा और निगुलसरी होते हुए हम शिमला जिले के ज्योरी, सराहन और फिर रामपुर बुशहर पहुंचे. अगले दिन फिर बड़ा रोमांच सामने था. सतलुज पार की चढ़ाई से पैदल कुल्लू जिले के जलोड़ी दर्रे पर पहुंचना और अगले दिन दूसरी तरफ उतरना. जलोड़ी की चढ़ाई रोहतांग से आसान है. रास्ते में कई गांव हैं. हम यहां की अनोखी सरयोलसर झील तक गए और पास ही वनविभाग की हट में शरण ली. अगले दिन जलोड़ी दर्रे की दूसरी तरफ की उतराई पर शोजा और बनजार होते हुए दिल्ली-मनाली मार्ग पर आ गए.
शाम को हम नए ट्रैक्स पर जाने की योजना बना रहे थे, वे थे : मनाली के वसिष्ठ गांव से भुगु लेक, मनाली से नग्गर होते हुए मलाना, मलाना से मणिकर्ण होते हुए पार्वती वैली के रोमांचक स्थल क्षीरगंगा, क्षीरगंगा से बजौरा होते हुए पर्वत शिखर पर पराशर झील, रिवालसर झील और शिकारीदेवी शिखर. इस में एक और महीना लगने वाला था.
हिमाचल प्रदेश के अधिकांश ट्रैक्स आज ठहरने और खानेपीने की सुविधाओं से भरे हुए हैं, इसलिए जब भी जरूरी हो, पैदल चलने वाले लोग उन सुविधाओं का लाभ उठा सकते हैं.
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