अब अपना काम खुद करें

टीवी पर चलते, जलते और मिटते मजदूरों को देख कर कंधे न उचकाएं कि हमें क्या. ये एक ऐसी समस्या पैदा कर रहे हैं, जिस का नुकसान देश के पूरे मध्यवर्ग और उस की औरतों को होगा. जब भी गांवों से दलितों और पिछड़ों को भगाया गया और उन्हें शहरों में नौकरियां मिलनी शुरू हुईं उस का सब से बड़ा फायदा शहरी ऊंची जातियों की औरतों को मिला.

एक जमाना था जब शहरों या गांवों की ऊंची ठाकुरों, बनियों और ब्राह्मणों की औरतों को भी दिन में 16-17 घंटे काम करना पड़ता था. उन का काम कभी खत्म नहीं होने वाला था. उन दिनों पिछड़ों को घरों में ही नहीं आने दिया जाता था, तो फिर दलितोंअछूतों की तो बात क्या? पर जैसेजैसे गांवों से पिछड़े और दलित शहर आते गए औरतों के काम कम होते गए. इन्होंने चैन की सांस ली. मर्दों को चाहे खास फर्क नहीं पड़ा पर घरेलू नौकरों और बाइयों की वजह से औरतों की जिंदगी सुधरने लगी. उन के हाथों में कोमलता आने लगी, चेहरों पर लाली फैलने लगी.

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जो धन्नासेठ हैं उन्हें तो छोडि़ए, साधारण 3 कमरों के मकानों में रहने वालों को भी इन शहरों में आए पिछड़ों और दलितों की वजह से फायदा होने लगा. मकानों की उपलब्धता बढ़ गई, क्योंकि मजदूरमजदूरनियां मिलने लगे, बस्तियां बसने लगीं. इन बस्तियों तक सामान पहुंचने लगा, जो इन पिछड़ों द्वारा चलाए ठेलों से पहुंचा और फिर इन की जगह टैंपों ने ले ली. भरपूर दुकानें खुलने लगीं.

घरों में तरहतरह की सुविधाएं मिलने लगीं. आटा पिसापिसाया और पैक किया मिलने लगा, क्योंकि कारखानों में पिछड़े काम करते थे. मशीनें थीं फिर भी इन दलित मजदूरों ने उठाई धरी, ट्रक चलाने का काम ले लिया. मसाले मिलने लगे. कपड़ा मिलें बढ़ने लगीं. तकनीक तो सुधरी पर बाजार इन्हीं की वजह से चलते थे ही, थोक मंडियों में, बाजारों में और मौलों में भी छा गए.

इन पिछड़ों और दलितों की बीवियोंबेटियों ने भी घरों में काम करना शुरू कर दिया. औरतों को झाड़ू लगाने, खाना पकाने और बच्चे पालने से फुरसत मिली. घरों में बढि़या सामान भरने लगा. तरहतरह के बैड आ गए, हर कमरे में सोफा लग गया, एसी, कूलर आ गए, बत्तियां जगमगाने लगीं. हरेक को लगाने वाले तो पिछड़े दलित हैं ही, रखरखाव वाले भी यही लोग हैं.

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शहरों में आनाजाना आसान हो गया. पैदल चलने की जगह पहले रिकशा, फिर औटो, फिर टैक्सी, फिर उबेर, ओला या खुद की ड्राइवर वाली गाड़ी आ गई. औरतों को समय मिला तो उन्होंने पति के साथ काम करना शुरू कर दिया, क्योंकि घर पर कोई और सहायक है. कामकाजी औरतें सासों और मांओं पर ही निर्भर नहीं रह गईं. उन्हें लगातार काम करने वाले मिलते रहे. यही वे लोग थे जो टीवी स्क्रीनों पर, बसों, ट्रेनों, ट्रकों और तपती धूप में सड़कों पर दिखे.

हमारे मध्य व उच्चवर्ग ने इन का खयाल न के बराबर रखा. देशभर में स्लम बन गए, जिन में बिना रनिंग वाटर, बिना फ्लश वाले शौचालयों के 1-1 कमरे के मकान में 10-10,

20-20 को रखा गया. इन का सपना था कि एक दिन ये कमा कर शहरी बाबुओं और मेमसाहबों जैसे बन जाएंगे. इन्हें गुमान था कि ये गांवों की गंदगी, घुटन, गरीबी, भुखमरी से बच कर आ गए हैं. इन को पट्टी पढ़ा रखी थी कि सेवा करो, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में जरूर कुछ लाभ होगा.

न जाने क्यों कोरोना ने इन्हें झकझोर दिया. 24 मार्च से ही लाखों की गिनती में लोग गांवों में लौटने लगे. यह सिलसिला जून तक चल रहा है. लोग पैदल भी चल रहे हैं और ट्रेनों में भरभर कर भी जा रहे हैं. उद्योगों को चलाने वालों के तो हाथपैर फूल रहे हैं कि कारखानों में काम कौन करेगा पर असल मार औरतों पर पड़ सकती है.

अब औरतों को सहायक मिलने कम हो सकते हैं. हो सकता है घरों में बाइयां न मिलें, औटो व टैक्सियां न मिलें. सामान घरों तक आना कम हो जाए या बंद हो जाए अथवा महंगा हो जाए. लौकडाउन के दौरान करोड़ों घरवालियों ने देख लिया है कि बिना बाहरी सहायता के जिंदगी कितनी दुश्वार है. काम के घंटे बढ़ गए. घरों में फुरसत कम हो गई. अर्थव्यवस्था चरमराने लगी है इसलिए आय कम होने लगी और ऊपर से इन हैल्पों की कमी का डर.

अभी तो सभी को लग रहा है कि ये लोग वापस आएंगे पर जिस ढंग से रिवर्स माइग्रेशन हुआ है उस से लगता है इन्हें ठेलठाल कर फिर शहरों में लाना अब मुश्किल होगा. 30-40 साल पहले ये लोग शहरों की ओर भागे थे, क्योंकि खेतों पर काम नहीं था. गांवों में उपज कम थी. अब तकनीक, बिजली, ट्रैक्टरों, पंपों की वजह से गांव भी बेहतर हैं, चाहे 2-3 करोड़ लोग वापस गए हों और लगता है कि वे गांवों में भीड़ पैदा कर देंगे पर देखा जाए तो लाखों गांवों में बिखर जाने वाले ये लोग हर गांव में 100-200 होंगे जो आसानी से खप सकते हैं. इस का मतलब यही है कि हो सकता है कि अगले सालों में शहरी औरतों को छठी का दूध याद आने लगे. हैल्प मिले ही नहीं या बहुत महंगी हो.

औरतों को बहुत सा काम उसी तरह खुद करना पड़ेगा जैसे अमेरिका व यूरोप में करना पड़ रहा है. केवल बहुत अमीर ही बाइयों या मेड्स को रख पाएंगे.

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फिलहाल यह समस्या दिख नहीं रही, क्योंकि शहरियों की खुद की आय कम हो गई है. करोड़ों की नौकरियां चली गई हैं. मध्य व उच्चवर्ग भी पैसे की तंगी की मार झेल रहा है. अभी सारे मकान और सामान खराब नहीं हुआ है पर धीरेधीरे एसी, फ्रिज, कूलर, मोबाइल, लैपटौप खराब होने शुरू होंगे. बिजली के तार सड़ेंगे, बाथरूम फिटिंग खराब होगी, मकानों का रंग काला पड़ेगा, प्लास्टर में क्रैक्स आएंगे.

तब मजदूर मिलेंगे, टैक्नीशियन मिलेंगे, सामान मिलेगा आज गारंटी नहीं. इस सब का खमियाजा औरतों को भुगतना होगा. उन के घरों में कोई नहीं जाएगा. उन की मौजमस्ती पर रोक लगेगी. धर्म ने इस देश की औरतों को पहले से कमजोर कर रखा है, कोरोना का साइड इफैक्ट इन की सांसों को और मुश्किल कर दे तो बड़ी बात नहीं. यह आने वाले कल की तसवीर हो सकती है. ऐसा न हो तो अच्छा है पर होगा तो बड़ी बात न होगी.

 माइग्रेंट वर्कर्स ही चमकाते है, अर्थव्यवस्था को – शांति सिंह चौहान

शांति सिंह चौहान (सोशल वर्कर, अंकुर फाउंडेशन)

कोरोना वायरस और लॉक डाउन की वजह से माइग्रेंट लेबर जिसे कोई सहयोग नहीं देता, जबकि इन मजदूरों की वजह से बड़े-बड़े शहरों की चमक और शानोशौकत देखने को मिलती है. बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ करोड़ों कमाती है, नेता इसकी आंच पर सत्ता की रोटियां सेंकते है, आखिर कब तक चलता रहेगा ये सब, कौन इनके मूल्य समझेंगे? कौन इन्हें सम्मान और इज्जत की रोटी दो जून की दे सकता है, ये किसी से भीख नही मांगते, बस थोड़ी इज्जत से मेहनत कर खाना और अपने परिवार का पेट पालना चाहते है.

अगर ये अपने शहर या गांव चले गए, तो उन बड़ी-बड़ी कंपनियों का क्या होगा, जिनके लिए ये काम करते है, इकॉनमी कैसे पटरी पर आएगी आदि कितने ही शब्द कहे जा रही थी, मुंबई की अंकुर फाउंडेशन की सोशल वर्कर शांति सिंह चौहान, जो इस लॉक डाउन के बाद से करीब 5 हजार माइग्रेंट लेबर और उनके परिवार को, अँधेरी से लेकर बोरीवली तक खाना खिला रही है, उनके राशन पानी की व्यवस्था कर रही है. उनकी दशा को नजदीक से देख रही है. हर दिन उनके लिए नयी चुनौती लेकर आती है और हर दिन वह उसका सामना करती है. 

माइग्रेंट वर्कर्स को खाना खिलाना मेरा पहला काम 

 शांति हैदराबाद से निकलकर मुंबई अपनी पति और बेटी के साथ नौकरी के सिलसिले में आई और यही रहने लगी. शांति होटल मैनेजमेंट कर चुकी है और पहले अपने बेटी की स्कूल में कुकरी पढ़ाते हुए, होटलों और रेस्तरां में मैनू बनाना, खाने की गुणवत्ता को बनाये रखने के लिए अलग-अलग होटलों में जाकर शेफ को ट्रेनिंग देना आदि करती रही. साथ ही ज्वेल्लरी की शौक होने की वजह से ज्वेलरी डिज़ाइनर बनी और अपना ब्रांड सात्विकी स्थापित की. इन सबके बावजूद भी उन्हें सामाजिक काम करना बहुत पसंद है. वह कहती है कि लॉक डाउन के समय मैं घर पर थी, पर हैदराबाद के एक दोस्त ने मुझे फ़ोन पर बताया कि तेलंगाना के कई वर्कर्स मुंबई में फंसे है और बिना भोजन के परेशान रह रहे है. उसने मुझसे मदद करने को कही और मैंने काम शुरू कर दिया. तक़रीबन 5 हज़ार माइग्रेंट मजदूर परिवारों  को राशन पहुंचाई है. इसमें मुझे विदेश के सारे दोस्तों ने फण्ड में पैसे दिए, जिससे एक अच्छी किट जरुरत के सामान, जो तक़रीबन 20 दिन तक चल सके. इसके साथ डिलीवरी हर जगह खुद जाकर किया है, क्योंकि दुकाने बंद होने, खाना न मिलने, सामानों की अधिक कीमत होने की वजह से लोग खाने पीने की चीजों पर झपटने लगते है. ये भूख के मारे ऐसा करने पर मजबूर है. मैं हर रोज करीब 2 हजार परिवारों के लिए ट्रक भरती थी. अँधेरी, कांदिवली, बोरीवली आदि सभी जगहों पर मैंने हर माइग्रेंट परिवार वालों के घर पर सामान पहुँचाया है. इस काम में मेरा पूरा परिवार और ड्राईवर का सहयोग है.

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मजदूरों की भूमिका को नहीं कोई आंकता  

शांति को फण्ड की कमी इस काम में नहीं हुआ. समस्या परमिशन की थी, जो बीएमसी ने बाद में दे दिया. देश विदेशों से लोगों ने मानवता की खातिर भरपूर डोनेशन दिया है. इसलिए जितनी भी लिस्ट मजदूरों की शांति के पास आई, पूरा उन्होंने कवर कर लिया है. इसमें किसी धर्मं, जाति या राज्य को देखा नहीं गया है, जिसे भी खाने पीने के सामानों की जरुरत है, उन्हें दिया गया है. कोविड 19 ने लोगों को देश का सही आइना दिखाया है, जिससे आज तक पूरा देश अनजान था. शांति का आगे कहना है कि हम सभी किसी भी कंपनी की ब्रांड की तारीफ करते है, पर उसके पीछे जो टीम होती है, उसके बारें में कोई नहीं सोचता. मजदूर ही है, जो काम कर किसी ब्रांड को सफलता दिलाते है और वे कभी सामने नहीं आते. असल में ये मजदूर दूसरे राज्य से आकर मुंबई की आर्थिक व्यवस्था को सम्हाल रहे है. ये मेहमान है और देश की शक्ति है, पर इन्हें कोई मूल्य नहीं देता. ये लोग पेंटर, प्लम्बर, कारपेंटर इलेक्ट्रीशियन आदि ये सब माइग्रेंट वर्कर ही है, जिनकी वजह से हमारी जिंदगी सुखद हो रही है. इनकी सपोर्ट सिस्टम अनजाने में ही हमारा साथ दे रही है, जिसके बारें में किसी ने ध्यान नहीं दिया. कोविड 19 ने ऐसे लोगों की तरफ सबका ध्यान खीचा है. उन्हें रेस्पेक्ट और मदद चाहिए, भीख नहीं. वे इज्जत की रोटी खाना चाहते है. अपने घर जाने वाले ये वर्कर सिर्फ एक पोटली लेकर घर जा रहे है. इनकी 30 साल की जिंदगी बस एक पोटली ही है. सरकार को इनकी स्वास्थ्य, रहन सहन, हायजिन आदि विषयों पर ध्यान देने की जरुरत है, क्योंकि इनकी सपोर्ट सिस्टम से ही सबकुछ है, इन्हें निकाल देने पर आर्थिक अवस्था चरमरा जाएगी. मुझे भी इनका महत्व अब पता चला है.  

बदनसीब है माइग्रेंट वर्कर्स 

असल में ये माइग्रेंट वर्कर जब घर से निकले, तो किसी ने नोटिस नहीं की. जब इनको समस्या आई तो ये अपने घर जाने में भी असमर्थ हो गए, क्योंकि इनके साथ बीमारी उस राज्य में चली जाएगी और वहां का आंकड़ा बढ़ जायेगा, जिससे उस राज्य के शासक की किरकिरी हो जाएगी, उनका वोट बैंक खतरे में पड़ जायेगा, इस प्रश्न के जवाब में शांति का कहना है कि माइग्रेंट वर्कर आज तक देश का सबसे बदनसीब इंसान रहा है. उसने घर क्यों छोड़ा? क्योंकि उसके शहर में काम नहीं है और हर इंसान अपने परिवार को अच्छी परवरिश देने के लिए ही घर छोड़ता है. साल में एक बार वह अपने परिवार से मिलता है. आखिर क्यों वह ऐसा करता है. ऐसे किसी भी प्रश्न का उत्तर किसी भी प्रशासनिक अधिकारी या राजनेता के पास नहीं है. मुंबई की कांदिवली चाल में माइग्रेंट वर्कर्स 10 /10 के एक कमरे में खुले नाले के पास 10 लोग एक साथ रहते है. सुबह जब 5 लोग निकलते है तो 5 लोग अंदर आते है. लॉक डाउन में ये सभी 10 लोग एक कमरे में रहने पर मजबूर है. जहाँ सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना असंभव है. मुंबई की झोपड़ पट्टी में रहने वालों की हालत हमेशा से ही बहुत ख़राब है. साथ ही वे अभी इस बात से भी डर रहे है कि उन्हें यहाँ अकेले मरना पड़ेगा. इसलिए जो भी रास्ता उन्हें मिलता है, वे चल पड़ते है. माइग्रेंट वर्कर का वोट राईट दूसरे राज्य में नहीं है,  इसलिए उनका नाम वहां किसी खाते में नहीं है, इसलिए लॉक डाउन से 5 दिन पहले उन्हें सूचित करना जरुरी था, ताकि वे लोग अपने घर चले जाते और ऐसी नौबत नहीं आती. अभी लोग बीमार हो रहे है और उन्हें देखने वाला कोई नहीं. 

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शांति दुखी स्वर में कहती है कि मैं अब माइग्रेंट वर्कर्स के लिए सरकार को पिटिशन फाइल करने वाली हूँ, जिसमें इनलोगों के प्रोटेक्शन के लिए कुछ कानून होने के साथ-साथ हायजिन, स्वास्थ्य, रहन सहन आदि जरुरी विषयों पर ध्यान दिया जाय . उम्मीद है कुछ नतीजा निकलेगा. मैं मुंबई नार्थ सेंट्रल से आल इंडिया अनऑर्गनाइसड वर्कर कांग्रेस की प्रेसिडेंट भी हूँ. इसमें मेरे साथ मुंबई हेड जनार्दन सिंह भी बहुत सहायता कर रहे है. मैं इन मजदूरों को पुनर्स्थापन करने की इच्छा रखती हूँ. कोविड 19 ने लोगों को आज रैट रेस से दूर रहने और जीने की नयी तरीके को अपनाने की सलाह दी है जिसे सभी को पालन करने की जरूरत है.

परिवार का सहयोग जरुरी  

शांति के काम में उसका पूरा परिवार पति और दोनों बेटियां साथ देती है. शांति जब भी बाहर निकलती है, मास्क, ग्लव्स और हल्दी युक्त गरम पानी पीती है, हायजिन का पूरा ख्याल रखती है, ताकि वह स्वस्थ रहे और अधिक से अधिक लोगों की सेवा कर सकें. 

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