लंबी कहानी: कुंजवन (भाग-10)

पिछला भाग- लंबी कहानी: कुंजवन (भाग-9)

पर उस दिन रात भर वो सो नहीं पाए. आधी रात के बाद वो मोबाइल पर दबे गले से किसी से बात करते रहे. सुबह नाश्ता करते समय जानकीदास सामान्य लग रहे थे. बंटी के धमकी के विषय में उन्होंने कोई बात नहीं उठाई. यों ही साधारण बातें कर रहे थे. तनाव भी नहीं था उन के मुख पर. शिखा थोड़ी अवाक हुई. कल रात भी जब सोने गए थे तब भयानक तनाव में थे शिखा को चिंता थी कि कहीं उन की तबियत ना खराब हो जाए पर इस समय उन को देख लग ही नहीं रहा कि उन को कुछ भी चिंता है. चैन की सांस ली उस ने. हलकीफुलकी बातों के बीच में ही अचानक उन्होंने प्रश्न किया,

‘‘बेबी, क्या तू जानती है कि सुकुमार कहां है.’’ अवाक हुई शिखा. उस दिन की घटना को 5 वर्ष बीत गए. दादू ने कभी सुकुमार का नाम तक नहीं लिया और आज अचानक. उस ने अवाक हो दादू को देखा.

‘‘मैं…मुझे क्या पता दादू? मैं ने वचन दिया था कि उस से संपर्क नहीं रखूंगी.’’

बात संभालते जानकीदास ने कहा.

‘‘नहीं… कहीं रास्ते में या बाजार में दिखाई पड़ा हो.’’

‘‘ना दादू. कहीं नजर नहीं आया. आता तो बताती.’’

‘‘लड़का कहां खो गया.’’

‘‘खो ही गया होगा. इस शहर में उस के लिए है ही क्या. पर दादू आज इतने दिनों बाद उस की याद?’’

‘‘संकट की घड़ी में ही कोई भरोसे की जगह खोजता है.’’

‘‘वो होता भी तो इन बदमाशों से नहीं भिड़ पाता पर हां मेरा मनोबल बढ़ जाता.’’

‘‘बेटा अब तुझे फैसला लेना ही होगा. मेरी ढलती उम्र है किसी भी दिन चला जाऊंगा और तू इतने बड़े संसार में इतने बड़े कारोबार के साथ एकदम अकेली तेरे पापा को भी क्या जवाब दूंगा.’’

‘‘तुम शादी की बात कर रहे हो?’’

‘‘हां बेटा…’’

‘‘दौलत बुरी बला है. हम कैसे जानेंगे कौन किस चक्कर में है. अंदर ही अंदर वो बंटी से भी बुरा हुआ तो?’’

‘‘मध्यम दर्जे के शिक्षित परिवारों के बच्चे आमतौर पर चरित्रवान होते हैं. एक तो अय्याशी के लिए पैसा नहीं होता, दूसरा आगे बढ़ने की चाहत में वे इतने व्यस्त रहते हैं कि भटकने का समय ही नहीं होता उन के पास. उन्हीं में से…’’

‘‘कोशिश कर के देखा दादू. वो स्वयं ही पीछे हट जाएंगे. स्तर में थोड़ा अंतर चल जाता है पर इतना अंतर…’’

‘‘समझ में नहीं आता क्या करूं?’’

‘‘अंकल जी नमस्ते.’’

चौंके दोनों. नंदा बंटी की मां. जानकीदास ने अपने को संभाला.

‘‘खुश रहो. बैठो…इतने सवेरे.’’

‘‘आना पड़ा. मां जो हूं.’’

शिखा सामान्य रही,

‘‘नाश्ता करिए आंटी मौसी.’’

‘‘रहने दे, नाश्ता कर के ही आई हूं बस चाय.’’

‘‘बेटी, इतनी सवेरे सब ठीक तो है न?’’

‘‘कहां ठीक है. बंटी की तरफ देखा नहीं जाता. खाना, पीना, कामकाज सब छोड़ दिया है. बहुत चोट लगी है उसे. बचपन से प्यार करता था शिखा को. मैं और उस का दुख नहीं देख सकती. मंजरी होती तो यह शादी कब की हो जाती. अब आप है आप ही कुछ करिए. समझाइए बच्ची को. यह झगड़ा तो इन में बचपन से होता आया है फिर प्यार भी तो था.’’

शिखा ने बातों में भांप लिया.

‘‘ना आंटी. प्यार कभी भी नहीं था. बंटी तो इस शब्द का मतलब ही नहीं जानता और मेरी तरफ तो प्रश्न ही नहीं उठता. हां एक स्कूल में पढ़ते थे और घर का रास्ता उस के लिए खुला था क्योंकि मम्मा आप की सहेली थीं. बात बस इतनी सी ही थी इस से आगे और कुछ भी नहीं वो आप प्रचार कुछ भी करती रहें.’’

ये भी पढ़ें- #coronavirus: थाली का थप्पड़

‘‘ना बच्चे वो बहुत प्यार करता है तुम से.’’

‘‘ठीक उसी तरह जूली, रीता, नीना को भी करता है. आप कितनी बहुएं लाएंगी.’’

‘‘तेरी मां ने ही यह रिश्ता जोड़ा था कम से कम उस का मान रख.’’

‘‘रिश्ता नहीं जोड़ा था गले तक शराब पी उलटापलटा बोल रही थी उसी को आप ने तुरुप का इक्का बना लिया बाजी जीतने के लिए.’’

‘‘अंकल, आप कुछ नहीं कहेंगे?’’

‘‘बेटा, रिश्ता तो मेरा गहरा है शिखा के साथ. मेरा खून है. पर मैं इस घर में आया था एक वेतन पाने वाला मामूली कर्मचारी बन कर और आज भी वही हूं. मालिकों के किसी भी फैसले का पालन करना मेरी ड्यूटी है उन को अपनी राय देना नहीं. मैं शिखा के व्यक्तिगत मामले में एक शब्द नहीं बोल सकता.’’

उस के जाने के बाद जानकीदास थोड़े चिंतित दिखाई दिए.

‘‘यह मेहता परिवार के हाथ में अंतिम तीर था. वो भी निशाना चूक गया. अब यह डेसपरेट हो कर कुछ भी कर सकते हैं. बेबी, सावधान.’’

‘‘वो तो हूं मैं दादू. दादू, एक बात है. तुम को कई बार आधी रात को मोबाइल पर बात करते देखा है. किस से बात करते हो?’’

मानो चोरी करते पकड़े गए हों ऐसे सहमते हुए बोले,

‘‘अरे वो… वो शंकर… वो करता है कनाडा से. समय का बहुत अंतर है न जब उसे फुरसत होती है तब यहां आधी रात हो जाती है. साफ पता चल रहा था कि वो सच नहीं बोल रहे. आश्चर्य हुआ दादू और उस से झूठ बोलें पर बोल तो रहे हैं. पर क्यों?’’

‘‘इस बार मेरी भी बात कराना अंकल से.’’

‘‘हांहां जरूर.’’

‘‘दादू, मैं ने सुकुमार से रिश्ता तोड़ा उसे मुंह दिखाने से मना किया. तुम को बहुत बुरा लगा था ना?’’

‘‘बुरा लगने से ज्यादा दुख हुआ था उस से भी ज्यादा आश्चर्य हुआ था. तू तो मां के हर फैसले के विरोध में उलटी दिशा में चलती थी. मां के कहने पर चलने वाली तो कभी नहीं थी. फिर मां के इतने बड़े फैसले के सामने कैसे घुटने टेक दिए? सुकुमार को जीवन से उखाड़ फेंक दिया? ’’

‘‘कारण था जो मैं ने आज तक किसी को नहीं बताया. आज तुम को बता रही हूं. मैं ने उस दिन मम्मा के फैसले के सामने घुटने टेके थे सुकुमार के कारण.’’

‘‘सुकुमार के लिए?’’

‘‘हां दादू, नहीं तो मैं उसे बचा नहीं पाती.’’

‘‘मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा.’’

‘‘मम्मा ने उस की हत्या के लिए सुपारी दी थी.’’

सिहर उठे जानकीदास.

‘‘बेबी.’’

‘‘हां दादू. मम्मा ने मेरे सामने प्रस्ताव रखा था या तो मैं उसे अपने जीवन से हटा दूं नहीं तो वे उसे दुनिया से हटा देंगी. मेरे लिए अपने जीवन की खुशी से सुकुमार के जीवन का मूल्य बहुत ज्यादा था तो उसे अपने से दूर कर दिया.’’

‘‘शिव…शिव… कोई मां इतनी भयंकर हो सकती है?’’

‘‘मेरी मां तो थी.’’

‘‘सुकुमार जानता है इस बात को?’’

‘‘नहीं. उस दिन के बाद मिला ही नहीं. दादू कहां होगा वो?’’

अनमने हो गए वो.

‘‘पता नहीं पर तुम दोनों का प्यार समर्पण सच्चा है, ईश्वर तुम दोनों को जरूर मिलाएंगे.’’

पहली बार शिखा के आंसू ढुलक कर गालों पर बह आए.

आज चंदन घर पर नहीं आफिस में आया. पहले पूछ लिया था कि वो समय दे पाएगी या नहीं. शिखा के पास आज विशेष काम नहीं था, कोई मीटिंग भी नहीं थी तो उसे बुला लिया. चंदन आया और आते ही एक कार्ड बढ़ा दिया.

ये भी पढ़ें- ज़िन्दगी-एक पहेली: भाग-6

‘‘शिखा, अगले शुक्रवार शाम सात बजे मेरे घर आना है जरूर. डिनर है?’’

‘‘किस बात का डिनर है.’’

‘‘मेरे बेटे का मुंडन है.’’

‘‘अरे तू पापा बन गया. कितनी खुशी की बात है.’’

‘‘तू जरूर आना. सभी पुराने साथी आएंगे.’’

‘‘सभी…’’

‘‘जो घनिष्ठ थे वो सभी. दिल्ली के सभी तो हैं ही. जो देश के बाहर हैं वो भी आने की कोशिश करेंगे.’’

शिखा के मुंह से निकला.

‘‘सुकुमार?’’

‘‘बस वही रह गया. उस का अतापता, नंबर लेना. हां घर का पता पूछा था. पर कहा अनाथों के ठिकाने नहीं होते,’’ शिखा हंसी.

‘‘पागल है अभी भी. वही भावुक बातें.’’

‘‘हां शिखा. चालाक, स्वार्थी लोगों को झेलतेझेलते जब हमारा मन घबरा उठता है तो जीने के लिए ऐसे दोचार पागलों की जरूरत होती है जो ताजी हवा का झोंका लाए और हमारा मन भी ताजगी से भर उठे. वैसे मैं दिल से उसे बुलाना चाहता हूं तो एक उपाय सोचा भी था.’’

‘‘वो क्या?’’

‘‘उस दिन कहा था ना वो इस समय लोकप्रिय लेखक है. उस की कई उपन्यास और कहानी संग्रह प्रकाशित हुई हैं. ‘नीलकमल प्रकाशन’ से. उस के मालिक हैं विनोद गोयल हमारे बाबूजी के दोस्त हैं. सोचा था लेखक का पता ठिकाना उन के पास तो होता ही है. पर पता चला कि सुकुमार स्वयं जा कर स्क्रिप्ट दे कर आता है. स्वयं ही अपनी कापी और पैसे ले आता है. बीच में कुछ जरूरत हो तो आ जाता है. नंबर या पताठिकाना उन को भी नहीं मालूम. हर किताब में लेखक का फोटो और संपर्क छपता है. यह वो भी नहीं देता.’’

‘‘ऐसा क्यों करता है?’’

‘‘सीधा सा जवाब है तेरे सामने नहीं आना चाहता. तू ने ही तो उसे मुंह दिखाने से मना किया था न.’’

‘‘चंदन. प्लीज…मैं मजबूर थी.’’

‘‘इतनी बड़ी मजबूरी की हीरा छोड़ कांच… जाने दे. आना जरूर’’

‘‘बच्चा कितना बड़ा है चंदन.’’

‘‘डेढ़ वर्ष का. पर तेरा आशीर्वाद ही चाहिए बस. उस के जाने के बाद देर तक चुप बैठी रही. दादू का दुख समझती है. वास्तव में उस के सभी साथियों का विवाह हो गया है. एकएक दोदो बच्चे भी हो गए. बस वो ही अकेली रह गई है. पर वो करे क्या? वो किसी दूसरे को सुकुमार की जगह देने की सोच भी नहीं सकती. भले ही उसी की भलाई के लिए उस के साथ अमानवीय व्यवहार किया हो पर वो आज भी उसी को समर्पित है.’’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें