हम क्यों बोलते हैं झूठ

‘झूठ बोले कौवा काटे, काले कौवे से डरियो…’ बचपन में हमें सिखाया गया था. मगर फिर भी हम  झूठ बोलते हैं, रोज बोलते हैं. कहते हैं किसी भी रिश्ते में  झूठफरेब नहीं होना चाहिए, नहीं तो यह उस रिश्ते को तबाह कर देता है. फिर भी हम  झूठ बोलते हैं और छोटीछोटी बातों पर बोलते हैं. कभीकभी जरूरत नहीं है, फिर भी  झूठ बोलते हैं. आखिर क्यों?

कुछ लोगों के लिए तो  झूठ बोलना इतना आसान है कि जहां सच से काम चल जाए. वहां भी उन के मुंह से  झूठ ही निकलता है. वैसे  झूठ बोलने की अनिवार्यता को पहली बार करीब  2 दशक पहले कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के सामाजिक मनोविज्ञान पढ़ाने वाले प्रोफैसर बेला  डे पोलो ने दस्तावेज किया था.’

पोलो और उन के साथियों ने 147 वयस्कों से कहा था कि वे लिखें हर हफ्ते उन्होंने कितनी बार  झूठ बोला. सामने आया कि हर व्यक्ति ने दिन में औसतन 1 या 2 बार  झूठ बोला. इन में से ज्यादातर  झूठ किसी को नुकसान पहुंचाने या धोखा देने वाले नहीं थे. बल्कि, उद्देश्य अपनी कमियां छिपाना या दूसरों की भावनाओं को बचाना था. हालांकि, बाद में की गई एक स्टडी में पोलो ने पाया कि ज्यादातर ने किसी मौके पर एक या एक से ज्यादा बार बड़े  झूठ भी बोले हैं. जैसे शादी के बाहर किसी रिश्ते को छिपाना और उस के बारे में  झूठ बोलना.

आदत या कुछ और

भले ही  झूठ बोलने पर कौवा काट ले, पर हम  झूठ बोलने से परहेज नहीं कर सकते, क्योंकि कहीं न कहीं यह हम इंसान के डीएनए का हिस्सा है या कहें आधुनिक जीवन के करीब हर पहलू में  झूठ बोलना एक सामान्य रिवाज बन गया है. इस पर नैशनल जियोग्राफिक की जून, 2017 के अंक में  झूठ के पीछे के विज्ञान को सम झते एक लेख पर नजर डालिए, तो इस के मुताबिक, इंसानों में  झूठ बोलने की प्रतिभा नई नहीं है. शोध बताता है कि भाषा की उत्पत्ति के कुछ वक्त बाद ही  झूठ बोलना हमारे व्यवहार का हिस्सा बन गया.

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आखिर क्यों बोलते हैं लोग  झूठ

हिटलर के प्रचार मंत्री जोसेफ गोयबल्स की एक बात बड़ी मशहूर है. वह यह कि किसी  झूठ को इतनी बार कहो कि वह सच बन जाए और सब उस पर यकीन करने लगें.

आप ने भी अपने आसपास ऐसे लोगों को देखा होगा, जो बहुत ही सफाई से  झूठ बोल लेते हैं. वे अपना  झूठ इतने यकीन से पेश करते हैं कि वह सच लगने लगता है. हमें लगता है इंसान इतने भरोसे से कह रहा है, तो बात सच ही होगी.

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, यह एक ‘सैल्फ सविंग ह्यूमन टैडेंसी’ है. कई लोगों को  झूठ बोलने की आदत होती है, तो वहीं कई लोग मजबूरी में या किसी परेशानीवश  झूठ बोल देते हैं.  झूठ बोलने की बहुत सारी वजहें हो सकती हैं, जिन्हें आसानी से जान पाना और सम झना बहुत कठिन है क्योंकि हरेक इंसान में  झूठ बोलने की अपनीअपनी वजह होती है.

कभी कोई किसी के अच्छे के लिए  झूठ बोलता है तो किसी के  झूठ बोलने का कारण होता है विवादित बयानों के जरीए अन्य लोगों को बुरे इरादों वाला या उन के चरित्र पर प्रश्नचिह्न लगाने का प्रयास करना ताकि खुद के दोष को छिपा सकें. कोई आगे बढ़ने के लिए  झूठ बोलता है, तो कोईर् किसी को पीछे धकेलने के लिए  झूठ का सहारा लेता है. फिर ऐसे लोग भी हैं जो लज्जा से बचने, पिछले  झूठ को सही साबित करने या लोगों को धोखा देने के खयाल से  झूठ बोलते हैं.

वैसे  झूठ बोलने की अनिवार्यता को पहली बार करीब 2 दशक पहले कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के सामाजिक मनोविज्ञान पढ़ाने वाले प्रोफैसर बेला डे पोलो ने दस्तावेज किया था.

झूठ बोलना आसान क्यों

संसाधनों की रस्साकशी में बिना किसी ताकत और जोरजबरदस्ती के लोगों से चालाकी से काम निकलवाना ज्यादा कारगर होता है और यह  झूठ का रास्ता अपनाने पर आसानी से हो पाता है. यह जानवरों की अपनाई जाने वाली रणनीतियों से काफी मिलताजुलता है. हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में नीतिशास्त्र पढ़ाने वाली सिसेला बोक मानती हैं कि किसी का पैसा या संपत्ति हासिल करने के लिए, डाका डालने या सिर फोड़ने से ज्यादा आसान है  झूठ बोलना.

दिलचस्प बात यह है कि कुछ  झूठ की सचाई जानते हुए भी हम उस पर यकीन करते हैं, इस से हमारी दूसरों को धोखा देने की और हमारी खुद की धोखा खाने की प्रवृत्ति दिखाई देती है. अगर सोशल मीडिया की ही बात करें तो शोध के मुताबिक, हमें उस  झूठ को स्वीकारने में जरा भी संकोच नहीं होता है जो हमारी ही सोच को और मजबूत करता है.

विचारों का समर्थन

इसलिए जब अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दावा किया कि उन के शपथग्रहण समारोह में ऐतिहासिक भीड़ जमा हुई थी, तब उन के समर्थकों ने बगैर उस बात को जांचे स्वीकार कर लिया था. जबकि बाद में सामने आया कि ट्रंप की ओर से जारी की गई तसवीरें दरअसल फोटोशाप्ड थीं. वाशिंगटन पोस्ट फैक्ट चैकर्स ने उन के बयानों को खंगाला तो पता चला कि वे औसतन लगभग 22  झूठ प्रतिदिन बोलते हैं. बावजूद इस के हम उसे  झूठ मानने से इनकार करते हैं क्योंकि वह बात कहीं न कहीं हमारे बनाए विचारों का समर्थन करती है.

जार्ज लैकआफ, कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी, बकली में भाषाविद हैं और कहते हैं कि अगर कोई तथ्य सामने रखे और वह आप की सोच में फिट न हो, तो या तो आप उसे अनदेखा करेंगे या फिर उसे बकवास बताने लगेंगे.

कुछ समय पहले की ही बात है. मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में सतपुड़ा टाइगर रिजर्व में एक महुआ का पेड़ रातोंरात चमत्कारी बन गया. दरअसल, एक चरवाहे ने लोगों को कहानी सुनाई कि जब वह जंगल से गुजर रहा था तब उसे महसूस हुआ कि कोई उसे खींच रहा है. फिर जा कर वह एक महुआ के पेड़ से लिपट गया और पलभर में ही उस के शरीर और जोड़ों का दर्द गायब हो गया. फिर क्या था, लोगों की वहां भीड़ जमा होने लगी, यह जांचे बगैर कि वह चरवाहा सच बोल रहा है या  झूठ.

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 झूठ हमें आकर्षित क्यों करता है

कहते हैं सच कड़वा होता है, पर  झूठ हमें आकर्षित करता है. इस का एक कारण तो यह है कि  झूठ बोलने की हमारी सैल्फ सविंग ह्यूमन टैडेंसी इतनी सामान्य है कि मनोवैज्ञानिकों ने इसे एक रोचक नाम दिया है ‘द फंडामैंटल अट्रिब्यूशन एरर’ यानी मौलिक रूप से गलती थोपने की आदत. यह हमारे भीतर इतनी गहरी बैठ गई है कि हम हर किसी के साथ  झूठ बोलने में अभ्यस्त हो गए हैं. ऐसा हम ईमेल, सोशल मीडिया, वाहन बीमा राशि के समय, बच्चों के साथ, दोस्तों यहां तक कि अपने जीवनसाथी के साथ भी बेवजह लगातार  झूठ बोलते हैं.

वैसे जानकार मानते हैं कि  झूठ बोलने की आदत हमारे विकास का वैसा ही हिस्सा है जैसे कि चलना, बोलना, खानापीना आदि. हालांकि  झूठ बोलने को कहीं न कहीं मासूमियत खोने की शुरुआत माना जाता है. मनोवैज्ञानिक तो यह भी कहते हैं कि बच्चे का  झूठ बोलना इस बात का संकेत है कि उस का ज्ञान संबंधी विकास पटरी पर है. उम्र के साथ बच्चे बेहतर तरीके से  झूठ बोल पाते हैं.  झूठ बोलने के दौरान दूसरे पक्ष के दिमाग, उस की सोच को सम झने के तरीकों को ‘थ्योरी औफ माइंड’ कहा गया है. बच्चों के  झूठ में धीरेधीरे इस थ्योरी का असर दिखाईर् देने लगता है.

2008 के एक अध्ययन में सामने आया कि सच्ची भावनाओं को छिपाना आसान नहीं है, जबकि हम स्वाभाविक रूप से  झूठ नहीं बोल सकते हैं वहीं 2014 में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि धोखा या  झूठ किसी को अस्थायी रूप से थोड़ा और रचनात्मक होने के लिए प्रेरित कर सकता है.

बहुत भारी भी पड़ सकती है

वैसे अगर किसी के भले के लिए  झूठ बोला जाए, तो वह कई सच से बड़ा होता है, ऐसा भी हम ने सुना है, लेकिन कितना  झूठ है सही?

इस संबंध में मनोवैज्ञानिक डा. अशुम गुप्ता कहती हैं कि दूसरों की भलाई के लिए कुछ खास स्थितियों में बोले गए  झूठ को  झूठ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, लेकिन अपने फायदे, लालच और दूसरों को नुकसान पहुंचाने या उन्हें परखने के उद्देश्य से  झूठ बोलने की आदत बहुत भारी पड़ सकती है.

ऐसा करने वाले लोग अपनों का विश्वास खो देते हैं. नकारात्मक छवि की वजह से इन की सच्ची बातों पर भी लोगों को यकीन नहीं होता. अगर कभी मजबूरी में आप को  झूठ बोलना भी पड़े तो बाद में जब स्थितियां सामान्य हो जाएं तो विनम्रता से माफी मांगते हुए अपना  झूठ स्वीकार लेना चाहिए. इस से मन में कोई ग्लानि नहीं रहेगी और आप की छवि भी नहीं बिगाड़ेगी.

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