लंबी कहानी: कुंजवन (भाग-2)

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शिखा ने दादू को देखा उस का एकमात्र मजबूत आश्रय. ‘‘दादू, आप के मन में यह आशंका जब आई है तब कोई कारण तो होगा? किसी पर संदेह? कोई स्टाफ?’’

‘‘ठीक से नहीं कह सकता पर… यह बात सच है. यह बहुत बड़ी विदेशी पार्टी है और आर्डर भी छोटामोटा नहीं. इस कौंट्रैक्ट के लिए बहुत सारी कंपनियां हाथ धो पीछे पड़ी थीं. बाजी हम ने मार ली, इस से ईर्ष्या बढ़ेगी. आज नहीं तो कल पता तो वो लगा ही लेंगे. उन लोगों में ‘मेहता एंड सन’ का नाम भी है.’’

चौंकी शिखा, ‘‘मतलब बंटी.’’

‘‘वो तुम्हारा मंगेतर है घर या आफिस अबाध गति से उस का आनाजाना है. उस पर तुम रोक भी नहीं लगा सकती.’’

‘‘पर दादू, उन की तो अपनी ही चलती कंपनी है.’’

जानकीदास ने सिर हिलाया, ‘‘यह गलत है. ऊपर से यह चाहें कितना भी दिखावा क्यों ना करें, सब जानते हैं अंदर से खोखले हो गए हैं. गले तक डूबे बैठे हैं कर्ज में. किसी भी दिन सब कुछ समाप्त हो सकता है. दोनों बापबेटे इस समय बचाव के चक्कर में घूम रहे हैं. और…’’

‘‘और क्या?’’

‘‘इन में न विवेक है न मानवता, न दया. यह लोग इस समय डेसपरेट हैं कंपनी और गिरवी रखे घर को बचाने के लिए, कुछ भी कर सकते हैं कुछ भी, हां कुछ भी…’’

शिखा स्तब्ध सी हो गई.

‘‘मैं बंटी से आजकल बहुत कम मिलती हूं.’’

‘‘पर तुम्हारी मां जो गलती कर गई है तुम्हारे जीवन के लिए वो एक जहरीला कांटा है. उन की नजर तुम्हारी कंपनी पर शुरू से थी और है.’’

‘‘मेरी मंगनी नहीं हुई दादू. मुंह की बात भर है.’’

‘‘वही एकमात्र आशा की किरण है. लो घर आ गया. जा कर आराम करो. चिंता मत करना.’’

‘‘बात तो चिंता की ही है.’’

‘‘हां है पर कभीकभी इंसान को कुछ उलझनों को वक्त के भरोसे भी छोड़ना पड़ता है.’’

शिखा ने अपने कमरे में आ कर सब से पहले सूट उतार फेंका. यह औपचारिक ड्रेस उसे एकदम पसंद नहीं. खुला दिन था, धूप थी दिनभर अब उमस है. पसीने वाली उमस. नहा कर उस ने एक फूल सी हलकी और नरम लंबी मैक्सी पहनी. मौसी लस्सी दे गई उस का घूंट भर वो खिड़की पर आई. वर्षा से धुले पेड़पौधे चमक गए हैं. नरम हरियाली की ओढ़नी ओढ़ सब मुसकरा रहे हैं उन पर ढलते सूरज की किरण. अनमनी हो गई वो, पापा का चेहरा सामने आ गया. स्नेह छलकती आंखें, भावुक चेहरा. यह बगीचा भरा है सुंदरसुंदर फूल और फलों के पेड़ों से. पापा ने ही बेनाम इस घर का नामकरण किया था.

‘कुंजवन’ पहले तो यह बस पचपन नंबर कोठी थी. पापा के साथ ही साथ एक और चेहरा सामने आ जा रहा है. पता नहीं क्यों आज गाड़ी से उतरते समय अचानक दादू ने पूछा,

‘‘बेबी, सुकुमार कहां है तुझे पता है कुछ?’’

गिरतेगिरते संभली थी वो, ‘‘नहीं तो…मुझे कैसे पता होगा?’’

‘‘संपर्क नहीं है?’’

‘‘क्यों होगा? मैं ने ही तो मना किया था.’’

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‘‘हां बात तो सही है. मैं ही सठिया गया हूं कुछ याद नहीं रहता.’’

पर वह दादू को कैसे कहे कि सुकुमार से संपर्क भले न हो पर वो उस से दूर नहीं है. उस के लिए मनप्रण से वो आज भी समर्पित है. इसी गेट से उसे शिखा ने चरम अपमान के साथ बाहर निकाल दिया था. कभी भी अपना मुंह उसे ना दिखाए यह भी कहा था. मां को खुश करने, मां की आज्ञा का पालन करने के लिए अपना पहला प्यार, बचपन का प्यार, आने वाले जीवन के सारे के सारे सपनों को अपने हाथों बलि चढ़ा दिया. मां को प्रसन्न करने को, वो भी उस मां के लिए जिस का विरोध करना ही उस के जीवन का सब से बड़ा उद्देश्य था, जिस के विरुद्ध ही वो हर काम को करती आई है. पापा का देहांत हो चुका था पर दादू थे. अवाक हो वो पोती का मुख देखते रह गए. सुकुमार जैसे शांत सौम्य लड़के के साथ यह क्या किया शिखा ने. मां के हाथ की कठपुतली तो वो कभी नहीं थी, तो फिर आज क्या हो गया उसे?

एक गहरी सांस ली शिखा ने. उस दिन के बाद फिर कभी उस ने सुकुमार को नहीं देखा इतने वर्ष हो गए. उस से इतनी बड़ी चोट खा क्या वो दिल्ली छोड़ चला गया था या संसार छोड़? सिहर उठी. ना…ना…जहां हो सकुशल हो. स्वस्थ हो.

सुबह नाश्ते के मेज पर दादू ने बैठते ही कहा, ‘‘बेबी, काम आज से ही शुरू करवाना है. जितनी जल्दी हो काम निबटाना होगा.’’

‘‘वो तो है पर अभी तीन महीने हाथ में है तो.’’

‘‘मुझे डर है कोई अंतरघात ना करे.’’

‘‘पर यह बात किसी को क्या पता?’’

‘‘तू अभी बच्ची है नहीं समझेगी. तेरी मां थी जन्मजात पक्की बिजनैस लेडी. बात अब तक विरोधी पक्षों के कानों में जा कर उन को बेचैन भी कर रही होगी.’’

चौंकी शिखा, ‘‘हैं…पर दादू, कैसे?’’

‘‘कल ही तो कहा था बातों के पर होते हैं तो सावधान और जल्दी काम पूरा करवा कर सप्लाई भेजनी है.’’

थोड़ी देर चुपचाप नाश्ता करने के बाद शिखा ने पूछा, ‘‘दादू, कल इतने वर्षों के बाद आप ने सुकुमार के विषय में पूछा. कोई विशेष कारण?’’

जानकीदास का प्याला छलक गया, ‘‘अरे नहीं…नहीं…बस…अचानक याद आ गया.’’

‘‘याद तो पहले भी आना चाहिए था, उस के अपमान दुख, व्यथा और सबकुछ खो जाने के चश्मदीद गवाह आप ही थे दादू.’’

‘‘मैं तेरी बात समझ रहा हूं बेटी पर इस घर में तो तू जानती ही है तेरी मां का फैसला ही अंतिम फैसला होता था पर…’’

‘‘पर क्या दादू?’’

‘‘तू तो हमेशा मां के विरोध में तन कर खड़ी होती थी. सच तो यह है कि इधर तेरी मां तुझ से थोड़ा घबराने लगी थी. वही तू ने मां के अन्याय का विरोध करना तो दूर उस के सुर में सुर मिला उस सीधेसादे बच्चे को अपमान कर के घर से निकाला तो निकाला कभी अपनी सूरत न दिखाने का कड़ा आदेश भी दे दिया. क्यों बेटी?’’

शिखा झुक गई चाय की प्याली के ऊपर. बुझे गले से बोली, ‘‘कारण था दादू…’’

‘‘ऐसा भी क्या कारण जो उस लड़के को इतना बड़ा यातनामय कष्ट जीवनभर के लिए दे डाला.’’

‘‘था दादू. समय आने पर आप को सब से पहले बताऊंगी.’’

‘‘क्या लाभ बता कर? उस बच्चे में तेरे लिए निश्छल और एकनिष्ठ प्यार था. उस की मूर्खता थी कि अपना स्तर भूल गया था उस की सजा भी मिल गई. पर जाने दे जो समाप्त हो गया उस की ओर मुड़ कर नहीं देखा जाता.’’

अरे हां, ‘‘मेहता ने फोन किया था वो जल्दी में हैं बंटी से तेरी शादी के लिए पूछ रहे थे, मंगनी की रसम कब करेंगे.’’

माथे पर बल पड़ गए शिखा के, ‘‘मंगनी तक बात आई कैसे?’’

आगे पढ़ें- इस बार जानकीदास चौंके, ‘‘क्या कह रही है? यह शादी तो…

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