लोगों ने उसे समझाया कि शुरू से ही केयरिंग रहे तो जच्चाबच्चा ठीक रहते हैं, पर शालिनी भीतर से ही सहम गई थी. जब भी सुभाष उसे अंतरंग क्षणों में प्यार में बांधता उस का चेहरा पथरा सा जाता.
‘‘यह क्या हो जाता है, यार तुम्हें?’’ वह चौंक जाता. पर शालिनी जानती थी, कहीं कुछ है, जो भीतर से उसे सालता है.
फिर कभी वह सत्संग आश्रम नहीं गई. सुभाष बारबार कहता कि वहां अच्छे प्रवचन होते हैं, तुम भी चला करो. पर वह यह कह कर मना कर देती कि घर में बहुत काम है, नहीं जाना.
आज जब बेटी सुलभा ने कहा कि मैं तो शाम तक आऊंगी, पास में ही सत्संग आश्रम है, अच्छा पुस्तकालय भी है आप उधर हो आना, तो वह भी दोपहर में तैयार हो कर उधर आ गई.
घने वृक्षों के बीच वह आश्रम था. उस के भव्य भवन के दाहिनी ओर संत महात्माओं की मूर्तियां लगी हुई थीं ओर बायीं तरफ कार्यालय था. भीतर जाते ही बड़े से आंगन में यह भवन खुलता था. सामने बरामदे से अंदर कक्ष में कृष्ण की विशालकाय प्रतिमा थी, जहां भक्तगण नृत्य कर रहे थे. भोग लग चुका था, शयन की तैयारी थी, शाम को फिर दर्शन के लिए खुलना था.
तभी उस की निगाहें सामने लगे बोर्ड पर गईं. उस में विशाल सत्संग होने की सूचना थी. पूछने पर पता चला कि स्वामीजी महाराज संध्या को ही प्रवचन देते हैं. उस ने काउंटर पर बात की तो पता लगा कि सुनने के लिए पहले अनुमति लेनी पड़ती है.
‘‘क्या आप यहां की नहीं हैं?’’
‘‘नहीं.’’
‘‘क्या आप हमारे मिशन की कार्यकर्ता हैं?’’
‘‘नहीं.’’
‘‘तो फिर आप फौर्म भर दीजिए. जब आप का नंबर आएगा, आप को सूचित कर देंगे. यहां हौल में श्रोताओं के लिए सीटें सीमित हैं. हौल फुल हो चुका है.’’
‘‘ठीक है,’’ वह लौटने लगी.
‘‘रुकिए,’’ भीतर से एक महिला ने आते हुए कहा.
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‘‘आप बाहर से आई हैं?’’
‘‘हां.’’
‘‘कितने लोग हैं?’’
‘‘हम 2 हैं, मैं और मेरी बेटी.’’
‘‘ठीक है.’’
‘‘आप को हौल के अंत की लाइन में जगह मिल जाएगी. स्वामीजी पहले तो खुले में बोलते थे, जहां हजारों लोग आते थे, परअब तो हौल में ही बोलते हैं. आप का कोई प्रश्न हो तो लिख कर दे दें.’’
‘‘नहीं, कोई प्रश्न नहीं है.’’
वह चुपचाप अपने गैस्ट हाउस लौट आई. शाम को उस ने पहली बार सुलभा को भी
अपने साथ सत्संग भवन चलने को कहा.
‘‘मां, आप हो आईं?’’ वह चौंकी.
‘‘हां, तुम भी चलो, वहां प्रवचन है.’’
‘‘पर वहां तो जगह नहीं मिलती है.’’
‘‘मिल गई है, 2 सीटें मिल गई हैं, चलो.’’
मांबेटी वहां पहुंचे तो शालिनी ने देखा कि वहां पर उमाशंकरजी ही थे. वे मीरा के प्रेम पर प्रवचन दे रहे थे और उन्हें भक्तों का समूह मंत्रमुग्ध हो कर सुन रहा था. उन का शरीर अब और भी भर गया था पर आंखें उसी तरह चमक रही थीं. हां, सिर के बाल कुछ झड़ गए थे. मूछें भी सफेद हो आई थीं.
प्रवचन समाप्त हो गया तो प्रश्नोत्तर भी हुआ.
‘‘चल मिल लेते हैं,’’ शालिनी ने सुलभा से कहा.
‘‘मां, भीड़ बहुत है.’’
‘‘तो क्या हुआ, चल.’’
‘‘आप कहां चलीं?’’ उन के मंच के पास पहुंचने पर कार्यकर्ताओं ने टोका. जो लोग आगे बैठे थे, उन के पास सुनहरा बड़ा सा बैज था, पर इन के पास वह नहीं था.
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‘‘दर्शन करने.’’
‘‘पर आप…?’’
‘‘हटिए,’’ कह कर शालिनी, सुलभा का हाथ पकड़े हुए मंच पर पहुंच गई.
‘‘बेटी, प्रणाम करो,’’ उस ने भी प्रणाम करते हुए कहा.
उमाशंकरजी के चेहरे पर न जाने कितने व्यूह बनेबिगड़े. उन्होंने आंखें बंद कर लीं, मानो गहरे ध्यान में चले गए हों. भीतर हलचल मची थी, मानो तूफान आ गया हो. हलचल को शांत करते हुए चुप रहे.
‘‘स्वामीजी, मैं शालिनी हूं.’’
उमाशंकरजी ने उसे देखा. वर्षों बाद भी उन्होंने उस के साथ जो कुछ किया था उसे भूल जाना क्या मुमकिन था?
‘‘स्वामीजी, यह मेरी बेटी सुलभा है. इस ने यहीं से आईआईटी किया है और यहीं इस की नौकरी लगी है.’’
‘‘हूं,’’ कह कर उमाशंकरजी ने सुलभा की ओर देखा फिर उस के सिर पर हाथ रखा.
‘‘अभी नौकरी करोगी या आगे पढ़ोगी?’’
‘‘आगे पढ़ना तो चाहती हूं. न्यूयार्क में दाखिला भी हो गया है. वहां से एमबीए करने का इरादा है,’’ शालिनी ने कहा.
‘‘आप लोग कहां ठहरे हैं?’’
‘‘हम पास में ही सीएमजी का जो गैस्ट हाउस है, उस में फर्स्ट फ्लोर पर रूम नं. 101 में हैं.’’
‘‘अरे वह तो सुधांशुजी की बिल्डिंग है.’’
शालिनी चुप रही.
‘‘तुम ने यहीं से आईआईटी किया लेकिन तुम पहले इधर कभी नहीं आईं,’’ वे सुलभा से बोले.
‘‘नहीं, मां किसी सत्संग में नहीं जातीं, न जाने देती हैं. कहती हैं कि एक बार जाना हुआ था. वहां न धर्म था, न अध्यात्म. बस पाखंड ही पाखंड था. मैं ने ही सुबह इन से कहा था कि पास में ही सत्संग आश्रम है, अकेलापन लगे तो वहां हो आना.’’
‘‘हूं,’’ कह कर उमाशंकरजी ने देखा कि शालिनी की आंखों में कोई भाव नहीं था.
पता नहीं क्या चाहती है यह? पता नहीं क्यों आई है यहां? झील में अचानक पड़े पत्थर से उठी लहरों सा उमाशंकरजी का मन अशांत हो गया. कहीं यह डीएनए टैस्ट न करवा दे? आंखें कितनी जल रही हैं. यह चुप ही रहे तो ठीक है.
शालिनी की आंखें, उन के चेहरे पर कील की तरह चुभ रही थीं.
‘‘तो तुम न्यूयार्क नहीं जा रही हो?’’ उन्होंने सुलभा से पूछा.
‘‘नहीं, बैंक लोन तो मिल जाएगा, पर आगे मुश्किल है. सालदो साल रहने का खर्चा है. पापा तो कोशिश कर रहे हैं, पर…?’’
‘‘पर क्या, जाओ. जब इतनी लायक हो तो पढ़ो. तुम्हारी सब व्यवस्था आश्रम कर देगा. वहां ठहरने की, रहने की, सब. न्यूयार्क में भी हमारे भक्त हैं. पटेलजी का न्यू जर्सी में फ्लैट खाली रहता है. न्यू जर्सी पास ही है. वहां से ट्रेन जाती है. तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी. फ्लाइट तो बौंबे से ही होगी. तैयारी कर लो, वीजा ले आओ.’’
‘‘वाह, गुरुजी की कृपा हो तो ऐसी हो,’’ पास खड़े भक्तजन भावविभोर हो कर बोले.
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गुरुजी पुन: ध्यान में चले गए थे. उन से अब बाहर देखा नहीं जा रहा था.
शालिनी ने सुलभा के कंधे पर हाथ रखा. उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि ऐसा कुछ घट गया है. वह जानती थी, जिस का जो फर्ज है, वह उसे निभाना ही पड़ता है. पर उस की गलती, क्या वह कभी अपने को माफ कर पाएगी? यह तो उसे चुप रहने का पुरस्कार मिला है. इस पाखंडी ने कितनों को बरबाद किया होगा, किसे पता? आत्मापरमात्मा के नाम से सैकड़ों साल से यही हो रहा है. उसे पति की याद आई, जो इन पाखंडियों से कितना बेहतर है, पर समाज उन के पीछे पागल है. वह जितनी चुप हो गई थी, सुलभा उतनी ही चपल. अमेरिका की बात पर उस का मोबाइल तो बंद होने का नाम ही नहीं ले रहा था. उधर सामने फुटपाथ पर अखबार कह रहा था कि वित्तमंत्री ने कहा है कि विकास की दर 10% हम पा कर ही रहेंगे. शालिनी अपनेआप से बारबार पूछ रही थी कि मेरे लिए क्या यही विकास का रास्ता बचा है?