हिंदी मीडियम से भी लहराया जा सकता है परचम
ऐसे बहुत से बच्चे हैं जो सरकारी स्कूलों में पढ़ कर अपने लक्ष्य को प्राप्त करते हैं और नाम कमाते हैं. अरुण एस नायर एक ऐसे ही शख्स हैं जिन्होंने सरकारी स्कूल से पढ़ाई की और अपने दम पर डाक्टर और फिर यूपीएससी पास कर आईएएस अधिकारी बना. वह 55वीं रैंक ला कर आईएएस बने. वे केरल से संबंध रखते हैं. उन्होंने सरकारी स्कूल से पढ़ाई की और एक के बाद एक उपलब्धियां हासिल कीं.
महाराष्ट्र कैडर से आईपीएस मनोज शर्मा की कहानी भी इस देश के हर युवा के लिए मिसाल है. 12वीं कक्षा फेल मनोज शर्मा की परिस्थिति ऐसी थी कि पढ़ाई जारी रखने के लिए औटो चलाया, भिखारियों के साथ सोया. उन्होंने गांव में शुरुआती पढ़ाईलिखाई हिंदी मीडियम से की थी, जिस की वजह से अंगरेजी बहुत कमजोर थी. हिंदी मीडियम से पढ़ने वाले मनोज शर्मा से यूपीएससी के इंटरव्यू के दौरान पूछा गया कि आप को अंगरेजी नहीं आती तो फिर शासन कैसे चलाएंगे? मगर आज वे महाराष्ट्र के सफल और तेजतर्रार आईपीएस अधिकारियों में से एक हैं.
उत्तराखंड के देहरादून शहर के एक परिवार की बेटी गुलिस्तां अंजुम ने सरकारी व हिंदी मीडियम स्कूलों से परहेज करने वाले तमाम लोगों की तब बोलती बंद कर दी जब उन्होंने उत्तराखंड न्यायिक सेवा परीक्षा में सफलता हासिल की. उन्होंने 2017 में भी पीसीएस-जे की परीक्षा दी थी पर कुछ अंकों से रह गईं. लेकिन दूसररी बार फिर पूरी शिद्दत से परीक्षा की तैयारी की और सफल हुईं.
निशांत जैन ने सिविल सेवा परीक्षा 2014 में दी थी, जिस में उन्होंने 13वीं रैंक हासिल की थी. वे यूपीएससी परीक्षा में हिंदी के टौपर थे. निशांत बेहद साधारण बैकग्राउंड में पलेबढ़े. वे अपना खुद का खर्चा उठाने में यकीन रखते थे. ऐसे में उन्होंने 10वीं कक्षा के बाद कोई न कोई नौकरी करने का फैसला किया. एमए के बाद निशांत जैन ने यूपीएससी की तैयारी करने का फैसला लिया. उन की पोस्ट ग्रैजुएशन तक की पढ़ाई हिंदी मीडियम से हुई थी. इसलिए उन्होंने यूपीएससी का सफर भी हिंदी मीडियम के साथ जारी रखने का प्लान बनाया. निशांत की हिंदी पर शुरू से ही कमांड रही. ऐसे में उन्होंने सोचा कि अगर यूपीएससी में भी अपने सवालों के जवाब प्रभावशाली तरीके से देने हैं तो हिंदी भाषा को ही मजबूत करना होगा. यूपीएससी 2014 की परीक्षा में उन्होंने 13 रैंक प्राप्त की. इस तरह एक हिंदी माध्यम का युवा आईएएस अफसर बन गया.
इसी तरह विस्थापित एक परिवार के बेटे अमन जुयाल ने सरकारी व हिंदी मीडियम स्कूलों से परहेज करने वाले तमाम लोगों को आईना दिखते हुए नीट व जीबी पंत विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा के बाद एम्स एमबीबीएस प्रवेश रीक्षा में भी प्रदेश में दूसरा स्थान हासिल किया.
‘‘कौ शिक मुझे नहीं लगता कि मैं इस इंटरव्यू में सफल हो पाऊंगा. सारे इंग्लिश मीडियम के कैंडिडेट्स भरे पड़े हैं जो फर्राटेदार इंग्लिश में बातें कर रहे हैं,’’ अमर ने थोड़ी घबराई हुई आवाज में कौशिक से कहा.
‘‘अगर तू ऐसा सोच रहा है तो मुझे यकीन है तू वाकई इंटरव्यू में फेल हो जाएगा,’’ कौशिक ने सहजता से जवाब दिया.
‘‘यह क्या यार तू तो मेरा मनोबल और गिरा रहा है.’’
‘‘तो क्या करूं, जब तूने खुद ही यह कहना शुरू कर दिया है कि तू सफल नहीं होगा तो यकीन मान कोई तुझे नहीं जिता सकता. अगर सफल होना है तो अपने मन और दिमाग को बता कि तुझे बस जीतना है. तब तुझे कोई नहीं हरा सकता. मगर जब पहले से ही तू घबराया हुआ अंदर जाएगा तो जाहिर है तुझ से छोटीछोटी गलतियां होंगी. तू याद की हुई बातें भी भूल जाएगा. इतना भ्रमित दिखेगा कि वे चाह कर भी तुझे अपौइंट नहीं कर पाएंगे. ऐसे में तू असफल होगा, मगर हिंदी मीडियम की वजह से नहीं बल्कि कौन्फिडैंस की कमी की वजह से,’’ कौशिक ने समझया.
‘‘सच यार तूने तो मेरी आंखें खोल दीं. अब देखना तेरा दोस्त कैसे जीत कर आता है,’’ अमर ने उत्साह से कहा. उस की आंखों में विश्वास भरी चमक खिल आई थी.
यह एक सच्चा वाकेआ है और अकसर हमारे आसपास हिंदी मीडियम में पढ़े ऐसे बहुत से अमर दिख जाएंगे जो जीतने के पहले ही हार जाते हैं, इंटरव्यू बोर्ड के सामने जाने से पहले ही असफल हो जाते हैं. दरअसल, वे घबरा जाते हैं और सब जानते हुए भी सही जवाब नहीं दे पाते. आत्मविश्वास की कमी की वजह से उन की जबान लड़खड़ाने लगती है. कई ऐसे भी मिलेंगे जो हिंदी मीडियम वाले होने के बावजूद इंग्लिश में जवाब देने का फैसला करते हैं ताकि सामने वालों पर अच्छा प्रभाव पड़े. मगर होता उलटा है. उन्हें इंग्लिश के सही शब्द नहीं मिल पाते और सब जानते हुए भी सैटिस्फैक्टरी रिस्पौंस नहीं दे पाते.
दरअसल, हिंदी मीडियम के युवाओं को हमेशा ऐसा लगता है कि इंग्लिश मीडियम में पढ़ने वाले लोग बेहतर होते हैं. इस से उन के अंदर हीनभावना भर जाती है, आत्मविश्वास कमजोर हो जाता है. लेकिन सच यह है कि कोई हिंदी भाषा में बेहतर होता है तो कोई इंग्लिश भाषा में. कोई फर्राटेदार अंगरेजी बोल लेता है तो कोई धाराप्रवाह हिंदी. भाषा तो दोनों ही हैं. जरूरत होती है सामने वाले के आगे अपनी बात सही तरह से प्रस्तुत करने की. माना कि किसी एक भाषा पर कमांड हासिल करना आवश्यक है, पर इस का मतलब यह तो नहीं कि हिंदी जानने वाले कमजोर हैं और इंग्लिश जानने वाले ज्ञानी हैं.
कुछ लोग यह सोचते हैं कि इंग्लिश मीडियम में पढ़ने से अच्छा रुतबा, कैरियर, ओहदा, पैसा और नौकरी मिलती है. पर ऐसे लोगों की कमी नहीं जिन्होंने भाषा को अहमियत न देते हुए कड़ी मेहनत से शोहरत के उस मुकाम को हासिल किया जहां तक पहुंचने की ज्यादातर लोग कल्पना भी नहीं कर पाते. इंसान के भीतर काबिलीयत होनी चाहिए, ज्ञान और आत्मविश्वास होना चाहिए. भले ही भाषा हिंदी ही क्यों न हो.
डिजिटल दुनिया में हिंदी सब से बड़ी भाषा
अगर हम आंकड़ों में हिंदी की बात करें तो 260 से ज्यादा विदेशी विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है. 1 अरब, 30 करोड़ से ज्यादा लोग हिंदी बोलने और समझने में सक्षम हैं. 2030 तक दुनिया का हर 5वां व्यक्ति हिंदी बोलेगा. सब से बड़ी बात यह कि जो कुछ साल पहले इंग्लिश इंटरनैट की सब से बड़ी भाषा थी अब हिंदी ने उसे बहुत पीछे छोड़ दिया है. गूगल सर्वेक्षण बताता है कि इंटरनैट पर डिजिटल दुनिया में हिंदी सब से बड़ी भाषा है.
हिंदी बोलने पर शर्म नहीं गर्व कीजिए
अगर आप इंग्लिश में कंफर्टेबल महसूस करते हैं तो आप इंग्लिश में ही बात करिए. इसे ही अपनी बातचीत की प्राथमिक भाषा रहने दीजिए. लेकिन जब कभी आप को हिंदी बोलने का मौका मिले या आप को इंग्लिश में बात करना न आता हो तो इस में शर्म न करें.
अब जरा भारत के कुछ नेताओं की ही बात कर लें. बहुत से नेता हिंदी मीडियम से पढ़ाई कर के आए हैं. देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी हों या वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बिहार के नीतीश कुमार हों, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव हों या फिर यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ, ये सभी हिंदी मीडियम से पढ़ कर आए हैं पर देश की बागडोर संभाली. इन सभी नेताओं ने हर काम हिंदी भाषा में किया और हिंदी को ही तरजीह दी.
याद कीजिए 4 अक्तूबर, 1977 का वह दिन जब विदेश मंत्री के रूप में संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी पहुंचे थे. उन्होंने अपना भाषण हिंदी में दिया था. वैसे यह भाषण पहले इंग्लिश में लिखा गया था. लेकिन अटल ने उस का हिंदी अनुवाद पढ़ा था. उन के भाषण के बाद यूएन तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. हिंदी की वजह से ही उन का यह भाषण ऐतिहासिक हो गया था.
इसी तरह मोदीजी भी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर धाराप्रवाह हिंदी में भाषण देते हैं और विदेशी नेताओं के साथ कंधे से कंधा मिला कर शिरकत करते हैं.
ज्ञान भाषा पर आधारित नहीं होता
कोई भी भाषा अपनी भावना व्यक्त करने का एक माध्यम भर है. यह किसी को अमीरगरीब नहीं बनाती. अरे यह तो आप के घर की भाषा है, आप के शहर और गांव की भाषा है. इसे बोलने में शर्म नहीं अपनापन महसूस होना चाहिए. हिंदी भाषा आप का स्टेटस छोटा नहीं दिखाती बल्कि आप के विद्वान होने का ऐलान करती है.
आप अपने आसपास नजर डालें तो यह महसूस करेंगे कि जो व्यक्ति इंग्लिश भाषा बोलने में सहज नहीं महसूस करता उसे कम पढ़ालिखा या कम समझदार माना जाता है. लेकिन याद रखें ज्ञान भाषा पर आधारित नहीं होता. ज्ञान तो आप की पढ़ाई, समझ और अनुभवों पर निर्भर करता है. हो सकता है कि कोई व्यक्ति इंग्लिश नहीं हिंदी में बोलता हो, लेकिन उस के पास बिजनैस, तकनीक या फिर किसी और क्षेत्र में ज्ञान का भंडार हो. यह भी हो सकता है कि कोई व्यक्ति इंग्लिश न बोल पाता हो पर हिंदी भाषा में फिलौसफी से जुड़ी ऐसी बातों का रहस्य खोल सकता हो जो शायद देशविदेश के विद्वानों ने भी न खोला हो. किसी को उस की भाषा के आधार पर कम समझदार आंकना हमारी अपनी कमअक्ली को दर्शाता है.
हम ने इंग्लिश को हिंदी में इतना ज्यादा मिला दिया है कि शुद्ध हिंदी लिखना ही भूल गए हैं. हम आजकल हिंगलिश बोलने लगे हैं. यह न इंग्लिश है और न हिंदी. यह हर तरह से कमजोर लोगों की निशानी है. ऐसे लोग जिन्हें न खुद पर विश्वास है और न अपनी भाषा पर वे ही ऐसा जोड़तोड़ का रास्ता अपनाते हैं. इसी तरह आजकल व्हाट्सऐप पर ऐसी हिंदी लिखी जा रही है कि बेचारी हिंदी को ही शर्म आती होगी.
मातृभाषा की अहमियत समझें
याद रखें इंसान की कल्पनाशक्ति का विकास मातृभाषा में ही हो सकता है. हम जब इमोशनल या गुस्से में होते हैं तो हम मातृभाषा में ही बोलते हैं. जब धाराप्रवाह बोलने की जरूरत हो तो मातृभाषा में ही हम सहजता से बोल पाते हैं. जहां तक बात हिंदी की है तो इंग्लिश की तुलना में हिंदी इंसान को ज्यादा समृद्ध बना सकती है. हिंदी भारत में सब से ज्यादा बोली जाने वाली यानी राजभाषा है.
हमारे देश के 77% से ज्यादा लोग हिंदी लिखते, पढ़ते, बोलते और समझते हैं. हिंदी उन के कामकाज का भी हिस्सा है. इसलिए 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा घोषित किया और तब से संपूर्ण भारत में प्रतिवर्ष 14 सितंबर को ‘हिंदी दिवस’ मनाया जाता है.
किसी भी राष्ट्र की पहचान उस की भाषा और संस्कृति से होती है. हमें दूसरों की भाषा सीखने का मौका मिले यह अच्छी बात है, लेकिन दूसरों की भाषा के चलते हमें अपनी मातृभाषा को छोड़ना पड़े तो यह शर्म की बात है. हमें अपनी भाषा का सम्मान करना चाहिए.
शायद ही दुनिया में ‘हिंदी दिवस’ की तरह किसी और भाषा के नाम पर दिवस का आयोजन होती है क्योंकि पूरी दुनिया के लोगों को अपनी भाषा पर गर्व है. गर्व की बात है कि वे लोग सिर्फ बोलते ही नहीं बल्कि उसे व्यवहार में अपनाते भी हैं. लेकिन हम लोग हिंदी दिवस पर हिंदी हमारी मातृभाषा है, हमें हिंदी पर गर्व है जैसे रटेरटाए वाक्य बोल कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं. असलियत में हिंदी में बातचीत करने वालों को आज भी हेय दृष्टि से देखा जाता है. यदि कोई व्यक्ति 2-4 वाक्य फर्राटेदार अंगरेजी में बोलता है तो सब उसे बहुत होशियार समझते हैं.
आधुनिकता का भूत
हमारे यहां जब बच्चे का जन्म होता है तो घर के लोगों से हिंदी सुन कर बच्चा भी हिंदी बोलने और समझने लगता है. मगर आज की तथाकथित मौडर्न फैमिलीज में बच्चे को तुतलाना भी इंग्लिश में ही सिखाया जाता है. हर वक्त घर में पेरैंट्स उस के पीछे इंग्लिश के शब्द ले कर भागते रहते हैं ताकि गलती से भी वह हिंदी न सीख जाए. ऐसा लगता है जैसे हिंदी बोलने पर उस का भविष्य ही चौपट हो जाएगा.
जैसे ही बच्चे को स्कूल भेजने की बात आती हैं तो हिंदी मीडियम स्कूलों के हालात का रोना रोते हुए पेरैंट्स जल्दी से बच्चे को अंगरेजी स्कूल में भेजने के लिए हाथपैर मारने लगते हैं. इंग्लिश मीडियम वाले स्कूलों के बाहर इतनी लंबी लाइन रहती है कि लोग नर्सरी में एडमिशन के लिए भी लाखों खर्च करने से नहीं घबराते हैं. इतने रुपयों के सहारे इंग्लिश मीडियम में डाल कर वे बहुत खुश होते हैं. उन्हें लगता है जैसे बहुत बड़ी जंग जीत ली हो.
यहीं से बच्चे की रहीसही हिंदी भी कमजोर होने लगती है. यही वजह है कि इंग्लिश मीडियम में पढ़ालिखा नौजवान सब्जी वाले से हिसाबकिताब करते वक्त उन्यासी और नवासी का फर्क तक नहीं समझ पाता. आम बोलचाल के हिंदी के छोटेछोटे शब्द उस की समझ से परे होते हैं. भले ही अंगरेजी की तुलना में हिंदी इंसान को ज्यादा समृद्ध बना सकती है लेकिन जौब मार्केट में अंग्रेजी का दबदबा कायम होने की वजह से सब इंग्लिश के पीछे भागते हैं और जो नहीं भाग पाए वे खुद को बेकार समझते हैं. मगर हकीकत में बहुत से हिंदी मीडियम वाले ज्ञान के मामले में इंग्लिश मीडियम वालों से बहुत आगे रहते हैं. हिंदी भाषा में हर तरह की पाठ्यसामग्री या दूसरे विषयों पर जानकारी उपलब्ध है. इसलिए हिंदी भाषी होने की वजह से घबराना बेमानी है. हिंदी भाषा उच्च कोटि की भाषा है. इसे गंवारों की भाषा समझना बहुत बड़ी भूल है.
हिंदी में पढ़ कर छू ली बुलंदी
पेटीएम आज पूरे देश का सब से लोकप्रिय डिजिटल पेमैंट ऐप्लिकेशन बन चुका है. पर आप को जान कर आश्चर्य होगा कि पेटीएम के फाउंडर विजय शेखर भारत के एक छोटे से शहर के बहुत ही साधारण परिवार से संबंधित हैं. उन्हें अंगरेजी का थोड़ा भी ज्ञान नहीं था परंतु इस के बावजूद इन्होंने पेटीएम जैसे ऐप्लिकेशन की खोज कर डाली.
इन्होंने एक साधारण हिंदी मीडियम स्कूल में दाखिला लिया था. पढ़ने में तेज होने के कारण अपनी 12वीं कक्षा की पढ़ाई को मात्र 14 साल की उम्र में ही पूरा कर लिया था. पढ़ाई में तेज होने के कारण इन्हें दिल्ली कालेज औफ इंजीनियरिंग में दाखिला तो मिल गया था पर हिंदी मीडियम से अंगरेजी वातावरण में जाने के कारण पढ़ाई में बहुत दिक्कत आई. मगर इन्होंने हार नहीं मानी और अंगरेजी सीखने का प्रयत्न करते रहे. ये एक ही किताब को अंगरेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में खरीद लेते और फिर पढ़ने का प्रयास करते.
विजय शेखर शर्मा समय के अनुसार काम करते थे. उन्हें कब क्या करना है वे बखूबी जानते हैं. इसलिए जब स्मार्टफोन का प्रयोग बढ़ा और हर युवक के पास स्मार्टफोन पाया जाने लगा तो इन्होंने कैशलैस की सोची अर्थात मोबाइल से ही पैसे ट्रांसफर करना. ये पेटीएम यानी पे थ्र्रू मोबाइल के कांसैप्ट पर काम करना चाहते थे. मगर किसी ने इन का साथ नहीं दिया क्योंकि ये एकदम नया व्यापार था और बहुत मुश्किल लग रहा था.
फिर इन्होंने अपनी इक्विटी में से 1% यानी 2 मिलियन डौलर बेच कर पेटीएम की स्थापना की और आज पेटीएम की लोकप्रियता का कोई ठिकाना नहीं है. 2017 में इकौनोमिक टाइम्स द्वारा शेखर शर्मा को इंडिया के हौटैस्ट बिजनैस लीडर अंडर 40 के रूप में चुना.
विजय शेखर जैसे लोगों की जिंदगी से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है. हमें यह समझ आता है कि हिंदी या इंग्लिश माने नहीं रखता बल्कि आप की लगन, अलग सोच और कुछ करने का जज्बा सफलता के लिए जरूरी है.