‘‘मैं मुक्ति चाहती हूं.’’
‘‘किस से?’’
‘‘सब से.’’
‘‘मनुष्यों से, अपने परिवेश से या भौतिक वस्तुओं से?’’
‘‘अपने परिवेश से, उस में रहने वाले लोगों से.’’
‘‘यानी सुखसुविधाएं नहीं छोड़ना चाहती, केवल लोगों का त्याग करना चाहती हो. इस के पीछे तुम्हारा क्या कोई खास मकसद है?’’
‘‘मैं उन्हें त्यागना नहीं चाहती. न इसे छोड़ना कह सकते हैं. केवल मुक्ति चाहती हूं ताकि छू सकूं, उन्मुक्त आकाश को.’’
‘‘इस के लिए किसी का त्याग करना आवश्यक नहीं है, साथ रहतेरहते भी खुली हवा को भीतर समेटा जा सकता है. कौन रोकता है तुम्हें आकाश छूने से. शायद तुम्हारी सोच में ही जंग लग गया है या तुम मुक्ति की परिभाषा से अपरिचित हो.’’
‘‘नहीं, यह सच नहीं है. उन्मुक्त आकाश को छूने के लिए अपने ही पैरों की जरूरत होती है, किसी सहारे या बैसाखी की नहीं. इसलिए मुझे मुक्ति चाहिए. संबंधों की तटस्थता या घुटन नहीं.’’
‘‘यह तो पलायन होगा.’’
‘‘हां, हो भी सकता है, और नहीं भी.’’
‘‘यानी?’’
‘‘मुक्ति मार्ग भी तो है, दिशा भी तो है. फिर पलायन कैसा?’’ निस्पृहता का गुंजन उस की आवाज में निहित था.
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‘‘फिर घरपरिवार, पति, बच्चे, समाज का क्या होगा, उन के प्रति क्या तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं है?’’
‘‘जिम्मेदारी अशक्त व बेसहारों की होती है. वे सक्षम हैं, अपनी जरूरतें स्वयं पूरी कर सकते हैं.’’
‘‘क्या तुम्हें उन की जरूरत नहीं?’’
‘‘कभी महसूस होती थी, पर अब नहीं. सब अपनाअपना जीवन जीना चाहते थे. कोई अतिक्रमण, न व्यवधान अपेक्षित है. फिर निरर्थक ही क्यों अपनी उपस्थिति को ले कर जीऊं.’’
‘‘निरर्थकता कैसी, जगह स्थापित करनी पड़ती है, अपनी उपस्थिति का बोध कराना पड़ता है, वही तो संबल होती है. पलायन करने से क्या निरर्थकता का बोध कम हो जाएगा? नहीं, बल्कि और बढ़ेगा ही. पीछे भागने के बजाय अपने को पुख्ता कर सब में आत्मविश्वास बांटो, फिर देखना तुम कैसे महत्त्वपूर्ण हो जाओगी.’’
‘‘ऐसा कुछ नहीं होता. यह मात्र स्वयं को छलने का प्रयास है. अपने ही अस्तित्व का बोध कराने के लिए अगर संघर्ष करना पड़े तो उस की क्या महत्ता रह जाएगी.’’
‘‘यह छल नहीं है, बल्कि तुम्हारे भीतर का कोई भटकाव है वरना जीवन के प्रति इतनी घोर निराशा संभव नहीं है. क्या पाना चाहती हो?’’ प्रश्नकर्ता विचलित मन को भांप गया था. विचलित मन में ही ऐसे निरर्थक, दिशाहीन भावों का वास होता है. उफनती लहरें ही उद्वेग का प्रतीक होती हैं. जब तक इन में कोई कंकड़ न फेंके या तूफान न आए, वे शांत बनी रहती हैं.
‘‘मैं ने कहा न, मुझे मुक्ति चाहिए अपनेआप से.’’
‘‘वह तो मृत्यु पर ही संभव है.’’
‘‘फिर?’’
प्रश्नदरप्रश्न, वरना समाधान कैसे संभव होगा. भीतर तक टटोलना हो तो शब्दों से भेदना अनिवार्य होता है. संवादहीनता की स्थिति जड़ बना देती है, भटकाव बढ़ता जाता है. मन के भीतरबाहर न जाने कितनी गुफाएं होती हैं, सब के अंधेरे चीर कर वहां तक रोशनी पहुंचाना तो संभव नहीं. लेकिन जब निश्चित कर लिया है कि दिशाभ्रमित इंसान को राह सुझानी है तो फिर पीछे क्या हटना.
‘‘यानी एक अंतहीन दौड़ पर निकलना चाहती हो? रुकोगी कहां, कुछ निश्चित किया है?’’
‘‘दौड़ कैसी, यह तो विराम होगा. उस के लिए कुछ भी निश्चित करना अनिवार्य नहीं है.’’
‘‘नहीं, तुम भ्रमित हो, अपने को तोड़मरोड़ कर अपनी जिम्मेदारियों से भाग कर तुम विराम की घोषणा कर रही हो? दौड़ तो इस के बाद ही यात्रा है- दिशाहीन, उद्देश्यहीन दौड़. घरपरिवार, समाज, नातेरिश्तों को तोड़ कर आखिर किस की खातिर जीना चाहती हो? अपनी?’’
‘‘नहीं, बिलकुल नहीं, अपने से मोह कतई नहीं है. मैं तो मर जाना चाहती हूं.’’
‘‘यानी फिर पलायन? डर कर, घबरा कर भागना ही पलायन है. मुक्ति तो उद्देश्यों की पूर्ति से मिलती है. पहले अपने मन को शांत व नियंत्रित करो.’’
‘‘लेकिन?’’
विस्मित है वह कैसे समझाए कि मन के उद्वेग तो कब के कुचले पड़े हैं. मन को नियंत्रित करतेकरते ही तो घबरा गई है वह. कुचली हुई भावनाएं सिर उठाने लगी हैं, तभी तो वह परेशान है. चली जाना चाहती है सारी उलझनों से बच कर. जब पाने की राह अवरुद्ध हो तो खोने की राह तलाशने में कैसी झिझक.
‘‘उत्तर तुम्हें स्वयं ही ढूंढ़ना होगा. खुद को इस तरह समेटने का अर्थ है स्वयं को आत्मकेंद्रित करना.’’
‘‘उत्तर मिलता तो यों नैराश्य न आ जकड़ती. जड़ता सहभागिता न होने लगती. अपने को झिंझोड़ कर थक गई हूं.’’ स्वर भीग गया था जैसे बड़े जतन से संभाला रुदन बहने को आतुर है.
कब तक कोई बांध सकता है संवेगों को. ज्वालामुखी तक फट जाता है, तब मानवीय संवेदना तो उस के सामने बहुत क्षीण है. वह तो जरा से दुख से ही भरभरा कर ढहने लगती है.
‘‘लौट जाओ सुमित्रा. जाओ और खोजो उस उत्तर को वह तुम्हारे भीतर ही मिलेगा लेकिन अपने अंतर्द्वद्वों से लड़ना होगा. अपने मनोभावों से तुम्हें संघर्ष करना होगा. उस के लिए अपने परिवेश में लौटना अत्यंत आवश्यक है. सब से जुड़ कर ही तलाश संभव है, एकांत में तुम किस जिजीविषा को शांत करने निकली हो?’’
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धीरेधीरे शाम होने लगी थी. हवा के झोंके सुखद एहसास से भर रहे थे. पक्षी भी अपने घोंसलों में लौटने को तैयार थे. बीतता हर पल अपने साथ सब को घरों में लौटा रहा था. संध्या की बेला भी अजीब है. पहरेदार की तरह आ खड़ी होती है सब को भीतर खदड़ने के लिए. कोई चतुराई दिखा उसे धोखा देने का प्रयत्न करता है तो वह रात को बिखरा देती है. अंधेरे से भला किसे डर नहीं लगता. सारे प्रपंच धरे रह जाते हैं और हर ओर सन्नाटा फैल जाता है. भयानक खामोशी के आगे सारी चहलपहल ध्वस्त हो जाती है.
लेकिन सुमित्रा क्यों नहीं लौट पा रही है? क्या उसे सन्नाटे से भय नहीं लगता या उस के भीतर और गहरा सन्नाटा है जो व्याप्त खामोशी को चोट देने को आकुल है, तभी तो शायद वह निकली है उस अनदेखी, अनजानी मुक्ति की तलाश में जिस का ओरछोर स्वयं उसे मालूम नहीं है.
घोर पीड़ा का उद्भव सदा एक रहस्य ही रहा है. अनुभूति तो स्पष्ट होती है क्योंकि वह भीतरबाहर सब जगह बजती रहती है किसी दुखद आवाज की तरह, किंतु उस के अंकुर के फूटने का आभास तभी हो सकता है जब हम सतर्क हों. पीड़ा सामान्य स्थिति की द्योतक नहीं है, वही तो है जो सारी विमुखता प्रियजनों से विमुखता, अपने कर्मकर्तव्यों से विमुखता, की उत्तरदायी है.
‘‘मैं लौटना नहीं चाहती. अगर ऐसा होता तो निकलती ही क्यों. मैं ने बहुत चाहा कि अपने भीतर के कोलाहल को हृदय के कपाटों से बंद कर दूं पर शायद कमजोर थी, इसलिए ऐसा न कर सकी. तभी तो फट पड़ा है कोलाहल. अब कैसे शांत करूं उसे? कोई रास्ता नहीं दिखा, तभी तो भागी चली आई मुक्ति की तलाश में.’’
‘‘पलायन कौन से कोलाहल को शांत कर सकता है, बल्कि और हलचल ही मचा देता है. कोरी शून्यता है जो तुम्हें लगता है कि भर जाएगी. रिक्तता की पूर्ति कैसे होगी? इस पूर्णता की प्राप्ति के लिए तुम कहां भागोगी? कोई दिशा निर्धारित की है क्या तुम ने?’’
‘‘मुझे कुछ सुझाई नहीं दे रहा है. अगर रोशनी की हलकी सी कौंध भी देख पाती तो यों आप के पास दौड़ी चली नहीं आती उत्तर पाने, समाधान ढूंढ़ने.’’
सुमित्रा की कातरता बढ़ती ही जा रही थी और रात की नीरवता भी.
संध्या तक जो हवा कोमल लग रही थी वही अब कंपकंपाने लगी थी. फरवरी की शामें चाहे गुनगुनी हों पर रातें अभी भी ठंडी थीं. रात का मौन और नींदों में प्रवेश होने के बाद बंद कपाटों से उत्पन्न सन्नाटा लीलने को आतुर था. कभीकभी कोलाहल से त्रस्त हो इंसान सिर्फ सन्नाटे की अपेक्षा करता है, उसे ढूंढ़ने के लिए स्थान खोजता है और कभी वही सन्नाटा उसे खंजर से भी अधिक नुकीला महसूस होता है. तब वही आतुर निगाहों से अपने आसपास किसी को देखने की चाह करने लगता है.
सुमित्रा क्या इन दोनों ही स्थितियों से परे है या फिर वह अनजान बन रही है ताकि किसी तरह कमजोर या लक्ष्यहीन न महसूस करे. तभी अपने आसपास के वातावरण के प्रति कितनी तटस्थ लग रही है. इसीलिए तो मात्र एक साड़ी में लिपटे होने पर भी ठंड उसे कंपा नहीं रही थी.
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‘‘लेकिन विवाद के बाद मैं ने तो जानबूझ कर अपने अंदर की प्रतिभा को दफना दिया ताकि दोनों के अहं का टकराव न हो और पुरुषत्व हीनभावना का शिकार न हो जाए. अकसर पढ़ीलिखी बीवी की कामयाबी पति को चुभती है.’’
‘‘सही कह रही हो, ऐसा हो सकता है पर सब के साथ एक ही पैमाना लागू नहीं होता है. वह तुम्हें कामयाब देखना चाहता था, इसलिए छोटीछोटी अड़चनों से तुम्हें दूर रखना चाहा होगा और तुम स्वामित्व व अधिकार में ऐसी उलझी कि न सिर्फ अपनों से दूर होती चली गईं बल्कि यह भी मान लिया कि तुम्हारी वहां कोई जरूरत नहीं है. भूल तेरी ही है.’’
‘‘लेकिन संवेदनाओं को साझा करना क्या स्वामित्व के दायरे में आता है?’’
‘‘नहीं, वह तो जीवन का हिस्सा है, पर शायद शुरुआत ही कहीं से गलत हुई है. एक बार फिर शुरू कर के देख, तू तो कभी इतने उल्लास से भरी थी, फिर जीने की कोशिश कर.’’ समझाने की प्रक्रिया जारी थी.
‘‘कोशिशकोशिश, पर कब तक?’’ सुमित्रा त्रस्त हो उठी थी.
‘‘तू ने कभी कोशिश की?’’
‘‘बहुत की, तभी तो पराजय का अनुभव होता है.’’ सुमित्रा का मन हो रहा था कि वह झ्ंिझोड़ डाले उन्हें, क्यों बारबार उसी से समस्त उम्मीदें रखीं उन्होंने.
‘‘वह तो होगा ही, जब तब प्यार नहीं करती अपने पति से.’’
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उथलपुथल सी मच गई उस के भीतर. कहीं यही तो ठीक नहीं है, पति को प्यार नहीं करती पर उस ने बेहद कोशिश की थी पूर्ण समर्पण करने की. बस, एक बार उसे यह एहसास करा दिया जाता कि वह घर की छोटीछोटी बातों का निर्णय ले सकती है. उसे चाबी का वह गुच्छा थमा दिया जाता जो हर पत्नी का अधिकार होता है तो वह उस आत्मसंतोष की तृप्ति से परिपूर्ण हो खुद ही प्यार कर बैठती. पर उसे उस तृप्ति से वंचित रखा गया जो मन को कांतिमय कर एक दीप्ति से भर देती है चेहरे को.
शरीर की तृप्ति ही काफी होती है, क्या, बस. वहीं तक होता है पत्नी का दायरा, उस के आगे और कुछ नहीं. फिर वह तो बलात्कार हुआ. इच्छा, अनिच्छा का प्रश्न कब उस के समक्ष रखा गया है. प्यार कोई निर्जीव वस्तु तो नहीं जिसे एक जगह से उठा कर दूसरी जगह फिट कर दिया जाए.
‘‘मैं ने बहुत कोशिश की और साथ रहतेरहते एक लगाव भी उत्पन्न हो जाता है, पर दूसरा इंसान अगर दूरी बनाए रखे तो कैसे पनपेगा प्यार?’’
‘‘फिर बच्चे?’’ उन्होंने तय कर लिया था कि चाहे आज सारी रात बीत जाए पर वे सुमित्रा के मन की सारी गांठें खोल कर ही दम लेंगे, चाहे उन के ध्यान का समय भी क्यों न बीत जाए.
यह कैसा प्रश्न पूछा? स्वयं इतने ज्ञानी होते हुए भी नहीं जानते कि बच्चे पैदा करने के लिए शारीरिक सान्निध्य की जरूरत होती है, प्यार की नहीं. उस के लिए मन मिलना जरूरी नहीं होता. क्या बलात्कार से बच्चे पैदा नहीं होते? मन का मिलाप न हो तो अग्नि के समक्ष लिए हुए फेरे भी बेमानी हो जाते हैं. गठजोड़ पल्लू बांधने से नहीं होता. दोनों प्राणियों को ही बराबर से प्रयास कर मेल करना होता है. एक ज्यादा करे, दूसरा कम, ऐसा नहीं होता. फिर विवाह सामंजस्य न हो कर बोझ बन जाता है जिसे मजबूरी में हम ढोते रहते हैं.
बस, बहुत हो चुका, अब चली जाएगी यहां से वह. कितना उघाड़ेगी वह अपनेआप को. नग्नता उसे लज्जित कर रही है और वे अनजान बने हुए हैं. उसे क्या पता था कि जिन से वह मुक्ति का मार्ग पूछने आई है, वे उन्हें हराने पर तुले हुए हैं.
‘‘मैं जानती हूं कि बड़ा व्यर्थ सा लगेगा यह सुनना कि मेरा पति मुझे रसोई तक का स्वामित्व नहीं देता, वहां भी उस का दखल है, दीवारों से ले कर फर्नीचर के समक्ष मैं बौनी हूं. दीवारें जब मैली हो जाती हैं तो नए रंगरोशन की इच्छा करती हैं, फर्नीचर टूट जाता है तो उसे मरम्मत की जरूरत पड़ती है, पर मैं तो उन निर्जीव वस्तुओं से भी बेकार हूं. मुझे केवल दायित्व निभाने हैं, अधिकार की मांग मेरे लिए अवांछनीय है. हैं न ये छोटीछोटी व नगण्य बातें?’’
‘‘हूं.’’ वे गहन सोच में डूब गए. ‘समस्या साफ है कि वह स्वामित्व की भूखी है ताकि घर को अपनी तरह से परिभाषित कर उसे अपना कह सके. हर किसी को अपनी छोटी सी उपलब्धि की चाह होती है. चाहे स्त्री कितनी ही सुरक्षित व आधुनिक क्यों न हो, वह भी छोटेछोटे सुख और उन से प्राप्त संतोष से युक्त साधारण जिंदगी की अपेक्षा करती है, चाहे वह दूसरों को बाहर से देखने पर कितनी ही सामान्य क्यों न लगे.’
‘‘फिर भी बेटी…’’ इतने लंबे संवाद के बाद अब उन्होंने इस संबोधन का प्रयोग किया था. वे तो समझ रहे थे कि बेकार ही घबरा कर यह पलायन करने निकल पड़ी है वरना सुखसाधनों के जिस अंबार पर वह बैठी है, वहां आत्मसंतुष्टि की कैसी कमी…सुशिक्षित, विवेकी पति, आचरण भी मर्यादित है…फिर दुख का सवाल कहां उठता है.
‘‘लौटना तो तुझे होगा ही, धैर्य रख और अपने आत्मविश्वास को बल दे. किसी रचनात्मक कार्य को आधार बना ले. ध्यान बंटा नहीं कि सबकुछ सहज हो जाएगा. तूने भी खुद को केंचुल में बंद कर के रखा हुआ है. अध्ययन, अध्यापन सब चुक गए हैं तेरे. उन्हें फिर आत्मसात कर,’’ कहते हुए शब्दों में कुछ अवरोध सा था.
पश्चात्ताप तो नहीं कहीं…
चलो बेटी तो कहा, यह सोच कर सुमित्रा थोड़ी आश्वस्त हुई. ‘‘मैं चाहती हूं आप एक बार फिर पिता बन कर देखें, तभी पुत्री की मनोव्यथा का आभास होगा. ज्ञानी, महात्मा का चोला कुछ क्षणों के लिए उतार फेंकें, बाबूजी,’’ सुमित्रा समुद्र में पत्थर मार उफान लाने की कोशिश कर रही थी, ‘‘ध्यान मग्न हो सबकुछ भुला बैठे, पलायन तो आप ने किया है, बाबूजी. माना मैं ही एकमात्र आप की जिम्मेदारी थी जिसे ब्याह कर आप अपने को मुक्त मान संसार से खुद को काट बैठे थे.
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‘‘12 वर्षों तक आप ने सुध भी न ली यह सोच कर कि धनसंपत्ति के जिस अथाह भंडार पर आप ने अपनी बेटी को बैठा दिया है, उसे पाने के बाद दुख कैसा. ज्ञानी होते हुए भी यह कैसे मान लिया कि आप ने सुखों का भंडार भी बेटी को सौंप दिया है. यह निश्चितता भ्रमित करने वाली है, बाबूजी.’’ सुमित्रा का स्वर बीतती रात की भयावहता को निगलने को आतुर था. बवंडर सा मचा है. हाहाकार, सिर्फ हाहाकार.
‘‘अब इतने सालों बाद क्यों चली आई हो मेरी तपस्या भंग करने, क्या मुझे दोषी ठहराने के लिए…मैं नियति को आधार बना दोषमुक्त नहीं होना चाहता. हो भी नहीं सकता कोई पिता, जिस की बेटी संताप लिए उस के पास आई हो. लौट जाओ सुमित्रा और संचित करो अपनेआप को, अपने भीतर छिपे बुद्धिजीवी से मिलो, जिसे तुम ने 12 सालों से कैद कर के रखा है. वापस अध्यापन कार्य शुरू करो. पर दायित्व निभाते रहना, अधिकार तुम से कोई नहीं छीन पाएगा. समय लग सकता है. उस के लिए तुम्हें अपने प्रति निष्ठावान होना पड़ेगा.
‘‘संबल अंदरूनी इच्छाओं से पनपता है. यहांवहां ढूंढ़ने से नहीं. तुम्हें लौटना ही होगा, सुमित्रा. अपने घर को मंजिल समझना ही उचित है वरना कहीं और पड़ाव नहीं मिलता. तुम कहोगी कि बाबूजी आप भी घर छोड़ आए, लेकिन मेरे पीछे कोई नहीं था, सो, चिंतन करने को एकांत में आ बसा. ध्यान कर अकेलेपन से लड़ना सहज हो जाता है. संघर्ष कर हम एक तरह से स्वयं को टूटने से बचाते हैं, तभी तो रचनाक्रम में जुटते हैं, इसी से गतिशीलता बनी रहती है.’’
एक ताकत, एक आत्मविश्वास कहां से उपज आए हैं सुमित्रा के अंदर. लौटने को उठे पांवों में न अब डगमगाहट है न ही विरोध. क्षमताएं जीवंत हो उठें तो असंतोष बाहर कर संतोष की सुगंध से सुवासित कर देती हैं मनप्राणों को.
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कहीं ऐसा तो नहीं कि उस के अंदर ही कहीं एक ज्वालामुखी धधक रहा था जिस की तपिश ठंड के वेग को छूने भी नहीं दे रही थी, लेकिन उस की देह को दग्ध रखा हुआ था.
सुमित्रा अपनी बात जारी रखे हुए थी, ‘‘पहले अपनेआप से ही संघर्ष किया जाता है, अपने को मथा जाता है और मैं तो इस हद तक अपने से लड़ी हूं कि टूट कर बिखरने की स्थिति में पहुंच गई हूं. सारे समीकरण ही गलत हैं. विकल्प नहीं था और हारने से पहले ही दिशा पाना चाहती थी, इसीलिए चली आई आप के पास. जब पांव के नीचे की सारी मिट्टी ही गीली पड़ जाए तो पुख्ता जमीन की तलाश अनिवार्य होती है न?’’ इस बार सुमित्रा ने प्रश्न किया था. आखिर क्यों नहीं समझ पा रहे हैं वे उस को?
‘‘ठीक कहती हो तुम, पर मिट्टी कोे ज्यादा गीला करने से पहले अनुमान लगाना तुम्हारा काम था कि कितना पानी चाहिए. फिर तलाश खुदबखुद बेमानी हो जाती है. हर क्रिया की कोई प्रतिक्रिया हो, यह निश्चित है. बस, अब की बार कोशिश करना कि मिट्टी न ज्यादा सख्त होने पाए और न ही ज्यादा नम. यही तो संतुलन है.’’
‘‘बहुत आसान है आप के लिए सब परिभाषित करना. लेकिन याद रहे कि संतुलन 2 पलड़ों से संभव है, एक से नहीं,’’ सुमित्रा के स्वर में तीव्रता थी और कटाक्ष भी. क्यों वे उस के सब्र का इम्तिहान ले रहे हैं.
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‘‘ठीक कह रही हो, पर क्या तुम्हारा वाला पलड़ा संतुलित है? तुम्हारी नैराश्यपूर्ण बातें सुन कर लगता है कि तुम स्वयं स्थिर नहीं हो. लड़खड़ाहट तुम्हारे कदमों से दिख रही है, सच है न?’’
जब उत्साह खत्म हो जाता है तो परास्त होने का खयाल ही इंसान को निराश कर देता है. सुमित्रा को लग रहा था कि उस की व्यथा आज चरमसीमा पर पहुंच जाएगी. सभी के जीवन में ऐसे मोड़ आते हैं जब लगता है कि सब चुक गया है. पर संभलना जरूरी होता है, वरना प्रकृति क्रम में व्यवधान पड़ सकता है. टूटनाबिखरना…चक्र चलता रहता है. लेकिन यह सब इसलिए होता है ताकि हम फिर खड़े हो जाएं चुनौतियां का सामना करने के लिए, जुट जाएं जीवनरूपी नैया खेने के लिए.
‘‘कहना जितना सरल है, करना उतना सहज नहीं है,’’ सुमित्रा अड़ गई थी. वह किसी तरह परास्त नहीं होना चाहती थी. उसे लग रहा था कि वह बेकार ही यहां आई. कौन समझ पाया है किसी की पीड़ा.
‘‘मैं सब समझ रहा हूं पर जान लो कि संघर्ष कर के ही हम स्वयं को बिखरने से बचाते हैं. भर लो उल्लास, वही गतिशीलता है.’’
‘‘जब बातबात पर अपमान हो, छल हो, तब कैसी गतिशीलता,’’ आंखें लाल हो उठी थीं क्रोध से पर बेचैनी दिख रही थी.
‘‘मान, अपमान, छल सब बेकार की बातें हैं. इन के चक्कर में पड़ोगी तो हाथ कुछ नहीं आएगा. मन के द्वार खोलो. फिर कुंठा, भय, अज्ञानता सब बह जाएगी. सबकुछ साफ लगने लगेगा. बस, स्वयं को थोड़ा लचीला करना होगा.’’ बोलने वाले के स्वर में एक ओज था और चेहरे पर तेज भी. अनुभव का संकेत दे रहा था उन का हर कथन. बस, इसी जतन में वे लगे थे कि सुमित्रा समझ जाए.
रात का समय उन्हें बाध्य कर रहा था कि वे अपने ध्यान में प्रवेश करें पर सुमित्रा तो वहां से हिलना ही नहीं चाहती थी. चाहते तो उसे जाने के लिए कह सकते थे पर जिस मनोव्यथा से वह गुजर रही थी उस हालत में बिना किसी निष्कर्ष पर पहुंचे उसे जाने देना ठीक नहीं था. भटकता मन भ्रमित हो अपना अच्छाबुरा सोचना छोड़ देता है.
‘‘मैं अपने पति से प्यार नहीं करती,’’ सुमित्रा ने सब से छिपी परत आखिर उघाड़ ही दी. कब तक घुमाफिरा कर वह तर्कों में उलझती और उलझाती रहती.
‘‘यह कैसा भ्रम है सुमित्रा?’’ उन के आश्चर्य की कोई सीमा नहीं थी.
‘‘यह कटु सत्य है,’’ उस की वाणी में तटस्थता थी. झिझक खुल जाना ही अहम होता है. फिर डर नहीं रहता.
‘‘कितने वर्ष हो गए हैं विवाह को?’’
‘‘यही कोई 12.’’
‘‘जिस इंसान के साथ तुम 12 वर्षों से रह रही हो, उस से प्यार नहीं करतीं. बात कुछ निरर्थक प्रतीत होती है?’’
‘‘यही सच है. मैं ने अपने पति से एक दिन भी प्यार नहीं किया. वास्तविकता तो यह है कि मुझे कभी महसूस ही नहीं हुआ कि वे मेरे पति हैं. एक पत्नी होेने का स्वामित्व, अधिकार दिया ही कहां मुझे.’’ हर जगह एक तरलता व्याप्त हो गई थी.
‘‘यह क्या कह रही हो, पति का पति होना महसूस न हुआ हो. रिश्ते इतने क्षीण धागे से तो नहीं बंधे होते हैं. परस्परता तो साथ रहतेरहते भी आ जाती है. एहसासों की गंध तो इतनी तीव्र होती है कि मात्र स्पर्श से ही सर्वत्र फैल जाती है. तुम तो 12 वर्षों से साथ जी रही हो, पलपल का सान्निध्य, साहचर्य क्या निकटता नहीं उपजा सका? मुझे यह बात नहीं जंचती,’’ स्वर में रोष के साथ आश्चर्य भी था.
सुमित्रा पर गहरा रोष था कि क्यों न वह प्यार कर सकी और अपने ऊपर ग्लानि. अपनी शिष्या, जो बाल्यावस्था से ही उन की सब से स्नेही शिष्या रही है, को न समझ पाने की ग्लानि. कहां चूक हो गई उन से संस्कारों की धरोहर सौंपने में. उन्हें ज्यादा दुख तो इस बात का था कि अब तक वे उस के भीतर जमे लावे को देख नहीं पाए थे. कैसे गुरु हैं वे, अगर सुमित्रा आज भी गुफाओं के द्वार नहीं खोलती तो कभी भी वे उन अंधेरों को नहीं देख पाते.
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‘‘आप को क्या, किसी को भी यह बात अजीब लग सकती है. सुखसंसाधनों से घिरी नारी क्योंकर ऐसा सोच सकती है. यही तो मानसिकता होती है सब की. असल में समृद्धि और ऐश्वर्य ऐसे छलावे हैं कि बाहर से देखने वालों की नजरें उन के भौतिक गुणों को ही देख पाती हैं, गहरे समुद्र में कितनी सीपियां घोंघों में बंद हैं, यह तो सोचना भी उन के लिए असंभव होता है.’’
‘‘मुझे लगता है कि सुमित्रा, तुम परिवार को दार्शनिकता के पलड़े में रख कर तोलती हो, तभी सामंजस्य की स्थिति से अवगत नहीं. सिर्फ कोरी भावुकता, निरे आदर्शों से परिवार नहीं चलता, न ही बनता है.’’
‘‘मैं किन्हीं आदर्शों या भावुकता के साथ घर नहीं चला रही हूं,’’ सुमित्रा भड़क उठी थी, ‘‘आप समझते क्यों नहीं, न जाने क्यों मान बैठे हैं कि मैं ही गलत हूं. जिस घर की आप बात कर रहे हैं, वह मुझे अपना लगता ही कहां है. आप ने उच्चशिक्षा के साथ पल्लू में यही बांधा कि पति का घर ही अपना होता है, लेकिन मैं तो अपनी मरजी से उस की एक ईंट भी इधरउधर नहीं कर सकती.’’
फफक उठी थी वह. रहस्यों को खोलना भी कितना पीड़ादायक होता है, अपनी ही हार को स्वीकार करना. 12 वर्षों से वह जिस तूफान को समेटे हुई थी यह सोच कर कि कभी तो उसे पत्नी होने का स्वामित्व मिलेगा, उसे आज यों बहती हवा के साथ निकल जाने दिया था. उपहास उड़ाएगा सारा संसार इस सत्य को जान कर जिसे उस ने बड़ी कुशलता से आवरणों की असंख्य तहों के नीचे छिपा कर रखा था ताकि कोई उस के घर की प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ करने की कोशिश न करे.
सुमित्रा बोले जा रही थी, ‘‘मैं अपने मन के संवेगों को उन के साथ नहीं बांट सकती. शेयर करना भी कुछ होता है. बहुतकुछ अनकहा रह जाता है जो काई की तरह मेरे हृदय में जमा हुआ है. इतनी फिसलन हो गई है कि अब स्वयं से डरने लगी हूं कि कहीं पग धरते ही गिर न जाऊं.
‘‘पतिपत्नी का रिश्ता क्या ऐसा होता है जिस में भावनाओं को दबा कर रखना पड़ता है. मैं थक गई हूं. मेरा मन थक गया है. सब शून्य है, फिर कहां से जन्म लेगा प्यार का जज्बा?’’ सुमित्रा बेकाबू हो गई थी.
‘‘ऐसा भी तो हो सकता है कि वह तुम्हें बुद्धिजीवी मानने के कारण छोटीछोटी बातों से दूर रखना चाहता हो. तुम्हें ऊंचा मानता हो और तुम नाहक रिश्तों में काई जमा कर जी रही हो. तुम्हारे अध्ययन, तुम्हारे सार्थक विचारों से अभिभूत हो कर वह तुम्हारी इज्जत करता है और तुम ने नाहक ही थोथे अहं को पाल रखा है.’’ स्वर इतना संयमित था कि एकबारगी तो वह भी हिल गई. तटस्थता जबतब सहमा देती है.
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