रैना: स्नेह पात्र बनी रैना कैसे बन गई कुलटा ?

यह खबर जंगल की आग की तरह पूरी कालोनी में फैल गई थी कि रैना के पैर भारी हैं और इसी के साथ कल तक जो रैना पूरी कालोनी की औरतों में सहानुभूति और स्नेह की पात्र बनी हुई थी, अचानक ही एक कुलटा औरत में तबदील हो कर रह गई थी. और होती भी क्यों न. अभी डेढ़ साल भी तो नहीं हुए थे उस के पति को गुजरे और उस का यह लक्षण उभर कर सामने आ गया था.

अब औरतों में तेरेमेरे पुराण के बीच रैना पुराण ने जगह ले ली थी. एक कहती, ‘‘देखिए तो बहनजी इस रैना को, कैसी घाघ निकली कुलक्षिणी. पति का साथ छूटा नहीं कि पता नहीं किस के साथ टांका भिड़ा लिया.’’

‘‘हां, वही तो. बाप रे, कैसी सतीसावित्री बनी फिरती थी और निकली ऐसी घाघ. मुझे तो बहनजी, अब डर लगने लगा है. कहीं मेरे ‘उन पर’ भी डोरे न डाल दे यह.’’

‘‘अरे छोडि़ए, ऐसे कैसे डोरे डाल देगी. मैं तो जब तक बिट्टू के पापा घर में होते हैं, हमेशा रैना के सिर पर सवार रहती हूं. क्या मजाल कि वह उन के पास से भी गुजर जाए.’’

‘‘पर बहनजी, एक बात समझ में नहीं आती…सुबह से रात तक तो रैना कालोनी के ही घरों में काम करती रहती है, फिर जो पाप वह अपने पेट में लिए फिर रही है वह तो कालोनी के ही किसी मर्द का होगा न?’’

‘‘हां, हो भी सकता है. पर बदजात बताती भी तो नहीं. जी तो चाहता है कि अभी उसे घर से निकाल बाहर करूं पर मजबूरी है कि घर का काम कौन करेगा?’’

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‘‘हां, बहनजी. मैं भी पूछपूछ कर हार गई हूं उस से, पर बताती ही नहीं. मैं ने तो सोच लिया है कि जैसे ही मुझे कोई दूसरी काम वाली मिल जाएगी, इस की चुटिया पकड़ कर निकाल बाहर करूंगी.’’

सच बात तो यह थी कि कालोनी की किसी भी औरत ने उस आदमी का नाम उगलवाने के लिए रैना पर कुछ खास दबाव नहीं डाला था. शायद यह सोच कर कि कहीं उस ने उसी के पति का नाम ले लिया तो.

मगर नौकर या नौकरानी का उस शहर में मिल पाना इतना आसान नहीं था. इसलिए मजबूर हो कर रैना को ही उन्हें झेलना था, और झेलना भी ऐसे नहीं बल्कि सोतेजागते रैना के खूबसूरत चेहरे में अपनी- अपनी सौत को महसूसते हुए. मसलन, जिन 4 घरों में रैना नियमित काम किया करती थी, उन सारी औरतों के मन में यह संदेह तो घर कर ही गया था कि कहीं रैना ने उन के ही पति को तो नहीं फांस रखा है.

फिर तो रोज ही सुबहशाम वे अपनेअपने पतियों को खरीखोटी सुनाने से बाज नहीं आतीं, ‘आप किसी दूसरी नौकरानी का इंतजाम नहीं करेंगे? मुझे तो लगता है, आप चाहते ही नहीं कि रैना इस घर से जाए.’

‘क्यों? मैं भला ऐसा क्यों चाहूंगा?’

‘कहा न, मेरा मुंह मत खुलवाइए.’

‘देखो, रोजरोज की यह खिचखिच मुझे पसंद नहीं. साफसाफ कहो कि तुम कहना क्या चाहती हो?’

‘क्या? मैं ही खिचखिच करती हूं? और यह रैना? कैसे हमें मुंह चिढ़ाती सीना ताने कालोनी में घूम रही है, उस का कुछ नहीं? आप मर्दों में से ही तो किसी के साथ उस का…’

इस प्रकार रोज का ही यह किस्सा हो कर रह गया था उन घरों का, जिन में रैना काम किया करती थी.

आखिर उस दिन यह सारी खिच- खिच समाप्त हो गई जब औरतों ने खुद ही एक दूसरी नौकरानी तलाश ली.

फिर तो न कोई पूर्व सूचना, न मुआवजा, सीधे उसी क्षण से निकाल बाहर किया था सभी ने रैना को. बेचारी रैना रोतीगिड़गिड़ाती ही रह गई थी. पर किसी को भी उस पर दया नहीं आई थी.

कुछ दिनों तक तो रैना का गुजारा कमा कर बचाए गए पैसों से होता रहा था पर जब पास की उस की सारी जमापूंजी समाप्त हो गई तब कालोनी के दरवाजे- दरवाजे घूम कर पेट पालने लगी थी. इसी तरह दिन कटते रहे थे उस के. और जब समय पूरा हुआ तो खैराती अस्पताल में जा कर रैना भरती हो गई थी.

उस कालोनी में कुछ ऐसे घर भी थे जिन्होंने अपने यहां नियमित नौकर रखे हुए थे. उन्हीं में एक घर रमण बाबू का भी था, जहां रामा नाम का एक 12 वर्ष का बच्चा काम करता था, लेकिन एक दिन अचानक ही रामा को उस का बाप आ कर हमेशाहमेशा के लिए अपने साथ ले गया.

घर का झाड़ ूपोंछा, बरतन व कपडे़ धोने आदि का काम अकेले कमलाजी से कैसे हो पाता? सो, अब उन के घर में भी नौकर या नौकरानी की तलाश शुरू हो गई थी. कमलाजी की बेटी को तो अपनी पढ़ाई से ही फुरसत नहीं मिलती थी कि वह घर के किसी भी काम में मां का हाथ बंटा सकती. सो 2 ही दिनों में घर गंदा दिखने लग गया था. जब सुबहसुबह ड्राइंगरूम की गंदगी रमण बाबू से देखी नहीं गई तो उन्होंने खुद ही झाड़ ू उठा ली. यह देख कर कमलाजी बुरी तरह अपनी बेटी पर तिलमिला उठी थीं, ‘‘छी, शर्म नहीं आती तुम्हें? पापा झाड़ ू दे रहे हैं और तुम…’’

‘‘बोल तो ऐसे रही हैं मम्मी कि मैं इस घर की नौकरानी हूं. अगर यही सब कराना था तो मुझे पढ़ाने की क्या जरूरत थी. बचपन में ही झाड़ ू थमा देतीं हाथ में.’’

अभी बात और भी आगे बढ़ती कि तभी दरवाजे पर दस्तक हुई थी.

‘‘अरे, देखो तो कौन है,’’ रमण बाबू ने कहा.

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दरवाजा खोला तो सामने गोद में नवजात बच्चे को लिए रैना नजर आई थी. उसे देख कर मन और भी खट्टा हो गया था कमलाजी का. बोली थीं, ‘‘तू…तू… क्यों आई है यहां?’’

रैना गिड़गिड़ा उठी थी, ‘‘कल से एक दाना भी पेट में नहीं गया है मालकिन. छाती से दूध भी नहीं उतर रहा. मैं तो भूखी रह भी लूंगी पर इस के लिए थोड़ा दूध दे देतीं तो…’’

कमलाजी अभी उसे दुत्कारने की सोच ही रही थीं कि तभी घर के ढेर सारे काम आंखों में नाच उठे थे. फिर तो उन के मन की सारी खटास पल भर में ही धुल गई थी. बोल पड़ीं, ‘‘जो किया है तू ने उसे तो भुगतना ही पड़ेगा. खैर, देती हूं दूध, बच्चे को पिला दे. रात की रोटी पड़ी है, तू भी खा ले और हां, घर की थोड़ी साफसफाई कर देगी तो दिन का खाना भी खा लेना. बोल, कर देगी?’’

चेहरा खिल उठा था रैना का. थोड़ी ही देर में घर को झाड़पोंछ कर चमका दिया था उस ने. बरतन मांजधो कर किचन में सजा दिए थे. यानी चंद ही घंटों में कमलाजी का मन जीत लिया था उस ने.

शाम को रैना जब वहां से जाने लगी तो कमलाजी उसे टोक कर बोली थीं, ‘‘वैसे तो तुझ जैसी औरत को कोई भी अपने घर में घुसने नहीं देगा पर मैं तुझे एक मौका देना चाहती हूं. मन हो तो मेरे यहां काम शुरू कर दे. 150 रुपए माहवार दूंगी. खाना और तेरे बच्चे को दूध भी.’’

इतना सुनना था कि रैना सीधे कमलाजी के पैरों पर ही झुक गई थी.

इस प्रकार पूरी कालोनी में कुलक्षिणी के नाम से मशहूर रैना को कमलाजी के घर में काम मिल ही गया था. इस के लिए कमलाजी को कालोनी की औरतों के कटाक्ष भी झेलने पड़े थे, पर जरूरत के वक्त ‘गदहे को भी बाप’ कही जाने वाली कहावत का ज्ञान कमलाजी को था.

रैना के घर में काम पर आने से रमण बाबू की गृहस्थी की गाड़ी फिर से पहले की तरह चलने लग गई थी, लेकिन रैना का आना उन के हक में शुभ नहीं हुआ था. जब तक रमण बाबू घर में होते, अपनी पत्नी, यहां तक कि बेटी की नजरों में भी संदिग्ध बने रहते.

धीरेधीरे हालात ऐसे होते गए थे रमण बाबू के कि दिनभर में पता नहीं कितनी बार रैना को ले कर कभी पत्नी की तो कभी बेटी की झिड़की उन्हें खानी पड़ जाती थी.

आखिर एक दिन अपने बेडरूम के एकांत में कमलाजी से पूछ ही दिया उन्होंने, ‘‘मैं चरित्रहीन हूं क्या कि जब से यह रैना आई है, तुम और तुम्हारी बेटी मेरे पीछे हाथ धो कर पड़ी रहती हो?’’

‘‘रैना के बारे में तो आप जानते ही हैं. आप ही बताइए जिन घरों में रैना काम किया करती थी उन घरों के मर्द कहीं से बदचलन दिखते हैं? नहीं न. पर रैना का संबंध उन में से ही किसी न किसी से तो रहा ही होगा. मैं उस मर्द को भी दोष नहीं देती. असल में रैना है ही इतनी सुंदर कि उसे देख कर किसी भी मर्द का मन डोल जाए. इसीलिए आप को थोड़ा सचेत करती रहती हूं. खैर, आप को बुरा लगता है तो अब से ऐसा नहीं करूंगी. पर आप खुद ही उस से थोड़े दूर रहा कीजिए…’’

रैना को रमण बाबू के घर में काम करते हुए लगभग 1 वर्ष हो आया था. इस बीच रैना ने एक दिन की भी छुट्टी नहीं की थी. तभी एक दिन उसे मोहन से पता चला कि उस की मां गांव में बीमार है.

मां का हाल सुन रैना की आंखों में आंसू आ गए थे. मां के पास जाने के लिए उस का मन मचल उठा था लेकिन तभी उसे अपने बच्चे का खयाल आ गया था. बच्चे के बारे में क्या कहेगी वह. समाज के लोग तो पूछपूछ कर परेशान कर देंगे. फिर मन में आया कि जब तक मां के पास रहेगी, घर से निकलेगी ही नहीं. रही बात मां की, तो उसे तो वह समझा ही लेगी. वैसे भी कौन सा उसे जिंदगी बिताने जाना है गांव…

सारा कुछ ऊंचनीच सोचने के बाद कमलाजी से सप्ताह भर की छुट्टी की बात की थी उस ने.

‘‘क्या, 1 सप्ताह…’’ अभी आगे कुछ कमलाजी बोलतीं कि बेटी ने अपनी मां को टोक दिया था, ‘‘मम्मी, जरा इधर तो आइए,’’ फिर पता नहीं उन के कान में क्या समझाया था उस ने कि उस के पास से लौट कर सहर्ष रैना को गांव जाने की इजाजत दे दी थी उन्होंने.

रैना के जाने के बाद कमलाजी अपने पति से बोली थीं, ‘‘रैना 1 सप्ताह के लिए अपने गांव जा रही है. अगर आप कहें तो हम लोग भी इस बीच पटना घूम आएं. काफी दिन हो गए मांबाबूजी को देखे.’’

‘‘देखो, मैं तो नहीं जा सकूंगा. यहां मुझे कुछ जरूरी काम है. चाहो तो तुम बच्चों के साथ हो आओ,’’ रमण बाबू बोले थे.

फिर तो रात की ट्रेन से ही कमलाजी, दोनों बच्चों के साथ पटना के लिए प्रस्थान कर गई थीं.

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कमलाजी को गए अभी दूसरा ही दिन था कि अचानक ही रात में रमण बाबू को बुखार, खांसी और सिरदर्द ने आ दबोचा. सारी रात बुखार में वह तपते रहे थे. सुबह भी बुखार ज्यों का त्यों बना रहा था. चाय की तलब जोरों की लग रही थी पर उठ कर चाय बना पाने का साहस उन में नहीं था. वह हिम्मत जुटा कर बिस्तर से उठने को हुए ही थे कि तभी दरवाजे पर दस्तक हुई.

उन्होंने उठ कर दरवाजा खोला तो सामने रैना खड़ी थी. उसे देख कर वह चौंक पड़े थे. अभी वह कुछ पूछते कि रैना ही बोल पड़ी, ‘‘बाबूजी, जब मैं गांव पहुंची तो मां एकदम ठीक हो गई थीं. फिर वहां रुक कर क्या करती. यहां मालकिन को दिक्कत होती या नहीं?’’

‘‘पर यहां तो कोई है नहीं. सभी पटना…’’ एकबारगी जोरों की खांसी उठी और वह खांसतेखांसते सोफे पर बैठ गए.

उन्हें उस हाल में देख कर रैना पूछ बैठी, ‘‘तबीयत तो ठीक है, मालिक?’’

खांसी पर काबू पाने की कोशिश करते हुए वह बोले थे, ‘‘देख न, कल रात से ही बुखार है. खांसी और सिरदर्द भी है.’’

इतना सुनना था कि रैना ने आगे बढ़ कर उन के माथे पर अपनी हथेली टिका दी. फिर चौंकती हुई बोल पड़ी, ‘‘बुखार तो काफी है, मालिक. कुछ दवा वगैरह ली आप ने?’’

जवाब में सिर्फ इतना बोल पाए रमण बाबू, ‘‘एक कप चाय बना देगी?’’

फिर तो चाय क्या, पूरी उन की सेवा में जुट गई थी रैना.

रमण बाबू ने फोन कर के डाक्टर को बुलवा लिया था. डाक्टर ने जोजो दवाइयां लिखीं, रैना खुद भाग कर ले आई. डाक्टर की हिदायत के अनुसार रमण बाबू के माथे पर वह अपने हाथों से ठंडे पानी की पट्टी भी रखती रही. खुद का खानापीना तो भूल ही गई, अपने बच्चे को भी दूध तभी पिलाती जब वह भूख से रोने लगता.

इस प्रकार 2 ही दिनों में उस की देखभाल से रमण बाबू काफी हद तक स्वस्थ हो चले थे. इस बीच रैना ने उन्हें कुछ अलग ढंग से भी प्रभावित करना शुरू कर दिया था. एक तो घर का एकांत, फिर रैना जैसी खूबसूरत और ‘चरित्रहीन’ स्त्री की निकटता, उस को प्राप्त करने के लिए रमण बाबू का भी मन डोल उठा था.

रात को घर का सारा काम निबटाने के बाद रैना रमण बाबू के पास जा कर बोली, ‘‘अब मैं जाती हूं, मालिक. मालकिन तो बुधवार की रात को आएंगी, मैं बृहस्पतिवार की सुबह आ जाऊंगी. आप की तबीयत भी अब ठीक ही है.’’

जवाब में रमण बाबू बोल पड़े थे, ‘‘अरे कहां, आज तो तबीयत पहले से भी ज्यादा खराब है.’’

‘‘जी?’’ चौंक कर रैना ने अपनी हथेली उन के माथे पर टिका दी थी. फिर बोली थी, ‘‘न, कहां है बुखार.’’

अभी वह उन के माथे से अपनी हथेली हटाती कि एक झपट्टे के साथ उस की कलाई पकड़ कर रमण बाबू बोल पड़े थे, ‘‘तू भी कमाल की है. अंदर का बुखार कहीं ऊपर से पता चलता है?’’

रैना समझ गई थी कि अब उस के मालिक पर कौन सा बुखार सवार है. चेहरे पर उन के प्रति घिन सी उभर आई थी. एक झटके से अपना हाथ उन की पकड़ से मुक्त कराती हुईरैना बोल पड़ी थी, ‘‘छि मालिक, आप भी? आप मर्दों के लिए तो औरत भले अपनी जान ही क्यों न दे दे, पर आप के लिए वह मांस के टुकडे़ से अधिक कुछ भी नहीं,’’ इस के साथ ही अपने बच्चे को उठा कर वह तेजी से बाहर निकल गई थी.

बृहस्पतिवार की सुबह रैना जल्दी- जल्दी तैयार हो कर रमण बाबू के यहां पहुंच गई. कमलाजी की नजर उस पर पड़ी तो दांत पीसती हुई बोल पड़ी थीं, ‘‘आ गई महारानी? अरे, तुझ जैसी औरत पर भरोसा कर के मैं ने बहुत बड़ी भूल की.’’

रैना समझ तो गई थी कि मालकिन क्यों उस पर गुस्सा हो रही हैं, फिर भी पूछ बैठी थी, ‘‘मुझ से कोई भूल हो गई, मालकिन?’’

‘‘अरे, बेशरम, भूल पूछती है? अब बरबाद करने के लिए तुझे मेरा ही घर मिला था? हुं, मां बीमार है, छुट्टी चाहिए…’’

‘‘मां सचमुच बीमार थीं मालकिन पर जब मैं वहां पहुंची तो वह ठीक हो चुकी थीं. वहां रुकने से कोई फायदा तो था नहीं. मन में यह भी था कि यहां आप को दिक्कत हो रही होगी, इसीलिए चली आई. यहां आ कर देखा तो मालिक बहुत बीमार थे. आप लोग भी नहीं थे यहां…’’

‘‘बस, मौका मिल गया तुझे मर्द पटाने का.’’

‘‘यह क्या बोल रही हैं मालकिन. मैं तो लौट ही जाती, पर मालिक को उस हालत में छोड़ना ठीक नहीं लगा. मालिक को कुछ हो जाता तो?’’

‘‘चुप…चुप बेशरम. बोल तो ऐसे रही है जैसे वह मालिक न हुए कुछ और हो गए तेरे. अरे, बदजात, यह भी नहीं सोचा तू ने कि किस घर में सेंध मार रही है? पर तू भला क्यों सोचेगी? अगर यही सोचा होता तो शहर क्यों भटकना पड़ता तुझे? अरे, पति मेरे हैं, जो होता मैं देखती आ कर, पर…’’

‘‘बस, बस मालकिन, बस,’’ आखिर रैना के धैर्य का बांध टूट ही गया, ‘‘अगर मालिक को कुछ हो गया होता तो क्या कर लेतीं आप आ कर? अरे, पति का दर्द क्या होता है, यह आप क्या समझेंगी. आप के माथे पर तो सिंदूर चमक रहा है न. मुझ से पूछिए कि मर्द के बिना औरत की जिंदगी क्या होती है. आप ने मुझे कैसीकैसी गालियां नहीं दीं. इसीलिए न कि आज मेरे पति का हाथ मेरे सिर पर नहीं है. आज वह जिंदा होता, तब अगर छिप कर मैं किसी गैर से भी यह बच्चा पैदा कर लेती तो कोई मुझे कुछ नहीं कहता. यह जिसे पूरी कालोनी वाले मेरा पाप समझते हैं, इस में भी मेरी कोई गलती नहीं है. अरे, हम औरतें तो होती ही कमजोर हैं. बताइए, आप ही बताइए मालकिन, कोई गैर मर्द यदि किसी औरत की इज्जत जबरन लूट ले तो कुलटा वह मर्द हुआ या औरत हुई? पर नहीं, हमारे समाज में गलत सिर्फ औरत होती है.

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‘‘खैर, मर्द लोग औरत को जो समझते हैं, सो तो समझते ही हैं, पर दुख तो इस बात का है कि औरतें भी औरत का मर्म नहीं समझतीं. अच्छा मालकिन, गलती माफ कीजिएगा मेरी. मैं समझ गई कि मेरा दानापानी यहां से भी उठ गया. पर मालकिन, मैं ने तो अपना धर्म निभाया है, अब ऊपर वाला जो सजा दे,’’ बोलते- बोलते रैना फफक पड़ी थी.

कमलाजी मौन, रैना की एकएक बात सुनती रही थीं. उन्हें भी लगने लगा था कि रैना कुछ गलत नहीं बोल रही. तभी रैना फिर बोली, ‘‘अच्छा तो मालकिन, मैं जाती हूं. कहासुना माफ कीजिएगा.’’

अभी जाने के लिए रैना पलटने को ही थी कि कमलाजी बोल पड़ीं, ‘‘हेठी तो देखो जरा. थोड़ा रहनसहन और चाल- चलन के लिए टोक क्या दिया, लगी बोरियाबिस्तर समेटने. मैं ने तुझ से जाने के लिए तो नहीं कहा है.’’

रैना की आंखें कमलाजी पर टिक गई थीं. कमलाजी फिर से बोल पड़ीं, ‘‘देख, मैं भी औरत हूं. औरत के मर्म को समझती हूं. मैं ने तो सिर्फयही कहा है न कि अकेले मर्द के घर में तुझे नहीं जाना चाहिए था. खैर छोड़, अच्छा यह बता, क्या सचमुच किसी ने तेरे साथ जबरदस्ती की थी? अगर की थी तो तू उस का नाम क्यों नहीं बता देती?’’

रैना का चेहरा अजीब कातर सा हो आया. वह बोली, ‘‘उस का नाम बता दूं तो मेरे माथे पर लगा दाग मिट जाएगा? अरे, मैं तो थानापुलिस भी कर देती मालकिन, पर अपनी गांव की तारा को याद कर के चुप हो गई. मुखिया के बेटे ने तारा का वही हाल किया था जो मेरे साथ हुआ. उस ने तो थानापुलिस में भी रपट लिखवाई थी, पर हुआ क्या? रात भर तारा को ही थाने में बंद रहना पड़ा और सारी रात…

‘‘मुखिया का बेटा तो आज भी छाती तान कर घूमता फिर रहा है और बेचारी तारा को कुएं में डूब कर अपनी जान गंवानी पड़ी…मालकिन लोग तो मुझ पर ही लांछन लगाते कि सीधेसादे मर्द को मैं ने ही फांस लिया. अच्छा मालकिन, बुरा तो लगेगा आप को, एक बात पूछूं?’’

‘‘पूछ.’’

‘‘अगर आप के पीछे मालिक ने ही मेरे साथ बदसलूकी की होती और मैं आप से बोल देती तो आप मुझे निकाल बाहर करतीं या मालिक को? मुझे ही न. हां, दोचार रोज मालिक से मुंह फुलाए जरूर रहतीं फिर आप दोनों एक हो जाते, और…’’ बोलतेबोलते फिर रैना फफक पड़ी थी.

कमलाजी ने गौर से रैना के चेहरे को देखा था. कुछ देर वैसे ही देखती रही थीं, फिर जैसे ध्यान टूटा था उन का. बोल पड़ी थीं, ‘‘अच्छा, अब रोनाधोना छोड़. देख तो कितना समय हो गया है. सारे काम ज्यों के त्यों पड़े हैं. चल, चल कर पहले नाश्ता कर ले, फिर…’’

मालकिन का इतना बोलना था कि एकबारगी फुर्ती सी जाग उठी थी रैना में. आंसू पोंछती वह तेजी से अंदर की ओर बढ़ गई थी.

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