महामारी तो पिछले साल से ही कहर बरपा रही है, लेकिन तब के घोषित लौकडाउन और इस साल के अघोषित लौकडाउन में बहुत फर्क है. पिछले साल सरकार और दूसरी स्वयंसेवी संस्थाएं जरूरतमंदों की मदद के लिए खूब आगे आ रही थीं. मालिक भी अपने मुलाजिमों के काम पर न आने के बावजूद उन्हें तनख्वाह दे रहे थे. चाहे वह सामाजिक दबाव के चलते ही रहा होगा, लेकिन भूख से मरने की नौबत तो कम से कम नहीं आई थी. पर इस साल तो जान बचाना ही भारी लग रहा है.
क्या किया जाए? न अंटी में पैसा, न गांठ में धेला. रोज कमानेखाने वालों के पास जमापूंजी भी कहां होती है. सरकार जनधन जैसी योजनाओं की कामयाबी के लाख दावे करे, लेकिन जमीनी हकीकत से तो भुक्तभोगी ही वाकिफ होगा न. बैंक में खाता खोल देनेभर से रुपया जमा नहीं हो जाता.
रोज सुबह एकएक अंगुल खाली होते जा रहे आटे के कनस्तर को देखती दुलारी मन ही मन अंदाजा लगाती जा रही थी कि कितने दिन और वह अपनी जद्दोजेहद को जारी रख सकती है. जिस दिन कनस्तर का पेंदा बोल जाएगा, उस दिन उसे भी सब सोचविचार छोड़ कर वही रास्ता अपनाना पड़ेगा, जिस पर वह अभी तक विचार करने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाई है.
दुलारी के होश संभालते ही मां ने मन की जमीन पर संस्कारों के बीज डालने शुरू कर दिए थे, जो उम्र के साथसाथ अब पेड़ की माफिक अपनी पक्की जड़ें जमा चुके हैं. पेड़ों को जड़ से उखाड़ना आसान है क्या?
‘हम गरीबों के पास यही एक पूंजी है छोरी और वह है हमारी इज्जत. आंखों का पानी खत्म तो सम झ सब खत्म…’ मां के दिए ऐसे संस्कार दुलारी का पीछा ही नहीं छोड़ते. लेकिन बेचारी मां को क्या पता था कि इस तरह की कोई महामारी भी आ सकती है, जिस की आंधी में उस के लगाए संस्कारों के पेड़ सूखे पत्ते से उड़ जाएंगे.
एक तरफ सरकार कहती है कि लौकडाउन लगाना सही नहीं है, वहीं दूसरी तरफ लोगों से गुजारिश भी करती है कि घर में रहो, बाहरी लोगों से कम से कम मेलजोल रखो. यह दोहरी नीति ही तो जान पर भारी पड़ रही है.
पिछली दफा किसी तरह मरतेबचते गांव वापस गए थे, लेकिन वहां भी क्या मिला? वैसे, कुसूर गांवों का भी नहीं. वहां अगर मजदूरी होती तो लोग शहरों की तरफ भागते ही क्यों? शहर कम से कम भूखा तो नहीं सुलाता था.
जल्दी ही गांव का चश्मा दुलारी की आंखों से उतर गया था. उधर वापस जब सब सामान्य होने लगा, तो सब से पहले उसी ने अपना बोरियाबिस्तर बांधा था. कितनी मुश्किल से लोगों को भरोसा दिलाया था कि वह ठीक है. अभी कुछ घरों में नियमित काम मिला ही था कि फिर से वही डर के साए.
जब से साहब लोगों के घरों में फिर से लौकडाउन लगने की सुगबुगाहट सुनी है, तब से दुलारी का जी उठाउठा का जा रहा है. काम करते समय हाथ यहां रसोई में और कान वहां टैलीविजन की खबरों पर लगे हुए हैं.
टैलीविजन पर कैसे लोग चिल्लाचिल्ला कर बहस करते हैं. उस के लिए तो अब ये बातें बिलकुल बेमानी हैं कि इन हालात में आने के लिए कौन जिम्मेदार है. किस की कहां चूक थी या किन लापरवाहियों के चलते हालात इतने बिगड़े हैं. अब वह बड़ी सरकार तो है नहीं कि सरकार के फैसले को चुनौती दे. वह तो भेड़ है, जिसे मालिक की हांक के इशारे पर ही चलना पड़ेगा.
शाम को दुलारी घर आई तो मां की आंखों में भी खौफ दिखा. उन्हें भी शायद किसी ने टैलीविजन की खबरों के बारे में बता दिया होगा. मां ने आंखों में सवाल भर कर उस की तरफ देखा तो वह आंखें बचाती हुई रसोई की तरफ मुड़ गई.
अनजाने डर से घिरी दुलारी ने घर के सारे कोने तलाश कर लिए. बामुश्किल 500 रुपए ही निकले. इतने से क्या होगा. कितने दिन प्राणों को शरीर में रोक पाएगी. और फिर वह अकेली कहां है… उस के साथ 2 प्राणी और भी तो जुड़े हैं. एक बूढ़ी मां और दूसरा अपाहिज छोटा भाई.
रातभर दुलारी के मन में उमड़घुमड़ चलती रही, ‘काश, मेरे पास भी कुछ पूंजी होती तो आज यों परेशानी में जागरण नहीं कर रही होती.’
दुलारी ने करवट बदलते हुए ठंडी सांस भरी. तभी पूंजी के नाम से मां की बात याद आ गई, ‘गरीब के पास यही तो एक पूंजी होती है छोरी…’
अपनी पूंजी का खयाल आते ही दुलारी पसीने से भीग गई. कपूर साहब की आंखें उसे अपने शरीर से चिपकी हुई महसूस होने लगीं. उस ने अपना दुपट्टा कस कर अपने चारों तरफ लपेट लिया.
‘ऐसी ही किसी आपदाविपदा के लिए तो पूंजी बचाई जाती है. किसी के पास रुपयापैसा, किसी के पास जमीनजायदाद, तो किसी के पास गहनाअंगूठी. तेरे पास तो यही पूंजी है,’ मन में छिपे कुमन ने दुलारी को उकसाया.
दुलारी कसमसाई और अपने कुमन को पीछे धकेल दिया. उस की धकेल में शायद ज्यादा ताकत नहीं थी. कुमन बेशर्मी से दांत फाड़े फिर से उठ खड़ा हुआ.
‘अरी, इस में गलत क्या है? मुसीबत में काम न आए वह कैसी पूंजी? तेरे पास कोई दूसरा रास्ता है तो वह कर ले, लेकिन अपनी और अपने परिवार की जान बचाना तेरा फर्ज है कि नहीं? जब जान ही न बचेगी तो मान बचा कर क्या करेगी,’ कुमन ने दुलारी को हकीकत दिखाने की कोशिश की.
‘ठीक ही तो कहता है बैरी. मैं खुदकुशी कर भी लूं, लेकिन इन दोनों की हत्या का पाप कैसे अपने सिर ले सकती हूं…’ मन पर कुमन हावी होने लगा और आखिरकार उस की जीत हुई.
दुलारी ने कपूर साहब के पास अपनी पूंजी गिरवी रखने का फैसला कर लिया. मन किसी फैसले पर पहुंचा तो नींद भी आ गई.
आज सुबह वही हुआ, जिस का डर था. सालभर पहले जहां से चले थे, वापस वहीं आ गए. सरकार ने प्रदेशभर में सख्त कर्फ्यू लगाने के आदेश जारी कर दिए थे. दुलारी के आंखकान फोन पर लगे थे. अभी मेमसाहब लोग के काम पर न आने के फोन आने शुरू हो जाएंगे. वह अनमनी सी अपने दैनिक काम निबटा रही थी.
‘फोन नहीं बजा. कहीं बंद तो नहीं पड़ा…’ दुलारी ने फोन उठा कर देखा. फोन चालू था. समय देखा तो 8 बजने वाले थे. एक भीतरी खुशी हुई कि शायद अपनी पूंजी गिरवी न रखनी पड़े.
‘8 बजे वर्मा साहब के घर पहुंचना होता है…’ सोचते हुए दुलारी ने रात की रखी ठंडी रोटी चाय के साथ निगली और मास्क लगा, दुपट्टे से अपना चेहरा ढकते हुए दरवाजे की तरफ लपकी, पर दरवाजे से निकल कर मेन सड़क तक आतेआते मोबाइल की घंटी बज गई.
‘सुनो, अभी कुछ दिन तुम रहने दो. थोड़ा नौर्मल हो जाएगा, तब मैं खुद तुम्हें फोन करूंगी…’ फोन उठाने के साथ ही मिसेज वर्मा ने कहा और बिना दुलारी की नमस्ते का जवाब दिए ही खट से फोन काट दिया, मानो कोरोना का वायरस मोबाइल फोन से फैल रहा हो.
दुलारी एक फीकी सी हंसी हंस कर वापस मुड़ गई. एक बार फिर से अपनी पूंजी को गिरवी रखने की सलाह कुमन देने लगा था.
‘‘ले, अखबार पढ़ ले. लोग तो अखबार से ऐसे डर रहे हैं मानो उन के घर में साक्षात मौत आ रही हो…’’ अखबार बेचने वाला राजू अपनी साइकिल पर बिना बिके अखबारों का बंडल लटकाए भारी कदमों से धीरेधीरे पैडल मारता दुलारी के पास से निकला, तो 2-3 प्रतियां उस के हाथ में थमा गया.
कर्फ्यू में क्या खुला क्या बंद रहेगा की सूची अखबार के पहले पन्ने पर ही लिखी थी… आखिरी लाइन पर आतेआते उस की नजर ठिठक गई. लिखा था, ‘मजदूरों के पलायन को रोकने की खातिर सरकार ने निर्माण कार्य जारी रखने का फैसला किया है…’
यह पढ़ते ही दुलारी की आंखों की बु झती रोशनी फिर से टिमटिमाने लगी.
‘‘नहीं करना घरघर जा कर कपड़ेबरतन. जब तक शरीर में जान है, ईंटगारा ढो लूंगी. दोनों टाइम सब्जीदाल न सही, 3 प्राणियों को चायरोटी का टोटा तो नहीं पड़ने दूंगी,’’ खुद से कह कर दुलारी ने अखबार समेटा और काख में दबाते हुए मुसकरा दी. आज अचानक ही उसे अपने कंधे बहुत मजबूत महसूस होने लगे थे.