पिछला भाग- लंबी कहानी: कुंजवन (भाग-2)
इस बार जानकीदास चौंके, ‘‘क्या कह रही है? यह शादी तो तेरी मां ही तय कर के गई है.’’
‘‘4 वर्ष पहले मुंह की बात थी बस. 4 वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है…’’
उन्होंने हैरानी के साथ पोती को देखा, ‘‘पर तू तो बंटी को पसंद करती है.’’
‘‘मैं बंटी को पसंद करती हूं यह तो नई खबर है? किस ने खबर दी आप को?’’
वो थोड़ा सकपका गए, ‘‘नहीं…वो इतना हैंडसम और स्मार्ट है. तू पार्टी पिकनिक क्लब में भी उस के साथ जाती है तो…’’
‘‘तो उस का मतलब मैं उसे पसंद करती हूं. ना दादू वो स्मार्ट नहीं सियार की तरह धूर्त है और हैंडसम तो धतूरे का फूल भी सुंदर लगता है पर है विषैला. रही उस के साथ पार्टी पिकनिक की बात तो दादू आप की मालकिन बहू ने इस घर के दरवाजे उस नालायक के लिए सपाट खोल रखे थे बंद करने में थोड़ा समय तो लगेगा. उसी समय की प्रतीक्षा है मुझे.’’
जानकीदास के मुख पर स्वरित की रेखाएं उभर आईं, ‘‘आज बहुत काम है मैं जल्दी निकल जाऊंगा तुम आराम से आना बेटी.’’
‘‘ठीक है. लंच टाइम में मिलेंगे.’’
बातों के भी पर होते हैं. जानकीदास ने ठीक ही कहा था. जो उड़ती चिडि़या पकड़ना जानते हैं वो पकड़ भी लेते हैं. थोड़ा लेट पहुंची शिखा. दादू आ गए थे तो चिंता नहीं थी. दादू वास्तव में ढाल की तरह सदा पोती के सिर पर छाया रखते हैं फिर भी मां के छोड़े बिजनैस को शिखा ने मजबूत हाथों से संभाला. डगमगाना तो दूर और भी फलाफूला. असल में शिखा ने भी अपने सामने आने वाले लंबे जीवन का एकमात्र सहारा इस बिजनैस को ही मान लिया है. उस के जीवन के सारे सुंदर और मधुर भावनाओं को तो उस की मां ही कुचल कर चली गईं और जातेजाते एक वायरस से चिपका गई जिस का नाम है ‘बंटी’. वो कहते हैं न कि शैतान का नाम लो तो शैतान हाजिर वही हुआ. सामने पड़ी फाइल को छूआ भी नहीं था शिखा ने कि दनदनाता अंदर आया ‘बंटी’. सामने की कुरसी खींच बैठ गया. मम्मा का सिर चढ़ाया ‘कुंजवन’ और ‘सोनी कंपनी’ के आफिस को अपनी बपौती समझता है. किसी प्रकार की औपचारिकता की परवा उसे नहीं शिखा का सिर तक जल उठा क्रोध से. उस के माथे पर बल पड़ गए. कठोर शब्दों में कहा, ‘‘यह औफिस है, यहां कुछ फौरमेलिटियों का पालन करना पड़ता है.’’ इस तरह एकदम मेरे कमरे में मत चले आया करो.
मुंह बनाया बंटी ने, ‘‘फौरमेलिटि, माई फुट… मिजाज खट्टा मत करो मेरा. आया हूं एक नेक काम के लिए…’’
मिजाज खट्टा तो शिखा का ही हो गया था बंटी को देखते ही. उस ने कड़वे स्वर में कहा, ‘‘रिएली, क्या है तुम्हारा नेक काम?’’
‘‘तुम को कौंग्रेचूलेट करना…’’
‘‘किस बात के लिए?’’
‘‘अरे वाह, विदेशी कंपनी से गठबंधन, करोड़ों का कौंट्रैक्ट क्या कम खुशी की बात है?’’
वास्तव में बातों के पर होते हैं अब शिखा को खोजना पड़ेगा अपने खास स्टाफों में वो कौन है जिसे बंटी ने खरीदा है. ऊपर से शांत रही.
‘‘बिजनैस में कौंटै्रक्ट और गठबंधन तो होते ही रहते हैं तुम्हारा भी तो बिजनैस है, यह बात तो जानते ही होंगे.’’
‘‘जानता हूं पर इतनी बड़ी डील यही बड़ी बात है. बधाई भी उसी के लिए.’’
‘‘तुम तो व्यापारी परिवार के बेटे हो मेरी ही तरह, तो यह भी जानते होंगे कि देशी हो या विदेशी, छोटी हो या बड़ी डील ही हमारी रोजीरोटी है. उस पर उछलने वाली कोई बात नहीं होती. फिर भी धन्यवाद चल कर आ कर बधाई देने के लिए.’’
‘‘अरे तुम तो सचमुच गुस्से में हो. स्वीटहार्ट, तुम समझ क्यों नहीं पातीं कि मैं तुम से मिलने का बहाना खोजता फिरता हूं, बिना मिले चैन नहीं पड़ता.’’
इसे नहीं काटा तो यह दिमाग चाटेगा. आज बहुत काम करना है उसे. शिखा ने फाइल हटा सीधे बंटी की तरफ देखा, ‘‘नहीं जानती थी. जो भी हो, आज तो मेरे दर्शन हो गए बधाई भी दे दी. अब कट लो बहुत काम है मुझे.’’
‘‘मेरे कटने की बात मत करो कट तो तुम रही हो.’’
‘‘समझते हो तो अच्छी बात है.’’
‘‘हां,’’ बंटी का स्वर नरम पड़ गया, ‘‘देखो, हमारा संबंध तो जुड़ ही गया है तो कटनाकाटना क्यों?’’
‘‘संबंध कोई नहीं जुड़ा. मम्मा उल्टासीधा क्या बक गई विलायती शराब के नशे में, वो मेरे हाथ की लकीर नहीं बन सकती.’’
‘‘मुझे बहुत काम है. इस समय बकवास अच्छी नहीं लग रही.’’
‘‘ठीक है ठीक है. अभी चला जाऊंगा. जो कहने आया था…आज शाम 6 बजे तैयार रहना मैं तुम को उठा लूंगा. एक पार्टी है.’’
माथे पर बल पड़ गए शिखा के.
‘‘मेरे पास न निमंत्रण है न कोई खबर मैं क्यों जाऊंगी.’’
‘‘अरे मैं कहने ही तो आया था. मेरा दोस्त विवेक है न, उस का ‘गुड़गांव’ में एक फार्म हाऊस है वहां ही वो पार्टी दे रहा है.’’
‘‘विवेक…वो भ्रष्ट मंत्री का बेटा? यह फार्म हाऊस भी तो घूस में कमाया हुआ है. किसी उद्योगपति ने दिया है और शराब पी कर गाड़ी चला कर उस ने तीन गरीबों की हत्या भी की जिस की जगह फांसी का तखता होना चाहिए वो फार्म हाऊस पार्टी दे रहा है, अति महान देश है हमारा.’’ सहम गया बंटी. शिखा को इतना कड़वा बोलते पहले कभी नहीं सुना. क्या बड़ी डील होने से मिजाज आसमान पर जा बैठा है लड़की का. जो भी हो इस समय उस के व्यापार की दशा अब डूबे या तब डूबे है. शिखा वो मजबूत किनारा है जो खींच कर उसे डूबने से बचा सकती है. शादी हो जाती तो सोनी कंपनी उस की मुट्ठी में होती पर अब तो नरमाई से ही काम लेना पड़ेगा.
‘‘अरे उस से तुम को क्या लेनादेना. पार्टी इनजौए करेंगे और चले जाएंगे बस. मैं तो साथ हूं ना…?’’
‘‘तुम…तुम दूध के धुले हो…नहीं पता था और लेनादेना तो बहुत है मानवता के नाते.’’
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अंदर ही अंदर जल कर भी बंटी चुप रहा. शिखा की सहायता इस समय उसे बहुत जरूरी है. उठ खड़ा हुआ. ‘‘चलती तो अच्छा लगता. सब की गर्लफ्रैंड आ रही हैं.’’ आग लग गई शिखा को.
‘‘सुनो बंटी सावधान कर रही हूं आगे से मुझे गर्लफ्रैंड कहने की भूल या साहस मत करना. हम दो परिचित परिवार के हैं बस और कुछ नहीं.’’
‘‘पर…हमारा रिश्ता…?’’
‘‘अभी तक तो कुछ भी नहीं. बाए…’’
उस ने फिर फाइल खींच ली.
थोड़ी देर से जागी शिखा, बाथरूम से फ्रेश हो नीचे उतरी. सदा की तरह नाश्ते की मेज पर जानकीदास पहले से विराजमान. नहाधो तरोताजा, आकर्षक व्यक्तित्त्व, पापा के प्रतिरूप. रसोई से कचौड़ी की सुगंध आ रही थी.
‘‘गुड मौर्निंग दादू.’’
‘‘वेरी गुड मौर्निंग बेबी.’’
वो हंसी, ‘‘दादू एक बात पूछूं?’’
‘‘पूछो…’’
‘‘आप फिल्म लाइन में क्यों नहीं गए?’’
‘‘गया तो था.’’
‘‘हैं…यह तो पता नहीं था.’’
‘‘बात जरा सिके्रट है.’’
‘‘लाइन से हीरो के रोल मिल गए तो उस समय के सारे हीरो हाथ जोड़ खड़े हो गए मेरे सामने आ कर. उन में दिलीप, देवानंद भी थे. लगे रोने कि तू हमारी रोजीरोटी मारने इस लाइन में क्यों चला आया? भईया, कुछ और काम कर ले. तरस आ गया तो छोड़ कर आ गया.’’
लच्छो मौसी थालभर कचौड़ी लाई थी वो भी हंस पड़ी. शिखा तो लोटपोट हो रही थी. मन एकदम हलका हो गया. दादू ना होते तो शिखा तनाव में घुटघुट कर मर ही जाती. मां ने बेटी के लिए बस एक यही अच्छा काम किया है नहीं तो सर्वनाश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. जानकीदास ने कचौड़ी उठाने को ज्यों ही हाथ उठाया त्यों ही लच्छो ने थाल हटा लिया.
‘‘बाबूजी, आप का दलिया अभी लाई.’’
‘‘क्या? दलिया…कौन खाएगा दलिया.’’
गुस्से में लाल हो गए वो. आराम से कचौड़ी चबाती शिखा बोली, ‘‘आप खाएंगे…यह सब आप के सेहत के लिए ठीक नहीं.’’
‘‘मुझे खाना ही नहीं है.’’
वे उठने लगे तो शिखा ने रोका, ‘‘अरे अरे…बैठिए…मौसी दादू को कचौड़ी दो पर गिन कर दो कचौड़ी बस.’’
जानकीदास खा तो रहे थे पर चिंता में थे. शिखा ने पूछा, ‘‘दादू, क्या सोच रहे हैं.’’
‘‘यही कि डील होते ही मेहता परिवार को पता कैसे चला?’’
‘‘घर का भेदी लंका ढावे.’’
‘‘पर यह भेदी कौन हो सकता है इस का पता तो लगाना ही पड़ेगा नहीं तो पूरी लंका ढह जाएगी.’’
‘‘डील का पता किसकिस को था?’’
‘‘ब्रजेशबाबू तो एकाउंटेंट हैं उन को तो पता होगा ही.’’
‘‘ना ना वो सब से पुराने और अति ईमानदार हैं. और कोई.’’
‘‘देख कोई भी काम हो कागजपत्तर बनवाने हो तो दोतीन जनों की मदद चाहिए ही.’’
‘‘तो इन दोतीनों में ही खोजना होगा.’’
‘‘काम कठिन है पर करना तो पड़ेगा ही.’’
‘‘एक बात और है, लंदन की एक कंपनी से प्रस्ताव आया है. यह भी बड़ी डील है.’’
‘‘ले पाएंगे?’’
‘‘उस में अभी समय है. पहले इस काम को पूरा कर लें. काम अभी शुरू करना है. मैं ने कई टेंडर मांगे थे आ गए हैं तीन चार, आज मैं बैठता हूं लंच के बाद तेरे साथ कम से कम दो को चुन कर काम शुरू करवाना है. समय बहुत ज्यादा नहीं है हमारे पास.’’
‘‘दादू, एक बात का ध्यान रखना, क्वालिटी क्लास होनी चाहिए. हफ्ता दसदिन समय बढ़ाना भी पड़े तो कोई बात नहीं पर क्वालिटी से कोई समझौता नहीं.’’
‘‘वो तो है ही.’’