प्रोफाइल पिक्चर: जब मैट्रोमोनियल साइट पर मिली दुल्हन!

मोबाइलपर मैसेज

की घंटी बजी. अनजान नंबर था, प्रोफाइल पिक्चर के नाम पर एक तकिए पर रखा एक गुलाब का फूल. मैसेज में लिखा

था, ‘‘नमस्ते.’’

सोचा कि एक और स्पैम मैसेज, कौंटैक्ट का नाम देखने की कोशिश की, लिखा था ‘रोज’ यानी गुलाब थोड़ी देर रहने दिया.

एक बार फिर से मैसेज टोन बजी. उसी नंबर से था, ‘‘जी नमस्ते.’’

मैं ने कुछ सोचा, फिर जवाब लिख दिया, ‘‘नमस्ते, क्या मैं आप को जानता हूं?’’

मैसेज चला गया, पहुंच गया, पढ़ लिया गया. जवाब तुरंत नहीं आया. लगभग 10 मिनट की प्रतीक्षा के बाद  मैसेज टोन फिर से बजी, ‘‘आप मु झे नहीं जानते, मैं ने आप का नंबर आप के मैट्रिमोनियल प्रोफाइल से लिया है.’’

‘‘मैं सोच में पड़ गया. मैट्रिमोनियल प्रोफाइल. एक वैबसाइट पर अपनी डिटेल मैं ने कुछ महीने पहले डाली थी. फिर उस दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई थी और मैं लगभग भूल सा गया था.

कामकाज के चक्कर में शादीवादी तो कहीं पीछे ही छूट गई थी. अकेला बंदा दिनरात काम में डूबा हुआ और वह भूली सी मैट्रिमोनियल प्रोफाइल. खैर. थोड़ी देर बाद जवाब लिख दिया, ‘‘अच्छा, तो बताइए?’’

अगला जवाब फिर से थोड़ी प्रतीक्षा के बाद आया, ‘‘आप की शादी तो नहीं हुई न अभी?’’

इस बार मैं ने तत्काल जवाब दिया, ‘‘नहीं.’’

कुछ देर बाद फिर से मैसेज टोन बजी, ‘‘मैं आप से शादी के लिए ही बात करना चाहती हूं.’’

इस सीधे प्रस्ताव को हजम करने के लिए मैं ने उस दिन कोई मैसेज नहीं किया. उधर से भी फिर कोई मैसेज नहीं आया.

अगले दिन रात को मैसेज टोन फिर से बजी, ‘‘क्या आप शादी के लिए बात करने के लिए मु झ से मिलना चाहेंगे?’’

मैं ने जवाब दिया, ‘‘देखिए, मैं आप को जानता नहीं हूं, आप का नाम तक नहीं जानता, आप चाहें तो मु झे अपना बायोडाटा भेज सकती हैं.’’

जवाब में कुछ देर के बाद एक स्माइली और एक गुलाब का फूल.

ये कैसा ‘बायोडाटा’ था. थोड़ी देर बाद मैं सो गया, हलकी सी मुसकान के साथ.

अगले दिन रात को फिर से, ‘‘जी देखिए, बायोडाटा तो मैं नहीं भेज सकती

लेकिन आप से मिल कर बात करना चाहती हूं.’’

यह कुछ नया सा था कि न नाम, न बायोडाटा सीधा मिलना. अत: आज मैं ने कोई जवाब नहीं दिया, ज्यादा कुतूहल ठीक नहीं. 1-2 दिन व्यस्त रहा, उस अनजान नंबर से कोई मैसेज भी नहीं आया.

फिर एक दिन रात को मेरी उत्सुकता मेरे संयम पर भारी पड़ गई. मैं ने भी एक स्माइली भेज दी.

मैसेज डिलिवर नहीं हुआ. मैं ने कुछ देर इंतजार किया, फिर फोन बंद कर के सो गया.

अगली सुबह फोन औन करते ही 2-3  मैसेज, ‘‘तो मिलने की उम्मीद है, इस संडे को लखनऊ आइए न.’’

फिर एक स्माइली और गुलाब. मु झे गुलाब कभी पसंद नहीं आया, आखिर यही फूल प्यार का प्रतीक क्यों है. खैर, अब यह लखनऊ कहां से आ गया, मैं दिल्ली में और वह लखनऊ.

ऐसे कोई शादी की बात करता है. मैं ने आज सीधे फोन लगा दिया. उधर से किसी ने नहीं उठाया. मैसेज आया, ‘‘देखिए मैं फोन पर बात नहीं कर सकती, प्लीज, मैसेज से ही बात कीजिए, संडे को लखनऊ आ रहे हैं न…’’

मैं ने मैसेज कर दिया, ‘‘संडे को मैं बिजी हूं,’’ और फिर फोन डाटा औफ कर दिया कि आज कोई मैसेज देखूंगा ही नहीं.

रात को डाटा औन किया, कोई नया मैसेज नहीं था. आखिर चल क्या रहा है. इन्हीं उल झनों के बीच फिर से सो गया, बिना मुसकान के.

हफ्ता बीत गया. संडे भी आया और खाली चला गया. मैं भी थोड़ा कम ही बिजी रहा. क्या होता अगर मैं लखनऊ चला ही गया होता.

फिर से रात आई. 3-4 दिन से कोई मैसेज नहीं आया था. क्या बात खत्म हो गई, हो भी गई तो क्या. मैं कहां किसी को जानता हूं… वह भी शादी की बात.

मैसेज की घंटी बजी. मैं ने जल्दी से फोन देखा. किसी और गु्रप में मैसेज आया था. मैसेज खोले बिना मैं ने फोन बंद कर दिया और सो गया.

अगली सुबह. गुलाब वाले प्रोफाइल से कुछ मैसेज आए हुए थे, ‘‘देखिए अगले संडे को पक्का लखनऊ आइएगा. होटल क्लार्क के रैस्टोरैंट में सुबह के नाश्ते पर आप से मिलूंगी. प्लीज, प्लीज.

‘‘प्लीज मिल लीजिए, अगर इस संडे

को आप नहीं आए तो शायद फिर कभी मौका

न मिले.’’

उफ, अब एक डैडलाइन भी मिल गई, जोकि इसी संडे को पूरी करनी थी. मैं ने भी जीवन में तमाम तरह के पंगे किए थे, सोचा एक यह भी सही. देखें क्या होता है. अत: मैं ने जवाब में एक स्माइली, एक थम्सअप और एक गुलाब भी भेज दिया. शायद मैं भी पंगे के मूड में आ गया था.

पता नहीं क्यों मन में एक कहावत बारबार घूमफिर कर याद आ रही, जो कुछ ऐसा है कि चाकू खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर कटना तो खरबूजे को ही है. पता नहीं मैं खुद को खरबूजा सम झ रहा था या चाकू.

मैं ने शनिवार रात को जाने वाली लखनऊ मेल का टिकट ले लिया और एक स्क्रीनशौट भी गुलाब के प्रोफाइल वाले नंबर पर भेज दिया. उधर से जवाब में थम्सअप, गुलाब और हार्ट वाले मैसेज आ गए थे.

मैं ने शनिचर को ट्रेन पर सवार होने का इरादा बना लिया था. मु झ पर शायद अभी से शनिचर सवार हो गया था.

बदस्तूर शनिवार आया और मैं लखनऊ मेल में सवार हो कर लखनऊ पहुंच गया. लखनऊ के प्लेटफौर्म पर उतरते ही 2 छोटीछोटी बच्चियों ने गुलाब के फूल से मेरा स्वागत किया.

‘‘वैलकम.’’

मैं चौंक गया. पूछा, ‘‘ये गुलाब किस ने दिए?’’

‘‘वह दीदी, वहां लाल स्कार्फ में बैठी हैं,’’ जवाब मिला.

मैं ने प्लेटफौर्म पर दाईं तरफ देखा, थोड़ी दूरी पर एक लाल स्कार्फ जैसी  झलक किसी कुरसी पर बैठी दिखी. मैं उधर ही बढ़ गया. प्लेटफौर्म पर छिटपुट भीड़ थी. बढ़तेबढ़ते एक कुरसी तक पहुंचा, सचमुच एक युवती लाल स्कार्फ में बैठी थी. गुलाब मेरे हाथ में अब भी था. मैं ने जा कर धीरे से हैलो कहा. उस ने अजीब दृष्टि से मु झे देखा.

मैं ने कहा, ‘‘वेलकम के लिए थैंक्स.’’

उस ने घबरा कर कहा, ‘‘आप कौन हैं.’’

गुलाब वाला हाथ थोड़ा आगे कर के मैं ने कहा, ‘‘वह उन बच्चियों ने बताया कि आप ने गुलाब भेजे हैं,’’ कह मैं ने प्लेटफौर्म पर इधरउधर देखा. कोई बच्ची नजर नहीं आई. मेरे कान लाल हो गए जितना कि हो सकते थे,

उस लड़की की घबराहट देखते हुए मैं ने गुलाब वाला हाथ पीछे किया और वहां से चल निकला, लगभग भाग ही निकला क्योंकि आसपास के यात्री मु झे घूरने लगे थे और शायद किसी भी क्षण मेरा सामना लखनवी तहजीब की एक अलग विधा से हो सकता था. खैर. उल झन बढ़ती ही जा रही थी कि होटल क्लार्क जाऊं या न जाऊं. फिर औटोरिकशा लिया और पहुंच ही गया.

रिसैप्शन पर पहुंचते ही रिसैप्शनिस्ट ने पुकारा, ‘‘हैलो,’’ शायद मेरे प्रोफाइल फोटो से सब को मेरी पहचान करा दी गई थी.

‘‘जी, आप मु झे कैसे जानती हैं.’’

‘‘वैलकम टू अवर होटल, आप के लिए रूम नं. 304 बुक है, मैडम ने कमरा बुक कराया है.’’

‘‘304, कौन सी मैडम?’’

‘‘जी वे 305 में ठहरी हैं. आप अपनी ऐंट्री कर के रूम में जा सकते हैं.’’

‘‘रिसैप्शनिस्ट ने मु झे अपनी बेशकीमती मुसकराहट के साथ आश्वस्त किया. मैडम को बिलकुल ही नहीं जानने की हिमाकत मैं ने और जाहिर नहीं की, चुपचाप ऐंट्री की, चाबी ली और रूम नं. 304 के गेट पर आ गया.

रूम नं. 305 भी बगल में ही था. अगलबगल 2 कमरे, आखिर चल क्या रहा है.

ब्रेकफास्ट में क्या और कब मिलने वाला है.

मेरे सब्र की इंतहा हो चुकी थी. जाते ही मैं ने सीधे 305 में जाने की सोची. फिर सोचा, अपने कमरे में जा कर फ्रैश हो जाना अच्छा रहेगा. कमरा बंद कर के अपना छोटा बैग खोल ही रहा था कि कमरे की डोरबैल बजी.

धड़कते दिल से मैं ने दरवाजा खोला, अटैंडैंट था. मु झे टौवेल, सोप, ब्रश आदि की वैलकम किट दे गया. मैं ने भी फ्रैश हो कर नहानाधोना शुरू कर दिया. शायद डोरबैल फिर से बजे इस उम्मीद में मैं ने बाथरूम का दरवाजा खुला ही रखा.

जब पूरा साबुन लगा कर शौवर ले रहा था तब ऐसा लगा की डोरबैल बजी है. मैं ने जल्दी से नहाना खत्म किया. गीले बदन ही टौवेल लपेटा और लगभग भागते हुए दरवाजा खोलने आया. दरवाजे पर कोई भी नहीं था, थोड़ा कौरिडोर में  झांका. खाली था. दरवाजे पर एक भीनी सी परफ्यूम की खुशबू तैर रही थी, जोकि मेरे साबुन की खुशबू के बावजूद मु झ तक पहुंच रही थी. गहरी सांस ले कर मैं वापस कमरे में आ गया.

कपडे़ बदले, गीला टौवेल डालने बालकनी में गया, हलकी धूप थी, टौवेल डाल कर बगल की बालकनी में देखा, रूम नं. 305 की बालकनी थी. मैं ने  झांकने की कोशिश की. कांच के दरवाजों के पार मोटा परदा लगा था. बालकनी में कुछ रंगबिरंगे कपड़े सूख रहे थे, न चाहते हुए भी मैं ने कपड़ों को देख कर रूम नं. 305 की अल्पवासिनी के बारे में कल्पनाएं की.  कुछ ही पलों में मैं इस कल्पना और अनुमान के खेल को खत्म करना चाहता था.

मैं ने कमरे में वापस आ कर बाल संवारे, सुबह स्टेशन पर मिले गुलाब के फूलों में से एक फूल उठा लिया और दरवाजा खोल कर 305 की डोरबैल बजा दी. बैल की आवाज मु झे भी सुनाई दी, लेकिन दरवाजा खोलने कोई नहीं आया. फिर बैल बजाई. कोई उत्तर नहीं. मैं ने दरवाजे का हैंडल घुमाते हुए हलका सा धक्का दिया, दरवाजा खुला हुआ था. मैं धीरे से अंदर दाखिल हो गया.

धीमी सी रौशनी, बिस्तर पर सफेद चादर और कमरे में फैली हुई वही परफ्यूम

की खुशबू जो कुछ ही देर पहले मैं ने अपने कमरे के दरवाजे पर महसूस की थी.

कमरा खाली था. सफेद तकिए पर एक गुलाब रखा हुआ था. मैं आगे बढ़ा बाथरूम से पानी गिरने की आवाज आ रही थी. मैं उधर ही बढ़ गया. बाथरूम का दरवाजा थोड़ा सा खुला था. सुरीली आवाज में गुनगुनाने की आवाज भी आ रही थी. बाथरूम के दरवाजे पर दस्तक दूं सोच थोड़ा सा बढ़ा ही था कि मोबाइल पर मैसेज आने की आवाज आई, ‘‘प्लीज, ब्रेकफास्ट पर मिलिए.’’

मेरे कदम रुक गए. वापस बिस्तर तक आया. अपने हाथ का गुलाब तकिए पर रखे गुलाब की बगल में रख दिया. अब वहां 2 गुलाब थे.

लौट कर 304 में आया और फिर धीमे कदमों से नीचे ब्रेकफास्ट लौबी की ओर चल पड़ा. बात तो ब्रेकफास्ट पर मिलने की ही हुई थी.

ब्रेकफास्ट लौबी लगभग खाली थी. मैं ने एक ऐसी टेबल चुनी जिस से कि उतरती हुई सीढि़यों और लिफ्ट दोनों पर नजर रखी जा सके. थोड़ी ही देर में वेटर आ गया. यानी मेरे लिए नाश्ते का और्डर पहले ही किया हुआ था.

नाश्ते के साथ चाय या कौफी बस इतना पूछने आया था वेटर. खाली इंतजार करने से बेहतर समझ मैं ने ब्रेकफास्ट मंगवा ही लिया. नजर तो खैर सीढि़यों की तरफ ही थी.

कुछ ही देर में वहां से एक जोड़ी कदम उतरते हुए दिखाई दिए. एक युवती नपेतुले कदमों से ब्रेकफास्ट लौबी में आई. मैं ने स्वागत में नजरें उठाईं, लेकिन वह तो मोबाइल में देख रही थी. मेरे प्रत्याशा के प्रतिकूल वह मेरी टेबल के बजाय साथ की दूसरी टेबल पर जा बैठी जहां एक पारिवारिक समूह पहले से खानेपीने और गपशप में लगा था.

मेरा इंतजार जारी रहा. कुछ और संभावित युवतियां आईं और गईं, लेकिन कोई अकेली नहीं थी. एक को तो लिफ्ट से कुछ पुलिस वाले ले कर गए, उस के चेहरे पर मास्क लगा था. एक और थी जो एक युवक के साथ थी और उस का चेहरा भी परदे में था. मैं ने यथासंभव धीरेधीरे नाश्ता खत्म किया, मेरी टेबल की तरफ कोई भी नहीं आई.

नाश्ते के बाद मैं ने बिल देना चाहा तो पता चला कि बिल दिया जा चुका है. मैं ने उस नंबर पर फोन लगाया, जो हमेशा की तरह नहीं उठाया गया. मैं ने मैसेज डाल दिया, ‘‘कहां हो तुम?’’ मैसेज चला गया, लेकिन डिलिवर नहीं हुआ.

मैं ने होटल का एक चक्कर लगाया, पूल साइड से भी हो कर आया, फिर रिसैप्शन पर जा कर पूछा 305 वाली मैडम, जिन्होंने मेरा कमरा बुक कराया था वे कौन हैं, कहां हैं?’’

रिसैप्शन वाली ने अपनी बेशकीमती मुसकान के साथ मु झे बताया कि गैस्ट की डिटेल शेयर करना होटल की पौलिसी के खिलाफ है.

उस ने एक और बम फोड़ा, 305 वाली मैडम एक अर्जेंट काम की वजह से चैकआउट कर गई हैं.

इस से आगे सुनने की मु झे जरूरत नहीं थी. फिर भी मैं ने पूछा, ‘‘क्या मेरे लिए कोई संदेश है?’’

जवाब मिला कि आप का कमरा आज के लिए बुक है, आप चाहें तो आज रातभर यहां रुक सकते हैं, मैडम तो चली गईं.

मैं अपने कमरे में वापस आ गया. एक

बार फिर से फोन लगाया, पर कोई फायदा नहीं. 305 में गया, कमरा खुला था और अब खाली था. कमरे में हलकाहलका वही परफ्यूम तैर रहा था जो सुबह मु झे 304 के दरवाजे पर मिला था.

फोन उठाया, दिल्ली के लिए वापसी की ट्रेन चैक की, डेढ़ घंटे बाद की एक ट्रेन में

करंट टिकट मिल रहा था. बुक कर लिया. लखनऊ में अब और बेगानी मेहमाननवाजी कराने का मन नहीं था. पता नहीं क्यों, इस टिकट का एक स्क्रीनशौट भी उस गुलाब के प्रोफाइल वाले नंबर पर भेज दिया. अब मैं और क्या उम्मीद कर रहा था.

स्टेशन पर आया, ट्रेन में चढ़ गया. सीट पर बैठ गया. मैसेज की घंटी बजी, उसी का था, ‘‘हैलो, मु झे बहुत अफसोस है. इतने करीब आ कर भी आप से मिल नहीं सकी. मेरे बीते हुए अतीत का कोई बंद हो चुका पन्ना अचानक मेरे सामने आ गया और मु झे वहां से निकलना पड़ा.  भविष्य अनजान है, लेकिन आप से मिल पाने की उम्मीद अब बहुत कम ही है. शुभ यात्रा. भविष्य के लिए आप को मेरी शुभकामनाएं.’’

बहुत गुस्सा आया कि क्या यह कहीं से मु झ पर नजर रख रही है. ट्रेन के गेट तक आया. आगेपीछे पूरे प्लेटफौर्म पर एक नजर डाली. कोई संदिग्ध युवती नहीं दिखी. सिगनल हो गया था. ट्रेन सरकने लगी थी. वापस सीट पर आया. गुस्से में दिल्ली की कुछ चुनिंदा गालियां टाइप कर दीं. भेजने ही वाला था कि उस की प्रोफाइल पिक्चर पर मेरी नजर गई. उस की प्रोफाइल पिक्चर अब बदल गई थी.

प्रोफाइल पिक्चर को बड़ा कर के देखा. एक तकिए पर 2 गुलाब रखे थे. एक जो वहां पहले से रखा था और दूसरा वह जिसे मैं वहां रख कर आया था.

रिश्ता एहसासों का: क्या हो पाई नताशा और आदित्य की शादी?

चाइल्ड स्पैशलिस्ट पूरे रोहतक में डंका बजता. बच्चे को कोई भी तकलीफ हो बस उन्होंने अगर बच्चे को छू भी लिया तो सम झो वह ठीक. उन का एक ही बेटा था आदित्य. स्कूलिंग के लिए देहरादून में दून स्कूल में एडमिशन कराया.

डाक्टर रवि का सपना कि मेरा बेटा मु झ से भी काबिल डाक्टर बने. लेकिन आदित्य को तो कहीं और ही उगना था. उस का सपना था कि वह वर्ल्ड फेमस कोरियोग्राफर बनेगा.

खैर, स्कूल के बाद इसलिए कालेज की पढ़ाई करने मुंबई गया ताकि पढ़ाई भी पूरी हो जाए और शौक भी. पढ़ाई तो पूरी न हो सकी अलबत्ता शौक पूरा हो गया. कोरियोग्राफी सीखने लगा.

वहां पर किसी से मुहब्बत हो गई. मातापिता को बताया तो पापा बोले, ‘‘आदित्य, तेरी खुशी से बढ़ कर हमारे लिए इस जहां में और कुछ नहीं, अगर तु झे लगता है कि वह लड़की तेरे लिए सही है तो हमें क्या एतराज हो सकता है.’’

‘‘लेकिन पा… पा वो… वो… नताशा खान है,’’ आदित्य थोड़ा सा   झिझकते और हकलाते हुए बोला.

‘‘अरे तो क्या हुआ बेटा? तुम घबरा क्यों रहे हो. ये हिंदूमुसलिम हम इनसानों ने बनाए? कुदरत ने नहीं. उस ने तो केवल इनसान बनाया था… हम उस के मातापिता से बात करते हैं.’’

‘‘थैंक्यू पापा, थैंक्यू मम्मी…’’ वह खुश हो कर मांपापा के गले लग गया.

मगर उधर नताशा ने अपने घर में आदित्य के बारे में बताया तो भूचाल आ गया.

‘‘कान खोल कर सुन लो नताशा, आदित्य से तुम्हारी शादी नहीं हो सकती और आज के बाद इस घर में मु झे आदित्य का नाम सुनाई नहीं देना चाहिए,’’ नताशा के डैड ने फरमान सुना दिया.

बात न बनती देख एक दिन नताशा ने

ठोस कदम उठाया और घर छोड़ कर चली आई आदित्य के पास.

बालिंग लड़की है, कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. कोर्ट मैरिज कर ली. आदित्य के मातापिता को भी इस शादी को मानना ही था.

कैसा है आपसी तालमेल किसी को कुछ नहीं पता. या तो आदित्य जाने या वह जिस के साथ रहना है अर्थात आदित्य की पत्नी नताशा.

नताशा को कभी खाना तो दूर चाय तक बनानी नहीं आती थी. आदित्य बचपन से ही घर से दूर रहा. पहले देहरादून और फिर मुंबई. अकसर खाना बाहर का ही खाता. कभी जब घर आता तो मां के हाथ का खाना खा कर खुश हो जाता.

नताशा का कभी अगर घर में ही चाय पीने का मन होता तो वह भी आदित्य ही बना कर देता. नताशा को बनानी नहीं आती. आदित्य ने बहुत कहा, ‘‘नताशा, तुम थोड़ाबहुत मां से खाना बनाना सीख लो या कोई कुकिंग कोर्स कर लो.’’

नताशा का एक ही जवाब होता, ‘‘मु झ से यह तो होगा नहीं… मैं खाना बनाने के लिए नहीं पैदा हुई… ये इतने होटल किसलिए हैं?’’ रोज का यही काम तीनों समय खाना बाहर से ही आता.

 

एक बार बर्ड फ्लू फैला हर तरफ… न तो आदित्य को कुछ बनाना आता, न ही

नताशा बनाती. तब भी खाना बाहर से और्डर किया जाता.

आखिर शरीर है, कब तक बाहर का अनहाइजीनिक खाना सहन करता. मशीन में भी अगर तेल की जगह पानी या अन्य कोई गंदा तेल डालोगे तो वह भी खराब हो जाएगी.

आखिरकार आदित्य का शरीर भी अनहाइजैनिक खाना और अधिक सहन नहीं कर पाया. जवाब देने लगा. उस खाने को खा कर आदित्य अधिकतर बीमार रहने लगा. एक दिन बहुत बुरी तरह से पेट में दर्द उठा. तब डाक्टर को दिखाया तो उन्होंने बताया कि फूड पौइजनिंग हो गई है.

फूड पौइजनिंग इस हद तक हो गई कि

3 महीने तक इलाज चला तब जा कर ठीक हुआ, अभी ठीक हुआ ही था कि फिर से आदित्य को लगा कि उसे कुछ प्रौब्लम है क्योंकि उस के पेशाब में मवाद सा उसे महसूस हुआ और साथ ही अकसर कमजोरी रहने लगी. कामधाम सब बंद हो गया. डाक्टर को दिखाने पर पता चला कि दोनों गुरदे खराब हो चुके हैं.

आदित्य ने मातापिता को तब जा कर अपनी बीमारी के बारे में बताया. नताशा ने अब तक सोच लिया था कि वह आदित्य को छोड़ देगी. वह इस बीमार और लाचार व्यक्ति के साथ नहीं रह सकती. आदित्य के मातापिता ने जब उस की बीमारी का सुना तो  झट से टैक्सी बुलाई और पहुंच गए बेटे के पास. डाक्टर से किडनी बदलने के लिए बात की. लेकिन किडनी दे कौन.  मातापिता दोनों ही शुगर और हार्ट पेशैंट हैं, अब रही नताशा, सो नताशा से कहा गया तो उस ने साफ शब्दों में कहा, ‘‘पापाजी मैं आदित्य को तलाक दे रही हूं. मैं अब इस व्यक्ति के साथ नहीं रह सकती,’’ कह कर उस ने अपने मायके के लिए गाड़ी पकड़ी और चली गई.

अगले ही दिन कोर्ट से तलाक के कागज आदित्य के पास पहुंच गए. आदित्य ने चुपचाप उन पर हस्ताक्षर कर दिए और मातापिता आदित्य को अपने साथ ले लाए.

आदित्य अब डायलिसिस पर है, लेकिन वह खुश है, वह मां के पास है, वह खुश है कि वह घर का साफसुथरा मां के हाथों का बना खाना खाता है. वह चहक उठता है जब मां उस के लिए दलिया या खिचड़ी भी बना देती हैं. वह खुश है नताशा की हर पल की चिकचिक नहीं सुननी पड़ती.

इधर नताशा कुछ दिन मुंबई अपनी सहेली के घर पर रही. लेकिन उस ने महसूस किया कि सहेली उसे बो झ सम झती है, उस पर उस का पति किसी न किसी बहाने से उसे छूता रहता. कभी जब उस की सहेली घर पर न होती और वह अकेली होती तो घर आ जाता और उसे परेशान करने लगता. आखिर उसे अलग से किराए का घर ले कर रहना पड़ा.

मगर यह क्या वह तो यहां भी सुरक्षित नहीं. अकसर बौस घर तक छोड़ने के बहाने आते और घंटों उस के घर बैठे रहते. कभी चाय, कभी कौफी लेते. कभी बहाने से नितंबों पर तो कभी गालों पर चपत मार कर बात करते.

एक बार तो कस कर सीने को पकड़ लिया. दर्द से उस की चीख निकल गई, जिस से ऊपर के फ्लैट वाली रूबी ने पूछा लिया, ‘‘क्या हुआ नताशा, फिर से छिपकली देख ली क्या?’’

‘‘उफ, हां भाभी, हां बहुत बड़ी छिपकली है, चली गई अब,’’  झूठ बोलना पड़ा. बौस जो ठहरे और तब बौस भी चले गए.

मगर नताशा सम झ चुकी थी कि अकेले रहना आसान नहीं. आदित्य को तलाक दे चुकी है, अब मायके के सिवा कोई जगह नजर नहीं आ रही थी.

आखिर मायके का रुख किया. सोचा वहीं पर कोई छोटीमोटी नौकरी कर के गुजारा कर लेगी. मगर घर पर सुरक्षित तो रहेगी, मगर बोया बबूल तो आम कहां से पाओगे.

वही हाल नताशा का था. घर में कदम रखते ही वह सम झ गई कि उस की यहां किसी को जरूरत नहीं. बिन बुलाया मेहमान है वह. डैड ने तो आते ही कह दिया, ‘‘आ गई न फिर से मेरे घर, क्या दिया आदित्य ने? उस की औकात ही नहीं थी, जो तु झे रखता. अब यहां क्या लेने आई है? जहां से आई है वहीं वापस जा. यह मेरा घर है धर्मशाला नहीं.

मातापिता हर समय तिरस्कार करते. भाईभाभी भी नौकरों की तरह काम लेते. उस पर भी तिरस्कृत होती रहती. आखिर एक स्कूल में नौकरी लगी. सोचा कुछ कमाएगी तो कोई कद्र भी करेगा.

यहां भी नजरों से नताशा के रूप का रस पीने वाले हजारों कीड़े थे. एक टीचर ने तो एक दिन सरेआम हथ पकड़ लिया और बोले, ‘‘नताशा डार्लिंग उस लौंडे से कुछ नहीं मिला क्या जो उसे छोड़ आई है?’’

उस पर दूसरा बोला, ‘‘अरे तो हम हैं न, इस की हर ख्वाहिश पूरी कर देंगे. एक बार हमें सीने से तो लगाए, हम तो कब से तड़प रहे हैं. नताशा डियर बोलो कब और कहां मिलें?’’

नताशा की आंखें भर आईं. आज उसे आदित्य की बेहद याद आने लगी. उस ने फिर से एक ठोस कदम उठाया. घर आई, अपना सामान पैक किया और चल पड़ी मुंबई वापस उन्हीं गलियों की तरफ.

 

रास्ते में ही आदित्य के नंबर पर फोन मिलाया. लेकिन किसी ने फोन नहीं उठाया. नताशा

लगातार रोए जा रही थी और अपनेआप से ही बोलती जा रही थी कि आदी प्लीज एक बार फोन उठाओ, मु झे तुम से माफी मांगनी है, मु झे वापस अपने घर आना है, मु झे तुम्हारे पास आना है. प्लीज आदी एक बार फोन उठा लो मेरा.

3-4 कौल के बाद आदित्य के पापा ने फोन उठाया. कहा, ‘‘हैलो.’’

‘‘हैलो, पापाजी, पापाजी मैं नताशा बोल

रही हूं.’’

‘‘हां बेटा मैं जानता हूं, कहो, कुछ काम था?’’

‘‘हां पापाजी, मु झे आदित्य से, आप सब से मिलना है, पापाजी मैं बहुत बुरी हूं, लेकिन फिर भी आप की बेटी हूं, मु झे माफ कर दीजिए, पापाजी आदित्य से भी कहें मु झे माफ कर दे और एक बार मु झ से बात कर ले. मैं वापस आ रही हूं पापाजी, मैं अपने घर वापस आ रही हूं. आप सब से माफी मांगने और आप सब का प्यार लेने,’’ नताशा बोले जा रही थी और रोए भी जा रही थी.

‘‘किस से माफी मांगेगी बेटा, वह तो चला गया हमें छोड़ कर हमेशाहमेशा के लिए, अभीअभी उस का क्रिमिशन कर के आ रहे हैं.’’

‘‘क्या, नहीं पापाजी, ऐसा नहीं हो सकता, कह दो यह  झूठ है, कह दो, एक बार कह दो कि यह  झूठ है,’’ और फोन हाथ से छूट गया और वह जारजार रोने लगी.

गर्विता: क्या अपने सपनों को पंख दें पाएगी वो?

‘‘दवाखा लो मां,’’ गर्विता ने अपनी बीमार मां को पानी का गिलास थमाते हुए कहा, ‘‘तुम कभी समय से दवा नहीं खातीं.’’

मां कोई जवाब दे पातीं उस से पहले ही गर्विता का फोन बजने लगा. उस ने देखा धीरज का फोन था.

गर्विता अभी कुछ सोच ही रही थी कि मां बोल उठीं, ‘‘वह इतने दिनों से फोन कर रहा है उठा कर बात क्यों नहीं कर लेती.’’

कुछ सोच कर उस दिन गर्विता ने फोन

उठा लिया.

‘‘तुम्हें कितने दिनों से फोन मिला रहा हूं उठाती क्यों नहीं?’’ उधर से तड़क कर धीरज ने पूछा, ‘‘मां बीमार हैं अपने पोते को बहुत याद कर रही हैं. तुम वापस कब आओगी? कल ही आ जाओ युग को ले कर और हां अब अपनी मां की बीमारी का बहाना मत बनाना. तुम ने 2 साल निकाल दिए… कभी पापा बीमार हैं, कभी मां. ऐसे भी कोई मांबाप अपनी बेटी को घर बैठा लेते हैं. मेरा बेटा भी मु झे ठीक से नहीं जानता. मु झे कुछ नहीं सुनना… कल के कल ही आ जाओ,’’ कह कर धीरज ने फोन काट दिया.

न सलाम न किसी का हालचाल ही पूछा. गर्विता न कुछ बोल सकी न उस ने कुछ बोलने का मौका ही दिया. बस एक हुक्म सा सुना कर फोन काट दिया.

गर्विता ने आंगन में खेलते युग की तरफ देखा तो पुरानी सब यादें ताजा हो गईर्ं. धीरज का फोन जैसे उस के पुराने जख्मों को हरा कर गया. उसे वह दिन याद आ गया जब शादी के 7 साल बाद उसे और धीरज को पता चला था कि वे मातापिता बनने वाले हैं. वे दोनों बेहद खुश थे, वो ही क्या परिवार में सभी खुश थे. सभी को इस खुशखबरी का कब से इंतजार था आने वाले नन्हे मेहमान के लिए.

रोज नए सपने सजातेसजाते 9 महीने कब बीत गए गर्विता को पता ही नहीं चला

और फिर उस के जीवन में वह खूबसूरत दिन आया जब उस ने एक नन्हे से राजकुमार को जन्म दिया. सासससुर तो अपना वंशज पा कर बेहद खुश थे. पोते के जन्म पर धीरज की मां बहू की बालाएं लेती नहीं थक रही थीं.

गर्विता युग को ले कर अस्पताल से घर

आई तो घर वालों ने उस का जोरदार स्वागत किया. उस ने सोचा सबकुछ है मेरे पास एक बच्चे की कमी थी वह भी युग ने पूरी कर दी.

वह मन ही मन बुदबुदाई कि यों ही कहते हैं कि कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता.

उस का मन कर रहा था कि जोर से चिल्ला कर सब से कहे कि मेरी दुनिया देख लो यहां कोई कमी नहीं.

मगर गर्विता नहीं जानती थी कि उस की दुनिया कैसे उलटपलट होने जा रही थी. उस की खुशी को जैसे उस की अपनी ही नजर लगने वाली थी.

अभी युग को पैदा हुए 1 हफ्ता ही हुआ

था कि गर्विता को धीरज का व्यवहार कुछ बदलाबदला सा लगने लगा. गर्विता खुद भी

नई परिस्थितियों में ढलने की कोशिश कर रही

थी और इस वक्त उसे सब से ज्यादा धीरज के साथ की जरूरत थी, लेकिन वह तो रोज एक

नई शिकायत करने लगा था. कभी कहता

तुम्हारे पास तो मेरे लिए वक्त ही नहीं है, कभी कहता इस कमरे में हर समय बच्चों के डायपरों और दूध की बदबू आती रहती है. उस ने

गर्विता का हाथ बंटाना बिलकुल बंद कर

दिया था.

एक दिन बोला, ‘‘मैं तुम्हारे साथ इस

कमरे में नहीं रह सकता. युग के रोने की वजह से मेरी नींद बहुत खराब होती है,’’ और अपना तकिया ले कर दूसरे कमरे में सोने चला गया. वह भूल चुका था कि गर्विता भी नईनई मां बनी है और उसे युग के साथसाथ अपना भी खयाल रखना है क्योंकि उस के प्रसव को अभी सिर्फ 1 ही हफ्ता हुआ था.

धीरज में अचानक आए इस बदलाव से गर्विता अचंभित थी, फिर भी उस ने सोचा कुछ दिनों में सब ठीक हो जाएगा. एक दिन उस ने

युग के लिए कुछ सामान मंगवाया पर जब वह पहुंचा तो धीरज ने कहा, ‘‘तुम कुछ कमाती तो

हो नहीं बस दिनरात मेरा पैसा उड़ा रही हो. मेरे पास तुम्हारे फुजूल खर्च के लिए पैसे नहीं हैं.

खुद कमाओगी तो पता चलेगा. पैसे पेड़ पर

नहीं उगते.’’

धीरज की यह बात गर्विता को अंदर तक तोड़ गई. उसे सम झ नहीं आ रहा था कि उस

की गलती क्या है. क्यों धीरज उस से इस तरह पेश आ रहा. यों ही कशमकश में कुछ दिन और बीत गए. गर्विता को आभास हो रहा था कि रोज धीरज उस से दूर होता जा रहा है फिर भी वह

खुद को धैर्य बंधा रही थी कि जल्द ही सब ठीक हो जाएगा.

मगर उस रोज गर्विता के सब्र का बांध

टूट गया जब धीरज ने शराब पी कर गुस्से में उस से कहा, ‘‘खुद को आईने में देखो कितनी मोटी होती जा रही हो. दिनभर बैठ कर बस खाती ही रहती हो. कुछ काम भी किया करो. मैं ने तुम से शादी कर के बहुत बड़ी गलती की. न तुम से शादी करता और न ही यह मुसीबत पैदा होती. जा कर अपनी मां से अपनी सेवा करवाओ. जितना दूध यहां अपने और अपने बेटे के लिए मंगवाती हो वहां अपनी मां के घर में मंगवाना. सब लड़कियां प्रसव के समय मायके जाती हैं. एक तुम हो यहां मेरी छाती पर मूंग दल रही हो. कल तुम्हें तुम्हारी मां के घर छोड़ आऊंगा. जब यह

6 महीने का हो जाए लौट आना. जब से पैदा

हुआ है एक रात चैन से नहीं सोया, ऊपर से

इतना खर्चा.’’

गर्विता तो यह सब सुन कर सन्न रह गई. उस से कुछ कहते नहीं बना. बस रोती ही जा रही थी. उस की सास ने उसे सम झाया कि अभी धीरज नशे में है मैं सुबह उस से बात करूंगी.’’

यह क्या तरीका है अपनी पत्नी से बात करने का और कौन सा बाप अपने बेटे के बारे में इस तरह सोचता है.

सुबह हुई तो धीरज के मांबाप ने उसे सम झाने की, कोशिश की लेकिन वह नहीं माना और गर्विता को उस के मायके छोड़ आया. उस ने वहां से चलतेचलते अपनी बात फिर दोहराई कि जब युग 6 महीने का हो जाए खुद लौट आना. यह कह कर चला तो आया लेकिन उसे इस बात का जरा भी एहसास नहीं हुआ कि वह जिसे अपने घर से ले कर चला था और जिस गर्विता को छोड़ कर जा रहा है. वह तो अलग गर्विता थी. ससुराल से मायके तक आतेआते गर्विता ने कभी न लौटने का निश्चय कर लिया था. उस ने सोच लिया था कि वह अपने पैरों पर खड़ी होगी और अपने बेटे को खुद अकेली पालेगी साथ ही यह भी कि उस के बेटे को ऐसी घटिया सोच वाले बाप की जरूरत नहीं है.

मायके आ कर गर्विता ने अपने मातापिता को सारी बात बताई तो उन्होंने भी उस का पूरा साथ देने का वादा किया. अब उसे युग की चिंता नहीं थी क्योंकि उस की देखभाल करने के लिए उस की नानी जो थीं. गर्विता ने कुछ दिनों में खुद को समेटा. धीरज से शादी कर के वह भूल गई थी कि उस ने एमबीए किया है. वह जानती थी इतने लंबे समय के बाद उसे कहीं नौकरी नहीं मिलेगी इसलिए उस ने अपना ही कुछ काम करने का मन बनाया.

उसे अपनी एक सहेली का खयाल आया

जो कैलिफोर्निया में इंडियन स्टोर चलाती

थी और कई बार गर्विता को बता चुकी थी कि वहां हिंदुस्तानी चीजों की कितनी मांग है. उस ने अपनी सहेली को फोन लगाया और उस से बात की कि वह हिंदुस्तान से उसे हस्तशिल्प और हथकरघा का सामान भेजेगी जिसे वह सीधे कारीगरों से खरीदेगी ताकि उन की बनाई हुई चीजें सीधी विदेश भेजी जाएं और उन्हें भी अच्छा मुनाफा हो.

गर्विता की सहेली को उस की बात पसंद आई और उस ने मदद का वादा किया. धीरेधीरे गर्विता का काम चल निकला. दूसरे शहरों और देशों में भी उस के सामान की मांग होने लगी. ज्यादा फायदा होने के कारण काफी कारीगर उस के साथ जुड़ गए थे. अब वह अपना एक ऐक्सपोर्ट हाउस शुरू करने जा रही थी.

इन सालों में गर्विता को धीरज का खयाल तो कई बार आया, लेकिन वह कभी यह फैसला नहीं कर सकी कि उसे उस रिश्ते का करना क्या है. कभीकभी सोचती थी कि कहीं वह युग के साथ अन्याय तो नहीं कर रही. आखिर एक बच्चे को मांबाप दोनों की जरूरत होती है.

आज धीरज का बरताव देख कर वह फैसला करने ही जा रही थी कि पापा ने आवाज लगाई, ‘‘बेटा. बावर्ची ने खाना परोस दिया है,

आ जाओ.’’

पापा की आवाज जैसे उसे वर्तमान में वापस खींच लाई. उस ने नजर उठा कर देखा तो नन्हा युग अपने नाना के कंधे पर बेसुध सो रहा था. उसे देख कर वह उठी उस के सिर पर हाथ फेर कर मन ही मन बोली कि इसे उस घटिया बाप की जरूरत नहीं. इस के पास मेरे पापा हैं, जिन्होंने मु झे इस लायक बनाया कि आज मैं अपने पैरों पर खड़ी हूं.

अगले दिन सुबह अपनी अलमारी से कुछ कागज निकाल कर गर्विता जींसटौप

और पैंसिल हील पहन कर धीरज के घर पहुंची तो वह उसे देख कर चकित रह गया फिर भी खुद को संभाल कर कड़क कर बोला, ‘‘अकेली आई हो, मेरा बेटा युग कहां है? तुम से कहा था उसे ले कर आना.’’

तभी धीरज के मातापिता भी आ गए. गर्विता ने आदर से उन्हें नमस्ते की और अपनी सास की तबीयत पूछी.

तभी धीरज बोल पड़ा, ‘‘मां बीमार हैं तुम्हें यहां आ कर उन की सेवा करनी चाहिए. अब उन से घर का काम नहीं होता.’’

आज गर्विता से चुप न रहा गया. अत: बोली, ‘‘मेरे मातापिता भी बीमार थे. तुम उन्हें एक बार भी देखने आए? आना तो छोड़ो तुम ने तो फोन पर भी उन का हाल तक नहीं पूछा, फिर मु झ से यह उम्मीद तुम्हें क्यों है कि मैं तुम्हारे घर आ कर उन की देखभाल करूंगी और आज जिसे तुम बारबार अपना बेटा कह रहे हो याद करो उस के दूध तक का खर्चा तुम उठाना नहीं चाहते थे. एक बात बता दूं धीरज सिर्फ जन्म देने से कोई आदमी बाप नहीं बन जाता.’’

हमेशा चुप रहने वाली गर्विता के मुंह से इतनी बात सुन कर धीरज सकते में आ गया, लेकिन पुरुष होने का कुछ अहं अभी बाकी था सो उस ने अपना तुरुप का पत्ता निकाला, ‘‘ठीक है, अगर तुम्हें इतनी शिकायतें हैं तो मैं तलाक के कागज बनवा कर तुम्हारे घर भेज दूंगा, दस्तखत कर देना.’’

इस के लिए तो गर्विता तैयार

ही थी. अपने पर्स से एक कागज निकाल कर धीरज से बोली, ‘‘इतनी तकलीफ करने की कोई जरूरत नहीं. कागज मैं ने बनवा लिए हैं, दस्तखत भी कर दिए हैं. तुम भी दस्तखत कर देना और हां न ही मु झे तुम से कुछ चाहिए न ही मैं तुम्हें कुछ दूंगी, युग भी नहीं,’’ कह कर वह वापस जाने के लिए मुड़ी ही थी कि उस ने दोबारा अपने पर्स में हाथ डाला और एक निमंत्रणपत्र निकाल कर धीरज के हाथ में थमा दिया, ‘‘तुम ने कहा था न खुद कमाओ, कल मेरे ऐक्सपोर्ट हाउस का उद्घाटन है, युग ऐक्सपोर्ट्स, सपरिवार आना, मु झे अच्छा लगेगा.

‘‘यों तो तुम्हारे दिए जख्मों को कभी भूल नहीं पाऊंगी लेकिन सिर्फ एक बात के लिए हमेशा तुम्हारी शुक्रगुजार रहूंगी. अगर तुम मु झे मेरे मायके छोड़ कर नहीं आए होते तो मैं आज वह नहीं होती जो हूं. मेरे मातापिता ने मु झे नाम दिया था गर्विता लेकिन तुम ने मु झे गर्विता बनाया है. आज मु झे अपनेआप पर गर्व है,’’ कह कर गर्विता पलट कर बाहर निकल गई.

धीरज अपना सिर पकड़ कर वहीं बैठा रह गया. उस की मां ने उस के सिर पर हाथ रखा और धीरे से बोलीं, ‘‘बेटा जो बोया पेड़ बबूल का तो फूल कहां से होय.’’

इधर गर्विता अपनेआप को आजाद और बहुत हलका महसूस कर रही थी, लेकिन धीरज के घर से निकलतेनिकलते उसे आज फिर 2 पंक्तियां याद आ गईं?

‘‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता कहीं जमीन नहीं मिलती कहीं आसमां नहीं मिलता…’’

Father’s day 2023: पिता का वादा

कालेज कैंटीन में अपने मित्रों के संग मस्ती के आलम में था.

‘‘चलो मित्रो, सिनेमा देखने का बहुत मन कर रहा है. थोड़ा मौल घूमते हैं, फिर फिल्म भी देख लेंगे,’’ रोहन ने अपनी राय रखी.

‘‘हूं, वैसे मेरा भी क्लास अटैंड करने का मन नहीं,’’ अनिरुद्ध ने रोहन की बात का समर्थन किया.

मुदित ने कुछ सोचा और फिर हामी भर दी, ‘‘चलो मित्रो, लेकिन किधर चलने का इरादा है?’’

तीनों मित्र कालेज से बाहर आए. औटो में बैठ कर 3-4 मिनट में सिटी वौकमौल पहुंच गए.

तीनों मित्रों ने समय व्यतीत करना था. एक बार पूरा मौल घूम लिया और उस के बाद फूड कोर्ट में बैठ कर लंच किया.

मौल में ही पीवीआर था, वहीं मूवी देखने चले गए. मूवी के इंटरवल के दौरान रोहन पौपकौर्न खरीद रहा था. मुदित वौशरूम गया.

यह क्या एकदम सामने उस के पिता शूशू कर रहे थे. बृजेश का मुंह दीवार की ओर था. उन्होंने मुदित को नहीं देखा. लेकिन मुदित पिता को देख कर घबरा गया और चुपचाप बिना शूशू किए अपनी सीट पर बैठ गया.

मुदित का ध्यान अब सिनेमा स्क्रीन के स्थान पर अपने पिता पर था. वे फिल्म देख रहे हैं. उन का औफिस तो नेहरू प्लेस में है. यहां साकेत में क्या कर रहे हैं? माना किसी क्लाइंट से मिलने आए होंगे लेकिन फिल्म देखने में 3 घंटे क्यों खराब करेंगे? वह तो कालेज स्टूडैंट है. कालेज में मौजमस्ती चलती है, लेकिन उस के पिता भी औफिस छोड़ मौजमस्ती करते हैं इस बात का खयाल मुदित को पहले कभी नहीं आया. उस की नजर अंदर आने वाले गेट पर टिकी हुई थी.

यह क्या? उन के साथ एक महिला भी है. महिला की कमर में हाथ डाले बृजेश दूसरी ओर की सीट पर बैठ गए.

अब मुदित का पूरा ध्यान फिल्म से हट गया. हाल के भीतर अंधेरा हो गया. फिल्म इंटरवल के बाद शुरू हो गई. उस के पिता इस महिला के साथ क्या कर रहे हैं? इस प्रश्न ने उस का दिमाग खराब कर दिया.

फिल्म समाप्ति पर बृजेश अपनी महिला मित्र के साथ आगे चल रहा था. बृजेश का हाथ महिला की कमर पर था.

मुदित सोच रहा था. 20 का वह खुद है. बृजेश 50 पार कर गया है. यह उम्र उस के इश्क लड़ाने की है, उस की तो कोई गर्लफ्रैंड है नहीं, उस के पिताश्री इश्क लड़ाते फिर रहे हैं. उस का दिमाग गरम हो गया. उस ने अपने मित्रों रोहन और अनिरुद्ध के साथ बाकी कार्यक्रम रद्द किया और मालवीय नगर मैट्रो स्टेशन से गुरुग्राम की मैट्रो पकड़ी.

मुदित ने अपने पिता को देख कर थोड़ी दूरी बना ली थी, कहीं उसे देख कर नाराज न हो जाएं, क्लास छोड़ कर फिल्म देख रहा है. बृजेश महिला मित्र के साथ इतना डूबा हुआ था कि उसे एहसास ही नहीं हुआ, उस की हरकत उस के बेटे ने देख ली है.

गुरुग्राम अपने घर पहुंच कर मुदित अपने कमरे में कैद हो गया. बिस्तर पर लेटे हुए घूमते पंखे को देखते हुए उस की आंखें के सामने उस के पिता और उस महिला की शक्ल ही घूम रही थी. उस की मां साधारण गृहिणी हैं. उन की तुलना में वह महिला जवान है और खूबसूरत भी है. इस का यह मतलब तो कतई नहीं है, उस की मां और उस की अनदेखी हो.

बृजेश के पिता का ऐक्सपोर्ट का बढि़या काम है और औफिस नेहरू प्लेस में है. मुदित सोचने लगा, क्या वह महिला औफिस में कार्यरत है या कोई और चक्कर है?

रात को बृजेश अकसर 10 बजे के आसपास आते थे. मुदित की मां बृजेश की प्रतीक्षा करती मिलतीं.

आज मुदित भी पिता की प्रतीक्षा करने लगा. उस के पिता रात 11 बजे आए. फोन कर के पहले ही देर से आने का बता दिया, काम अधिक है. क्लाइंट के साथ मीटिंग है. डिनर औफिस में कर लेंगे. मुदित की मां सो गई थीं. उन्हें बृजेश की काली करतूतों का कोई भी इल्म नहीं था.

आज मुदित का कालेज क्लास छोड़ना एक करिश्माई ही रहा. उस की मौजमस्ती ने पिता का दूसरा रूप दिखला दिया. वह जागता रहा.

मुदित की आंखों से नींद गायब थी. वह ड्राइंगरूम में बैठा पिता की प्रतीक्षा कर रहा था. छोटी लाइट जल रही थी. मुदित टीवी पर मूवी देख रहा था. टीवी की आवाज बंद थी.

बृजेश ने फ्लैट का मेन गेट अपनी चाबी से खोला. मुदित को देख कर चौंके. पूछा, ‘‘आज सोया नहीं?’’

‘‘बस नींद नहीं आ रही थी.’’

‘‘और कालेज कैसा चल रहा है?’’

‘‘ठीक चल रहा है.’’

‘‘कालेज के बाद क्या सोचा है?’’

‘‘आप बताइए पापा, एमबीए करूं या आप का औफिस जौइन करूं?’’

‘‘एमबीए जरूर करो. फिर तो मेरा

औफिस तुम्हारा ही है. रात बहुत हो गईर् है. मैं

भी थका हुआ हूं. सुबह फिर औफिस जल्दी

जाना है. एक कन्साइनमैंट कल ही भेजना है. गुड नाइट मुदित.’’

मुदित ड्राइंगरूम में ही बुत बना बैठा रहा. बृजेश चले गए. मुदित की यही सोच थी कि क्या उस के पिता सचमुच औफिस में व्यस्त थे या फिर उस महिला के साथ?

मुदित के मन में हलचल शुरू हो गई. अगले दिन कालेज में क्लास अटैंड कर के नेहरू प्लेस पहुंच गया. दोपहर का 1 बज रहा था. बिल्डिंग की पार्किंग में उसे पिता की न तो हौंडा सिटी कार नजर नहीं आई और न ही औडी. तीसरी कार मारुति डिजायर तो मम्मी के लिए घर पर रहती है. वह कालेज मैट्रो में आताजाता है. उस का दिमाग घूम गया. क्या आज फिर उस के पिता महिला मित्र के साथ हैं या फिर औफिस के काम से कहीं गए हैं? इस प्रश्न के जवाब के लिए वह औफिस पहुंच गया.

छोटे साहब को देख कर स्टाफ ने मुदित की आवभगत की. एक सरसरी नजर स्टाफ

पर मारी. वह महिला नजर नहीं आई, जो कल पिता के साथ थी.

मुदित कुछ देर औफिस में बैठा. कन्साइनमैंट का पूछा, जो जाना था. जान कर हैरानी हुई, कन्साइनमैंट तो 2 दिन पहले ही जा चुका है. अगला कन्साइनमैंट 10 दिन बाद जाएगा, इसलिए औफिस में बेफिक्री है.

बुझे मन मुदित घर पहुंच कर बिस्तर पर औंधा लेट गया. पापा शर्तिया उस महिला के संग ही होंगे. यदि ऐसा ही है तब पापा मम्मी और उस के साथ गलत कर रहे हैं. लेकिन इस बात का सत्यापन होना आवश्यक है वरना उस को झूठा घोषित कर दिया जाएगा.

मुदित का दिमाग फिर से घूम गया कि अगर वह महिला पापा की बिजनैस क्लाइंट है

तब उस के साथ कमर में हाथ डाल कर फिल्म नहीं देखी जाती है. बिजनैस क्लाइंट के  संग फाइवस्टार होटल में लंच और डिनर होते हैं. पापा उसे और मम्मी को भी 2-3 बार ऐसे डिनर पर ले गए थे.

मुदित पापा की प्रतीक्षा करता रहा. आज भी पापा रात के 12 बजे आए. मम्मी सो गई थीं. कल की भांति मुदित ड्राइंगरूम में हलकी मध्यम रोशनी में टीवी देख रहा था. टीवी की आवाज बंद थी और दिमाग कहीं और था.

बृजेश रात के 12 बजे आए. अपनी चाबी से फ्लैट का मेन गेट खोला. मुदित को बैठा देख ठिठके. पूछा, ‘‘क्या बात है, बंद आवाज में टीवी देख रहे हो?’’

‘‘बस यों ही पापा. नींद नहीं आ रही थी. शाम को सो गया था.’’

‘‘गुड नाइट,’’ कह कर बृजेश अपने कमरे में चले गए. उन्हें इस बात का इल्म नहीं था, मुदित औफिस गया था.

मुदित का दिमाग खराब होता जा रहा था. हालांकि मुदित कालेज मैट्रो से जाता था. बाइक को मैट्रो पार्किंग में खड़ी करता था. लेकिन अगले दिन उस ने बाइक स्टार्ट की लेकिन कालेज नहीं गया.

मुदित नेहरू प्लेस पहुंच गया. उस ने बाइक को पार्किंग में खड़ा किया और अपने पिता की प्रतीक्षा करने लगा.

बृजेश 12 बजे औफिस पहुंचे. 2 घंटे औफिस में रहे.

मुदित पार्किंग में खड़ा हौंडा सिटी कार

पर नजरें गड़ाए था. एक महिला

कार के पास आई और उस ने फोन किया.

मुदित ने उस महिला के आगे से गुजरते हुए उस की शक्ल देखी. फिर मन ही मन बड़ाया कि

अरे यह तो वही है, जो पापा के साथ फिल्म

देख रही थी. मुदित कुछ दूर खड़ा था. बृजेश आए, उस महिला के गले मिले और फिर कार में बैठ गए.

मुदित के देखतेदेखते कार उस के आगे से निकल गई. कुछ देर वह सोचता रहा फिर औफिस चला गया.

‘‘पापा हैं?’’

‘‘पापा तो बाहर मीटिंग में गए हैं,’’ सैक्रेटरी ने बताया.

‘‘ओह नो, मैं ने अपने मित्रों के साथ लंच करना है, फिर फिल्म देखनी है. मेरी पौकेट मनी खत्म हो गई. पापा से 2 हजार रुपए लेने के लिए औफिस आया हूं.’’

सेक्रेटरी ने बृजेश को फोन पर अनुमति

ले कर कैशियर से 2 हजार रुपए मुदित को दिलवा दिए.

मुदित के पास पैसे थे लेकिन वह जासूसी करने औफिस आया था. 2 हजार रुपए जेब में रख कर कुछ देर तक नेहरू प्लेस की कंप्यूटर मार्केट घूमता रहा, फिर घर चला गया.

रात को मुदित ने अपने पिता की प्रतीक्षा नहीं की. रात का डिनर 8 बजे कर लिया और अपने कमरे में टीवी पर फिल्म देखने लगा.

बृजेश भी 10 बजे आ गए. पत्नी संग डिनर किया. फिर मुदित के कमरे में जा कर पूछा, ‘‘औफिस गए थे?’’

‘‘वह क्या है पापा, फ्रैंड्स के साथ फिल्म देखनी थी और लंच भी करना था.’’

‘‘प्रोग्राम था तो मम्मी से सुबह रुपए ले लेते?’’

‘‘बस अचानक प्रोग्राम बना.’’

‘‘गुड नाइट,’’ बृजेश को अभी भी कोई खटका नहीं लगा.

मुदित ने उस महिला का फोटो पार्किंग में दूर से खींचा था. वह फोटो देख रहा था, दूरी के कारण फोटो अस्पष्ट सा था.

जहां लड़के को गर्लफ्रैंड के साथ घूमना चाहिए था, वहां पिताश्री घूम रहे हैं. मुदित ने भी ठान लिया. फसाद की जड़ तक पहुंच कर ही सांस लेगा.

मुदित ने कालेज जाना छोड़ दिया. अपने मित्रों को बोल दिया कि कुछ दिनों के लिए परिवार के साथ बाहर जा रहा है.

मुदित बाइक ले कर पार्किंग में खड़ा हो जाता. वह महिला दोपहर को आती और बृजेश

के साथ कार में चली जाती. मुदित ने उन के मोबाइल से फोटो खींच लिए. मुदित ने उन का पीछा कर के उन के क्रियाकलापों को 1 सप्ताह तक देखा. एक दिन वह महिला नहीं आई. बृजेश कार से कालकाजी एक फ्लैट में गए और शाम को बाहर आए.

बृजेश के जाने के बाद मुदित ने उस फ्लैट की डोरबैल बजाई. 2-3 बार डोरबैल बजाने के बाद फ्लैट गेट खुला. उस महिला ने गेट खोला. उस के वस्त्र अस्तव्यस्त थे.

‘‘तुम कौन?’’

‘‘यही प्रश्न मैं पूछता हं?’’

महिला ने दरवाजा बंद करने की कोशिश की तो मुदित फुरती से फ्लैट के भीतर हो गया.

‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई भीतर आने की?’’ वह महिला बिगड़ गई.

मुदित ने फ्लैट का गेट बंद कर दिया,

‘‘मेरी बात ध्यान से सुनो… बृजेश से मिलना बंद कर दो.’’

‘‘फौरन निकल जाओ, तुम हो कौन?’’ महिला मुदित का हाथ पकड़ कर फ्लैट का गेट खोलने लगी.

‘‘बृजेश मेरे पिताश्री हैं, इसलिए कह रहा हूं. तुम्हारे इरादे पूरे नहीं होने दूंगा. सारे संबंध तोड़ दो वरना वैसे भी टूटे समझो. आज नहीं तो कल टूटे ही समझ. हमारे पिताश्री जो काम चोरीछिपे कर रहे हैं. मैं शर्त लगा कर कहता हूं कल से मिलना छोड़ देंगे.’’

मुदित ने फ्लैट का गेट खोला और दनदनाता सीढि़यां उतर गया.

बृजेश शाम के 7 बजे ही घर पहुंच गए.

इस समय पिता को घर पर देख कर

मुदित को हैरानी हुई. उस महिला ने बृजेश को फोन पर बता दिया था.

बृजेश ने मुदित को तोलना चाहा, ‘‘आजकल कालेज नहीं जा रहे हो क्या बात है?’’

‘‘रोज जाता हूं.’’

‘‘लगता नहीं है. आजकल बड़ी फिल्में देखी जा रही हैं. औफिस भी गए थे.’’

‘‘वह क्या है, आजकल 2 प्रोफैसर छुट्टी

पर हैं, इस कारण कुछ फिल्म देखने चले जाते. इस चक्कर में पौकेट मनी जल्दी खत्म हो गई,

तो आप से पैसे लेने आया था. फ्रैंड्स को पार्टी देनी थी.’’

‘‘फिल्म और पार्टी में थोड़ा ध्यान कम करो. पढ़ने में ध्यान लगाओ.’’

मुदित ने इस महिला के साथ उन के फोटो व्हाट्सऐप कर दिए, ‘‘पापा, आप इसे छोड़ दो. मैं पीछा करना छोड़ दूंगा.’’

मुदित की मां पितापुत्र के वार्त्तालाप को सम?ाने में असमर्थ थीं.

बृजेश स्तब्ध हो गया. अपने हावभाव को काबू करते हुए कहा, ‘‘मैं सोचता हूं, तुम्हारी ट्रेनिंग अभी से स्टार्ट कर दूं. आखिर मेरा व्यापार तुम ने ही संभालना है. औफिस पैसे मांगने नहीं, काम सीखने आया करो.’’

‘‘कालेज की क्लास अटैंड करने के बाद आ सकता हूं.’’

‘‘कल से आना शुरू करो.’’

‘‘जी पापा.’’

कमरे में जाते ही मुदित ने एक और व्हाट्सऐप और भेजा, ‘‘मैं उम्मीद करता हूं, अब से आप मम्मी के साथ रहेंगे. उस महिला को छोड़ देंगे साथ में अन्य के साथ भी ऐसा किसी प्रकार का संबंध नहीं रखेंगे. आप को पक्के वाला वादा करना होगा.’’

‘‘मेरा वादा है,’’ बृजेश ने उत्तर भेजा.

कर्तव्य: जब छूटा आदिल के पिता का साथ

आदिल के अब्बू की तबीयत आज कुछ ज्यादा ही खराब लग रही थी, इसलिए उस ने आज खबरों के लिए फील्ड पर न जा कर सरकारी अस्पताल के डाक्टर वर्माजी से मिलने अपने अब्बू को ले कर अस्पताल पहुंच गया था.

आदिल के अब्बू को दमे की दिक्कत थी, जिस की वजह से वे बहुत ही परेशान रहते थे. डाक्टर वर्मा की दवा से उन को फायदा था, इसलिए वह अब्बू का इलाज उन से ही करा रहा था.

जब आदिल अस्पताल पहुंचा, तो डाक्टर साहब अभी अपने कमरे में नहीं बैठे थे. पड़ोस में अधीक्षक साहब के औफिस से हंसीमजाक की आवाजें आ रही थीं. उस ने अंदाजा लगा लिया कि डाक्टर साहब अधीक्षक साहब के साथ बैठे होंगे.

आदिल अब्बू को एक बैंच पर लिटा कर खुद भी वहीं एक बैंच पर बैठ गया. तभी उस की नजर एक औरत पर पड़ी, जो अपने बीमार बच्चे को गोद में ले कर इधरउधर भटक रही थी, लेकिन काफी वक्त बीत जाने के बाद भी उस के बच्चे को अभी तक किसी डाक्टर ने नहीं  देखा था.

वह औरत अस्पताल में मौजूद स्टाफ से अपने बच्चे के इलाज के लिए गुहार लगा रही थी कि डाक्टर साहब को बुला दो, लेकिन कोई उस की बात सुनने को तैयार नहीं था. शायद उस का बच्चा काफी बीमार था, लेकिन कोई भी उस की मदद के लिए सामने नहीं आया था.

आदिल उस औरत को देख कर इतना तो समझ गया था कि वह काफी गरीब है, वरना वह इस कदर परेशान नहीं हो रही होती. अगर वह पैसे वाली होती, तो अभी तक बाहर के किसी प्राइवेट अस्पताल में जा कर अपने बच्चे को दिखा देती.

जानते हैं, सरकारी अस्पतालों की हालत. सरकार सरकारी अस्पताल इसीलिए खुलवा रही है कि गरीबों और बेबसों का मुफ्त इलाज हो सके, लेकिन इन भ्रष्ट डाक्टरों के चलते सरकारी अस्पताल इन की कमाई का अड्डा बन गए हैं, क्योंकि इन की इनसानियत मर चुकी है और वे गरीबों का खून चूसने से भी बाज नहीं आते.

आदिल ने एक नजर सामने लगी दीवार घड़ी पर डाली, जो सुबह के  11 बजने का संकेत दे रही थी. अस्पताल में मरीजों की भीड़ भी बढ़ती जा रही थी, लेकिन अभी तक किसी कमरे में कोई डाक्टर नहीं बैठा था, जिस से उस औरत के साथसाथ बाकी मरीज भी परेशान हो रहे थे.

आदिल को आज तक सरकारी महकमे का काम करने का तरीका समझ नहीं आया कि जनता के रुपयों से वे लोग तनख्वाह पाते हैं, लेकिन इस के बावजूद कभी कोई जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाना चाहते.

आदिल एक टैलीविजन चैनल का पत्रकार होने के चलते कई बार सरकारी अस्पतालों की इस तरह की खबरें चला चुका है, लेकिन फिर भी हाल नहीं बदले, क्योंकि कमीशनबाजी के चलते ऊपर से नीचे तक सभी भ्रष्ट बैठे थे, जिन का हिस्सा पहले ही पहुंच जाता था.

लेकिन बारबार खबरें चलाने के चलते उन लोगों ने आदिल के लिए जरूर परेशानी खड़ी कर दी थी. एक बार उस ने इसी अस्पताल की एक खबर डाक्टरों के द्वारा कमीशनबाजी के चलते बाहर के मेडिकल दुकानों की लिखी जाने वाली दवाओं पर चला दी थी, उसी दौरान उस को कुछ दवाओं की जरूरत पड़ गई थी, जो साधारण सी दवाएं थीं, लेकिन फिर भी उस की खबर चैनल पर चलने से नाराज किसी मैडिकल वाले ने उसे वे दवाएं नहीं दी थीं. इस के बाद उस ने किसी दूसरे पत्रकार साथी को भेज कर वे दवाएं मंगवाई थीं.

उस वक्त उसी पत्रकार ने आदिल को समझाया था कि ज्यादा बड़े पत्रकार मत बनो, पूरा सिस्टम भ्रष्ट है. तुम इन को नहीं सुधार सकते, लेकिन तुम जरूर किसी दिन इन के चक्कर में आ कर बहुतकुछ गंवा दोगे.

उस हादसे के बाद अब आदिल अस्पताल की कोई भी नैगेटिव खबर जल्दी नहीं चलाता था कि दोबारा वह इस तरह की मुसीबत में पड़े.

‘‘बाबूजी, हमारे बच्चे को बचा लो. इसे बहुत तेज बुखार हो गया है. इस के सिवा हमारा कोई भी नहीं है.’’

तभी किसी की आवाज सुन कर आदिल की तंद्रा टूटी. उस ने देखा कि वही औरत अपने बच्चे को ले कर उस के पास आ गई थी और रोरो कर वह उस से मदद की गुहार लगा रही थी.

उस औरत को अपने पास देख आदिल जरूर समझ गया था कि अस्पताल में मौजूद किसी शख्स ने उसे बता दिया था कि वह एक पत्रकार है.

उस औरत के आंसू और बच्चे के लिए तड़प उस से अब देखी नहीं जा रही थी. उस का चेहरा गुस्से से लाल होता जा रहा था, लेकिन वह यह भी अच्छी तरह जानता था कि अगर उस ने किसी तरह का कोई कदम उठाया, तो उस के लिए बहुत ही घातक साबित होगा, क्योंकि वह जानता था कि ये डाक्टर रूपी गिरगिट हैं, जो रंग बदलते देर नहीं करेंगे, जिस का नतीजा भी उस को भुगतना पड़ सकता है.

आदिल ने एक नजर बैंच पर लेटे अपने अब्बू पर डाली, जो उस की ओर ही देख रहे थे. उस की मनोदशा को वे अच्छी तरह से समझ रहे थे.

‘‘जो होगा देखा जाएगा,’’ आदिल ने मन ही मन तय किया. वह बैंच से उठा और मोबाइल का कैमरा चालू कर उस बेबस मां और उस के बीमार बच्चे के साथसाथ अस्पताल में मौजूद मरीजों की लगी भीड़ की एक वीडियो क्लिप बना ली. यही नहीं, उस ने एक बयान भी उस औरत का कैमरे में ले लिया कि वह कब से अपने बीमार बच्चे को ले कर भटक रही है वगैरह. फिर आदिल ने अधीक्षक के औफिस के पास पहुंच कर एक वीडियो अधीक्षक और डाक्टरों की पार्टी करते बना ली और चैनल पर खबर भेज कर खबर ब्रेक करा कर ट्वीट भी करा दी.

खबर चैनल पर चलने के बाद  5 मिनट भी नहीं गुजरे कि अस्पताल में हड़कंप मच गया.

औफिस के अंदर बैठे अधीक्षक व डाक्टर हड़बड़ाते हुए बाहर निकले और उस औरत के बच्चे को दाखिल कर उस के इलाज में जुट गए. यह देख कर आदिल को सुकून मिला कि अब वह बच्चा बच जाएगा.

‘‘बाबूजी, मैं आप का यह एहसान कभी नहीं भूलूंगी,’’ कह कर वह औरत आदिल के पैर छूने लगी.

‘‘अरे, यह आप क्या कर रही हैं? उठिए, मैं ने कोई आप पर एहसान नहीं किया है. मैं ने केवल अपने कर्तव्य का पालन किया है,’’ आदिल ने उस औरत को उठाते हुए कहा.

तभी आदिल के अब्बू को दमे का अटैक पड़ गया और वे तड़पने लगे. यह देख कर उस ने तुरंत अब्बू का इन्हेलर निकाल कर उस में कैप्सूल लगा कर अब्बू के मुंह पर लगा दिया. अब्बू ने जोर से सांस खींचनी चाही, पर वे ऐसा नहीं कर सके.

यह देख कर आदिल तुरंत डाक्टर वर्मा को बुलाने पहुंच गया, जो किसी मरीज को देख रहे थे. उस ने अब्बू का हाल बता कर चलने के लिए कहा. लेकिन उन्होंने थोड़ा वक्त लगने की बात कह कर बाद में आने के लिए बोल दिया.

आदिल वापस अब्बू के पास आ गया, जो सांस न ले पाने के चलते काफी परेशान हो गए थे. वह थोड़ी देर तक बैठा उन के सीने को सहलाता रहा. उस के बाद फिर वह डाक्टर वर्मा को बुलाने पहुंच गया.

‘‘अरे, सौरी आदिल भाई, मैं तो भूल ही गया था. चलो, चलता हूं. कहां हैं तुम्हारे बाबूजी?’’ उसे देख कर डाक्टर वर्मा ने कहा और उस के साथ चल दिए.

‘‘आप के बाबूजी की तबीयत तो काफी ज्यादा खराब है. आप को इन  को जिला अस्पताल ले कर जाना पड़ेगा,’’ आदिल के अब्बू की हालत  देख कर डाक्टर वर्मा ने मानो ताना मार कर कहा.

डाक्टर की बात सुन कर आदिल समझ गया कि वे ऐसा क्यों कह रहे हैं. वह जानता था कि खबर चलने के बाद वे उस को परेशान जरूर करेंगे, क्योंकि अब्बू का यह अटैक तो कुछ भी नहीं था. इस से पहले जो अब्बू को  अटैक आए थे, वे भी ज्यादा तेज थे, तब तो उन्होंने महज एक इंजैक्शन लगा कर ही कंट्रोल कर लिया था, लेकिन अब वे उस से चिढ़ कर ही ऐसा कर  रहे हैं.

आदिल को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे, क्योंकि अब्बू की हालत वहां ले जाने वाली नहीं थी, अगर वह उन्हें यहां से ले जाता है तो भी वहां तक पहुंचतेपहुंचते काफी देर हो जाएगी.

‘‘बाबूजी, हमारी वजह से ही आप को परेशानी हो रही है. अगर आप हमारी मदद न करते तो ये डाक्टर साहब अब्बू को जरूर ठीक कर देते,’’ उसे परेशान देख कर उस औरत ने हाथ जोड़ते हुए उस से कहा.

तभी एक बार फिर आदिल के बाबूजी तड़पने लगे, लेकिन सामने खड़ा कोई भी डाक्टर या फिर कोई स्टाफ उन को देखने तक नहीं आया. तभी उस के अब्बू को जोर से खांसी आने लगी  और फिर वे शांत हो गए. उस के अब्बू हमेशा के लिए उसे छोड़ कर जा चुके थे, बहुत दूर.

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