“हैलो, कौन?” “पहचानो…””कौन है?””अरे यार, भुला दिया हमें?” और एक खिलखिलाती हुई हंसी फोन पर सुनाई पड़ी. “अरे स्नेहा, तुम, इतने दिनों बाद, कैसी हो?” नेहा पहचान कर खुशी ज़ाहिर करते हुए बोली.
“नेहा, यार, तुम तो मेरी पक्की सहेली हो, तुम से कैसे दूर रह सकती थी. ऐसे भी दोस्ती निभाने में हम तो नंबर वन हैं. बहुत सारी बातें करनी है मुझे तुम से. अच्छा, मेरा फोन नंबर लिख लो. अभी मुझे हौस्पिटल जाना है, कल बात करते है,” और स्नेहा ने फ़ोन रख दिया.
“हौस्पिटल…” बात अधूरी रह गई. नेहा कुछ चिंतित हो उठी, ‘आख़िर, उसे हौस्पिटल क्यों जाना था…’ नेहा बुदबुदा रही थी.
नेहा के मन में स्नेहा की स्मृतियां चलचित्र की तरह तैर गईं… कालेज में फौर्म भरने की लाइन में नेहा खड़ी थी लाल रंग के पोल्का डौट का सूट पहने और उसी लाइन मे स्नेहा काले रंग के पोल्का डौट का सूट पहने खड़ी थी. उन दिनों पोल्का डौट का फैशन चल रहा था.
“गम है किसी के पास,” स्नेहा ज़ोर से बोली. स्नेहा को फौर्म पर फोटो चिपकानी थी.”हां है, देती हूं,” नेहा ने मुसकराते हुए गम की छोटी सी शीशी स्नेहा को थमा दी. बदले में स्नेहा ने मुसकान बिखेर दी.
फौर्म जमा कर बाहर निकलते हुए स्नेहा चपल मुसकान के साथ नेहा की ओर मुखातिब हुई, “थैंक्यू सो मच, फौर्म से मेरी फोटो निकल गई थी, मैं तो घबरा गई थी कि क्या होगा अब…”
“थैंक्यू कैसा, चलो आओ, उधर सीढ़ियों पर थोड़ी देर बैठते हैं,” नेहा बीच में ही बोल पड़ी.नेहा, स्नेहा दोनों वहां अकेली थीं. दोनों को, शायद, इसीलिए एकदूसरे का साथ मिल गया था.”अच्छा, तुम्हारा नाम क्या है?”
“स्नेहा ढोले.”“और तुम्हारा?””नेहा खरे. अरे वाह, हम दोनों के नाम कितने मिलते हैं… और हमारी ड्रैसेस भी,” नेहा आश्चर्यमिश्रित खुशी के साथ बोली, वैसे, ढोले…क्या?”
“हम गढ़वाल के हैं,” स्नेहा ने उत्तर दिया.नेहा गौर से स्नेहा को निहार रही थी. बड़ीबड़ी आंखें, तीखी नाक, गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठ, दमकता हुआ रंग मतलब सुंदरता के पैमाने पर तराशा हुआ चेहरा थी स्नेहा और पहाड़ी निश्च्छलता से सराबोर उस का व्यक्तित्व.
“क्या हुआ?”, स्नेहा ने टोका.”न…न…नहीं, बस, ऐसे ही,” नेहा मुसकरा कर रह गई.”तुम कितने भाईबहन हो? स्नेहा ने पूछा.”एक भाईबहन.”“हम भी एक भाईबहन हैं. कितना कुछ मिलता है हम में न,” स्नेहा ज़ोर से खिलखिलाते हुए बोल पड़ी.
“हां, सच में,” नेहा भी आश्चर्य से भर गई थी.”तो आज से हम दोनों दोस्त हुए,” दोनों ने एकसाथ हाथ पकड़ कर हंसते हुए कहा था.
लखनऊ अमीनाबाद कालेज से निकल कर दोनों ने पाकीज़ा जूस सैंटर पर ताज़ाताज़ा मौसमी का जूस पिया. दोनों को ही मौसमी का जूस बहुत पसंद था और इस तरह शुरू हुई दोनों की दोस्ती.
लोग कहते हैं, दोस्त हम चुनते हैं. पर नेहा का मानना है कि दोस्ती भी हो जाती है जैसे उस दिन स्नेहा से उस की दोस्ती हो गई थी.
नेहा स्नेहा की यादों को एक सिरे से समेट रही थी. उस ने पुराने अलबम निकाले. एक फोटो थी एनसीसी कैंप की, जिस में वह खुद और स्नेहा पैरासीलिंग कर रही थीं. नेहा को कैंप की याद आई…’यार, वह लड़का कितना हैंडसम है. बस, एक नज़र देख ले,’ स्नेहा ने चुहलबाज़ी करते नेहा से कहा था.
‘क्या स्नेहा, हर समय लड़कों को देखती रहती हो,’ नेहा गंभीरता ओढ़ कर बोली थी.‘अरे यार, एनसीसी में हमारे कैंप लड़कों से अलग हो जाते हैं, तो नैनसुख तो ले ही सकते हैं न,” स्नेहा बोलतेबोलते ज़ोर से हंस पड़ी थी.
नेहा और स्नेहा दोनों ने ही ग्रेजुएशन में एनसीसी ली थी और पहली बार दोनों घर से दूर कैंप गई थीं. साथसाथ खाना, साथसाथ रहना, साथसाथ परेड करना…लगभग सारे काम साथ. उन की दोस्ती गहरी होती जा रही थी.
‘कितने गंदे पैर ले कर आई हो,’ स्नेहा ने डांटते हुए कहा था.‘अरे यार, आज मेरी सफाई की ड्यूटी थी, सो पैर में कीचड़ लग गया,” नेहा ने गुस्साते हुए कहा था.‘ह्म्म्म्मम, कैंप की सफाई कर खुद को गंदा कर लिया,’ स्नेहा बड़बड़ाती जा रही थी.
स्नेहा तुरंत उठी और एक तौलिया ले कर नेहा का पैर बड़ी ही तन्मयता के साथ साफ करने लगी. नेहा स्नेहा का यह रूप देख कर हैरान थी. स्नेहा को उस का पैर साफ करने में तनिक भी संकोच नहीं हुआ. एक मातृवत भाव के साथ वह यह सब कर रही थी. कहां से आई उस के अंदर यह भावना, शायद उस की परिस्थितियां…, नेहा सोच में मे पड़ गई थी.
एक दिन पाकीज़ा जूस सैंटर पर जूस पीतेपीते नेहा ने कहा, ‘स्नेहा, आज चलो मेरे घर, मेरे मांपापा से मिलो.’ स्नेहा उस दिन नेहा के घर गई. उसे नेहा के यहां बहुत अच्छा लगा. ‘कितने अच्छे हैं तुम्हारे मांपापा और तुम्हारी प्यारी सी दादी. मां ने कितने अच्छे पकौड़े बनाए,’ स्नेहा बिना रुके बोले जा रही थी, अचानक मुसकराई, ‘और तुम्हारा भाई भी बहुत अच्छा है.’ शरारत के साथ आंखें मटकाते अपने चिरपरिचित अंदाज़ में स्नेहा बोली थी.
स्नेहा के इस अंदाज़ को नेहा बखूबी समझ चुकी थी, वह भी हंस पड़ी.‘अब मुझे भी अपने घर ले चलो,’ नेहा ने स्नेहा से कहा. ‘मेरे घर…,’ स्नेहा कुछ हिचकिचा गई‘ले चल स्नेहा, तुम्हारा घर तो सीतापुर रोड पर खेतखलिहानों के पास है, बहुत मज़ा आएगा.”‘ह्म्म्म्म, अच्छा, कल चलना,’ स्नेहा का स्वर कुछ धीमा पड़ गया था.
‘कितनी सुंदर जगह है तुम्हारा घर, हरेभरे खेतों के बीच,’ नेहा, स्नेहा का घर देख कर खुशी से झूमी जा रही थी. स्नेहा का घर कच्चे रास्तों से गुज़रता था. घर पहुंचते ही स्नेहा ने अपनी दादीमां से मिलवाया, ये हैं मेरी सब से प्यारी दादी तुम्हारी दादी की तरह. और दादी, यह है मेरी पक्की वाली दोस्त नेहा.” स्नेहा ने फिर गरमागरम छोलेचावल खिलाए.
‘स्नेहा, छोले तो बहुत टैस्टी हैं, आंटी ने बनाए होंगे,’ नेहा खातेखाते बो ‘नहीं, मैं ने बनाए हैं,” स्नेहा कुछ गंभीर हो गई थी. ‘तुम ने! यार स्नेहा, यू आर ग्रेट कुक. वैसे आंटी कहां हैं?’ नेहा ने पूछा. ‘मम्मी…’ स्नेहा की बात अधूरी रह गई. पीछे वाले कमरे से सांवली, साधारण सी बिखरे बालों के साथ एक महिला वहां आ गई. नेहा कुछ आश्चर्य से उन्हें देखने लगी. फिर ‘मेरी मम्मी’ कह स्नेहा ने उस महिला का परिचय कराया.
नेहा सोच में पड़ गई. स्नेहा तो कितनी सुंदर और उस की मम्मी साधारण सी, बिखरे बाल, दांत भी कुछ टूटे हुए… यह कैसे? कई सारे सवालों से नेहा घिर गई थी. स्नेहा की मम्मी कुछ अलग सी मुसकान के साथ अंदर चली गई.
‘नेहा, तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा न. मेरी मम्मी ऐसी… दरअसल, मम्मी पहले बहुत अच्छी दिखती थीं लेकिन जब मेरा भाई किडनैप हुआ तब से मम्मी की हालत ऐसी हो गई. भाई तो वापस मिला लेकिन मम्मी तब तक मैंटल पेशेंट हो चुकी थीं,’ स्नेहा धीरेधीरे बोल रही थी.
‘उफ्फ़…’ नेहा ने एक लंबी सांस भरी. कितना दुख है जीवन में. मां होते हुए भी मां का प्यारदुलार न मिले. स्नेहा तो अपनी मां से कोई ज़िद भी न कर पाती होगी. नेहा का मन भरा जा रहा था.
“चलो नेहा, मैं तुम्हें अपना स्कूल दिखाती हूं. हमारा स्कूल कोएजुकेशन था, एक से एक स्मार्ट लड़के पढ़ते थे. अब तो हम गर्ल्स कालेज में आ गए,’ स्नेहा ने शायद नेहा के माथे पर पड़ी सलवटों को देख लिया था और वह माहौल को कुछ हलका करना चाहती थी.
‘स्नेहा, तुम भी न,” नेहा ने यह कह कर हंसी तो स्नेहा भी खिलखिला पड़ी थी.नेहा उस अलबम की हर फोटो को बड़े गौर से देख रही थी. वेलकम पार्टी, टीचर्स डे, फेयरवैल, ऐनुअल फंक्शन… हर फोटो में नेहा और स्नेहा छाई हुई थीं. दिन हंसतेगाते, पाकीज़ा जूस सैंटर का जूस पीते हुए बीत रहे थे. पर दिन हमेशा एक से नहीं रहते. ग्रेजुएशन के फाइनल ईयर के आख़िरी दिनों में स्नेहा कालेज में लगातार गैरहाजिर हो रही थी. नेहा चिंतित थी, क्या हुआ, क्यों नहीं आ रही है स्नेहा? पता चला, स्नेहा बहुत दिनों से हौस्पिटल में एडमिट है. स्नेहा को क्या हो गया, नेहा परेशान हो उठी.
नेहा हौस्पिटल पहुंची जहां स्नेहा एडमिट थी. स्नेहा का चेहरा स्याह पड़ चुका था, आंखें गड्ढे में चली गई थीं, चेहरा फीकाफीका सा लग रहा था, देह जैसे हड्डी का ढांचा. नेहा को स्नेहा का वह पहले वाला दमकता सौंदर्य याद आ गया. और अब…
‘आओ नेहा,’ एक कमज़ोर सी आवाज़ और फीकी मुसकान के साथ स्नेहा बोली. नेहा उस के पास रखे स्टूल पर बैठ गई. नेहा ने स्नेहा का हाथ पकड़ते हुए पूछा, ‘क्या हो गया स्नेहा? किसी को कुछ बताया भी नहीं, अकेलेअकेले ही सारे दुख़ झेलती रही?’
नहीं, नहीं नेहा, कुछ पता ही नहीं चला. पहले फीवर और हलकी कमज़ोरी थी, फीवर की दवा ले लेती थी, पर घर का काम भी रहता था और वीकनैस बढ़ने लगी. और एक दिन खून की बहुत सारी उलटियां हुईं. मेरे पापा तो बहुत घबरा गए. यहां हौस्पिटल में एडमिट करा दिया,’ स्नेहा धीरेधीरे सारी बातें नेहा को बताती जा रही थी.
‘और तुम्हारी मम्मी?’ नेहा ने तुरंत ही पूछा.‘मम्मी को तो कुछ पता ही नहीं चलता. वे तो…’ बोलतेबोलते स्नेहा रुक गई और एक गहरी सांस अंदर खींच कर रह गई.
‘पर खून की उलटियां क्यों हुईं तुम्हें?’ नेहा अगले प्रश्न के साथ तैयार थी. ‘दरअसल, मुझे सीवियर ट्यूबरकुलोसिस है. पूरे लंग्स में इन्फैक्शन है. थोड़ा मुझ से दूर ही रहो,’ स्नेहा पहले तो कुछ गंभीर थी, फिर हंस दी.
‘पर स्नेहा, तुम्हारा इलाज तो सही हो रहा है न, यहां के डाक्टर्स अच्छे हैं न? नेहा ने चिंतित स्वर में पूछा. स्नेहा के चेहरे पर शरारत टपक गई, बोली, ‘अरे यार नेहा, डाक्टर्स तो अच्छे हैं, एक नहीं दोदो अच्छे हैं, एक सीनियर डाक्टर और एक जूनियर डाक्टर. सीनियर वाला न, मेरे गढ़वाल का ही है. पर, सूरत जूनियर वाले की ज़्यादा अच्छी है.’ ‘स्नेहा, तुम नहीं सुधरोगी, इतनी बीमार हो, फिर भी…’ नेहा हंसते हुए उस का गाल सहलाते हुए बोली.
नेहा, तो क्या रोती रहूं हर समय. अब तुम ने ही पूछा कि डाक्टर्स कैसे हैं तो मैं ने बताया,’ स्नेहा हलके गुस्से से बोली. इतने में एक साधारण नयननक्श का सांवला डाक्टर आया, उसे एग्जामिन किया और पूछा, ‘स्नेहा जी, अब वौमिटिंग बंद हुई, फीलिंग बेटर नाउ?’
‘हां डाक्टर,’ स्नेहा ने धीमे से जवाब दिया. पीछे एक हैंडसम सा जूनियर डाक्टर साथ था. उस ने स्नेहा को कुछ दवाएं दी और मुसकराते हुए चला गया. ‘देखा स्नेहा, दोनों डाक्टर अच्छे हैं न,’ स्नेहा चहक कर बोली. नेहा प्यार से स्नेहा को सहलाने लगी और बोली, ‘स्नेहा, जल्दी से ठीक हो जाओ, परीक्षाएं पास आ रही हैं, मैं तुम्हें नोट्स दे दूंगी, ओके.’
स्नेहा ने भी नेहा का दूसरा हाथ अपने हाथों से कस के पकड़ लिया और अंसुओं की दो बूंदें उस की आंखों से ढ़ुलक गईं. नेहा अपनी आंखों को छलकने से बचाने के लिए तेज़ आवाज़ में बोली, ‘माय डियर, गेट वैल सून.’ नेहा भीगी पलकों के साथ वहां से चली आई.
परीक्षाएं पास आ गई थीं. स्नेहा की तबीयत पूरी तरह ठीक नहीं हो पाई थी. वह फाइनल एग्ज़ाम नहीं दे सकी. स्नेहा हौस्पिटल से डिस्चार्ज हो कर अपनी दादी के साथ पहाड़ चली गई. इधर नेहा आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली चली गई. वहीं होस्टल ले कर पोस्टग्रेजुएशन करने लगी और साथ में सिविल सर्विसेज़ की भी तैयारी कर रही थी. उसे बिलकुल भी फुरसत न मिलती. मोबाइल उन दिनों था नहीं जो हर समय दोस्तों से वह बात कर सके.
लखनऊ घर बात करने के लिए हफ्ते में एक बार होस्टल के पीसीओ जा पाती थी. नेहा स्नेहा को याद करती, पर बात नहीं हो पाती. ‘पता नहीं स्नेहा कैसी होगी, उस की तबीयत… उस की मां का क्या हाल होगा…’ एक लंबी सांस खींच कर नेहा किताब खोल कर पढ़ने बैठ जाती.
स्नेहा से मिले हुए नेहा को 10-11 महीने हो रहे थे. नेहा दिल्ली से छुट्टियों में अपने घर आई हुई थी. कहते हैं, किसी को शिद्दत से याद करो तो वह मिल ही जाता है. उस दिन भी ऐसा ही कुछ हुआ. स्नेहा ने नेहा को अचानक ही फ़ोन लगा दिया था.
अब नेहा दूसरे दिन स्नेहा के फ़ोन का इंतज़ार कर रही थी और साथ ही चिंतित भी थी क्योंकि स्नेहा ने हौस्पिटल जाने की बात कह कर फ़ोन काट दिया था. कुछ देर बाद फ़ोन की घंटी बजी. नेहा ने पहली घंटी बजते ही रिसीवर उठा लिया.
“हैलो, स्नेहा?” “हां नेहा, मैं स्नेहा बोल रही हूं.”
“स्नेहा, कल तुम ने हौस्पिटल जाने की बात कह कर फ़ोन काट दिया था. क्या तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं हुई?” नेहा ने कुछ घबराते हुए पूछा. “नेहा, मुझे कल जाना था हौस्पिटल डाक्टर से मिलने.”
“वही तो मैं पूछ रही हूं स्नेहा. डाक्टर से मिलने तुम्हें क्यों जाना था”? नेहा लगभग झुंझला कर बोली.”नेहा, जब तुम मुझ से मिलने हौस्पिटल आई थीं, तो याद है तुम्हें 2 डाक्टर्स मुझे एग्ज़ामिन करने आए थे.”
“हांहां, याद है मुझे. एक तो तुम्हारे पहाड़ के थे और दूसरे एक जूनियर डाक्टर थे.””हां, पहाड़ वाले डाक्टर स्वप्निल जोशी. उन्होंने मुझे बुलाया था,” स्नेहा बताने लगी, “नेहा, तुम्हें याद है न, मेरी तबीयत कितनी खराब थी, खून की उलटियां हो रही थीं, मेरा चेहरा कैसा स्याह पड़ चुका था. मम्मी की हालत तो तुम जानती ही हो. जब मुझे हौस्पिटल में एडमिट कराया तो मेरी हालत बहुत खराब थी. ऐसे में डा. स्वप्निल ने ही मुझे एग्ज़ामिन किया. उन की ही दवाओं से मेरी उलटियां रुकीं. थोड़ी तबीयत हलकी हुई. अब जब भी डा. स्वप्निल मेरा चैकअप करने आते, मुझे आदतन हंसी आ जाती. तुम्हें तो पता है, मुझ से ज़्यादा देर सीरियस नहीं रहा जाता. उस दिन भी डा. स्वप्निल को देख मैं यों ही हंस पड़ी. डा. ने पूछा, “हैलो स्नेहा, फीलिंग बेटर नाऊ?”
“या डाक्टर,” मैं ने मुसकराते हुए उत्तर दिया. “पूरा आराम कीजिए स्नेहा आप और मेडिसिन्स टाइम से लीजिए पूरे 6 महीने का कोर्स है.”जी डाक्टर,” मैं फिर मुसकरा उठी. डा. स्वप्निल भी मुसकरा पड़े.
एक दिन मैं ने शीशे में में अपना चेहरा गौर से देखा तो मैं खुद घबरा गई. आंखें धंसी, चेहरा पीला, सारी रंगत चली गई थी. बस. नहीं कुछ गया था तो वह थी मेरी हंसी. मम्मी की चिंता, पापा की चिंता, दादी भी बूढ़ी हो चली हैं…कैसे क्या होगा? और मेरी भी तबीयत…भाई भी छोटा है… क्या ज़रूरत थी कुदरत को मुझे इस तरह बीमार करने की. बहुत गुस्सा आता मुझे. पर इन सब के बीच ज़िंदगी से नफ़रत नहीं कर पाती. कुछ भी अच्छा एहसास होता, तो बरबस ही होंठों पर मुसकान आ जाती. सो, डा. स्वप्निल का एहसास भी कुछ अच्छा सा था. डा. स्वप्निल से मैं धीरेधीरे खुलने लगी. उन्हें अपने घर के बारे में, मम्मी के विषय में बताया. डा. स्वप्निल गंभीरता से मेरी बातें सुनते. मुझे भी उन से बातें करना अच्छा लगता. उस दिन 25 अगस्त को मेरा बर्थडे था. डा.
स्वप्निल मुझे चैक करने आए तो स्टेथोस्कोप के साथ उन के हाथों में लाल गुलाब के फूलों का बुके भी था. उन्होंने बुके पकड़ाते हुए कहा, “हैप्पी बर्थडे स्नेहा.” “पर आप को कैसे पता चला?” मैं ने चौंकते हुए पूछा.
“ह्म्म्म्म, स्नेहा, वह दरअसल, मैं ने तुम्हारी फ़ाइल देखी थी. उस में बर्थडे की एंट्री थी. वहीं से पता चला,” डा. स्वप्निल मुसकराते हुए बोले”अच्छा, तो डाक्टर साहब मरीज़ की सारी अनोट्मी देखते हैं,” मैं ने भवें तिरछी कर हंसते हुए कहा.
डा. स्वप्निल कुछ औकवर्ड फील करने लगे, फिर कुछ सीरियस हो कर मेरी ओर मुखातिब हुए, “स्नेहा, आज तुम्हारा बर्थडे है, उपहार तो मुझे देना चाहिए. पर एक उपहार मैं तुम से मांगना चाहता हूं.” “क्या, क्या?” मैं ने हैरानी और आशंका से प्रश्न किया.डा. स्वप्निल बिना एक पल की देरी किए हुए कह उठे, “स्नेहा, मुझ से शादी करोगी?”
मैं आश्चर्य में पड़ गई. समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या कहूं. मेरे कानों से ऐसा लगा मानो गरम हवा निकल रही हो. दिल बैठा जा रहा था. सुन्न सी हालत हो गई थी मेरी.
मैं ने लड़खड़ाती ज़बान से कहा, “पर डाक्टर, मेरी बीमारी…मेरी मां की हालत… आप कैसे…” आवाज़ मानो घुट कर गले में ही अटक गई.
डा. स्वप्निल ने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहने लगे, “स्नेहा, तुम्हारी बीमारी ठीक हो जाएगी, मुझ पर विश्वास करो. मैं तुम्हारे घर की स्थिति को जानता हूं. ये सब जानते हुए भी मुझे तुम्हारा ही हाथ थामना है. पता है क्यों, क्योंकि तुम से मिल कर मेरी दवाओं, इंजैक्शन, औपरेशन से भारी रूखी ज़िंदगी में मुसकराहट आ जाती है. मेरी सीरियसनैस में चंचलता आ जाती है. तुम से मिल कर ज़िंदगी से प्यार होने लगता है. मेरा ख़ालीपन भरने लगता है. बोलो स्नेहा, मेरा साथ तुम्हें पसंद है.”
डा. स्वप्निल इतना कह कर नम आंखों से मुझे देखने लगे. मेरी पलकें अनायास ही झुक गईं. डा. स्वप्निल की बातों में, उन के हाथों के स्पर्श में भरोसे की खुशबू को मैं ने खूब महसूस किया और…”
“और, फिर क्या हुआ?” नेहा ने उछलते हुए पूछा. “फिर क्या हुआ?? हुआ यह कि इस संडे को मेरी एंग़ेज़मैंट है डा. स्वप्निल के साथ और उस दिन मुझे उन्होंने रिंग पसंद करवाने के लिए हौस्पिटल बुलाया था. तुम्हें ज़रूर आना है, ” स्नेहा बोलते हुए अपनी स्वाभाविक हंसी के साथ हंस पड़ी.
नेहा बड़ी गर्मजोशी से बोली, “ओह स्नेहा, तुम ने अपनी हंसी में डाक्टर को फंसा ही लिया. सच, मैं बहुत खुश हूं तुम्हारे लिए. वैसे, डाक्टर साहब ने ठीक ही कहा कि तुम से मिल कर वीरान ज़िंदगी में बहार आ जाती है, बोरिंग ज़िंदगी रंगीन लगने लगती है और ज़िंदगी से प्यार होने लगता है. आख़िर प्यार है नाम तुम्हारा, स्नेहा डियर.”
“और तुम्हारा भी,” स्नेहा खनकती आवाज़ में बोल पड़ी. दोनों सहेलियां एकदूसरे को फोन पर ही मनभर कर महसूस करती हुईं ज़ोर से खिलखिला पड़ीं.