रेटिंगः दो स्टार
निर्माताःराकेश झुनझुनवाला, आर बाल्की और गौरी शिंदे
निर्देशकः आर आल्की
कलाकारः दुलकर सलमान, श्रेया धनवंतरी, सनी देओल, पूजा भट्ट, सरन्या पोंवन्नन, राजीव रविंदनाथन, अभिजीत सिन्हा व अन्य.
अवधिः दो घंटे 15 मिनट
सिनेमा समाज का दर्पण होता है. यह बहुत पुरानी कहावत है. इसी के साथ सिनेमा मनोरंजन का साधन भी है. लेकिन भारतीय, खासकर बौलीवुड के फिल्मकार निजी खुन्नस निकालने व किसी खास अजेंडे के तहत फिल्में बनाने के लिए सत्य को भी तोड़ मरोड़कर ही नहीं पेश कर रहे हैं, बल्कि कई फिल्म स्वतः रचित झूठ को सच का लबादा पहनाकर अपनी फिल्मों में पेश करते हुए उम्मीद करने लगे हैं कि दर्शक उनके द्वारा उनकी फिल्म में पेश किए जाने वाले हर उल जलूल व असत्य को सत्य मान कर उनकी स्तरहीन फिल्मों पर अपनी गाढ़ी कमाई लुटाते रहें. ऐसे ही फिल्मकारों में से एक हैं- आर. बाल्की, जिनकी नई फिल्म ‘‘चुपः रिवेंज आफ आर्टिस्ट’’ 23 सितंबर को सिनेमा घरांे में पहुॅची है.
लगभग तीस वर्ष तक एडवरटाइजिंग से जुड़े रहने के बाद 2007 में जब आर बाल्की बतौर लेखक व निर्देशक पहली फीचर फिल्म ‘‘चीनी कम’’ लेकर आए थे, उस वक्त कई फिल्म क्रिटिक्स ने उनकी इस फिल्म को अति खराब फिल्म बतायी थी. यह बात आर बाल्की को पसंद नही आयी थी. उसी दिन उन्होने फिल्म क्रिटिक्स को संवेदनशीलता व संजीदगी का पाठ पढ़ाने के लिए फिल्म बनाने का निर्णय कर लिया था. यह अलग बात है कि ‘चीनी कम’ के बाद उन्होने ‘पा’ जैसी सफल फिल्म के अलावा ‘शमिताभ’ जैसी अति घटिया व ‘की एंड का’ जैसी अति साधारण फिल्में बनाते रहे. और अब ‘चुपः रिवेंज आफ आर्टिस्ट’ लेकर आए हैं. जिसमें उन्होने संवेदनशीलता की सारी हदें पार करने के साथ ही दर्शकों को असत्य परोसने की पूरी कोशिश की गयी है. इतना ही नही आर बाल्की ने अपनी पहली फिल्म की समीक्षा की ख्ुान्नस निकालते हुए फिल्म ‘चुपः द रिवेंज आफ आर्टिस्ट’ में चार फिल्म क्रिटिक्स की बहुत विभत्स तरह से हत्या करवायी है. अफसोस सेंसर बोर्ड ने ऐसे दृश्यों को पारित भी कर दिया.
आर बाल्की ने अपनी फिल्म ‘‘चुप. . ’’ में दिखाया है कि गुरूदत्त की अंतिम फिल्म ‘‘कागज के फूल ’’ थी. इस फिल्म की फिल्म क्रिटिक्स ने इतनी बुराई की थी कि इसी अवसाद में गुरूदत्त ने ‘कागज के फूल’ के बाद कोई फिल्म नहीं बनायी और इसी गम में उनका देहांत हो गया था. अब फिल्म ‘चुप’ में गुरूदत्त का शागिर्द फिल्मों को एक स्टार देने वाले फिल्म क्रिटिक्स की निर्मम हत्या करने पर निकला है. मुझे नही पता कि हमारे साथ ही फिल्म ‘‘चुपः रिवेंज आफ आर्टिस्ट’ देख रही अदाकारा वहीदा रहमान पर यह सब देखकर क्या बीत रही होगी, क्योंकि गुरूदत के संंबंंध में वहीदा रहमान से बेहतर कौन जानता है?
हर कोई जानता है कि स्व. गुरूदत्त अपने जमाने के मशहूर कलाकार, निर्माता, लेखक व निर्देशक थे. गुरूदत्त की फिल्म ‘कागज के फूल ’ 1959 में प्रदर्शित हुई थी. फिर 1960 में प्रदर्शित फिल्म ‘चैंदहवीं का चांद’ का निर्माण करने के साथ ही गुरूदत्त ने इसमें अभिनय भी किया था. फिल्म ‘कला बाजार’ में भी अभिनय किया था. 1962 में प्रदर्शित फिल्म ‘‘साहिब बीबी और गुलाम’ का भी निर्माण करने के साथ उसमें अभिनय किया था. इसके अलावा 1963 में प्रदर्शित ‘भरोसा’ व ‘बहूरानी’, 1964 में प्रदर्शित ‘सुहागन’, ‘सांझ और सवेरा’ में गुरूदत्त ने अभिनय किया था. जब गुरूदत्त की मृत्यू हुई तब वह अभिनेत्री साधना के साथ फिल्म ‘पिकनिक’ में अभिनय कर रहे थे, जो कि बाद में पूरी नही हो पायी. पर इस बात को आर बाल्की अपने स्वार्थ व निजी बदले की कहानी लिखते समय नजरंदाज कर गए. .
इतना ही नही आर बाल्की को अपनी बात को रखने के लिए 110 वर्ष के भारतीय सिनेमा में महज एक फिल्म ‘कागज के फूल’ ही याद रही. वह फिल्म ‘शोले’’ या ‘लम्हे’ को क्यों भूल गए?
कहानीः
फिल्म ‘चुप’ शुरू होती है फिल्म क्रिटिक्स नितिन श्रीवास्तव की विभत्स तरीके से निर्मम हत्या से. पता चलता है कि उन्होने एक फिल्म की समीक्षा लिखते हुए एक स्टार दिया था. इसके बाद इसी तरह से तीन क्रिटिक्स की हत्याएं होती हैं. पुलिस हत्यारे को पकड़ने के लिए सक्रिय हो जाती है. उधर ‘फिल्म क्रिटिक गिल्ड’ निर्णय लेता है कि वह किसी भी फिल्म की समीक्षा नही लिखेगें. और हत्याओं का सिलसिला रूक जाता है. एक तरफ पुलिस इंस्पेक्टर अरविंद( सनी देओल) अपनी टीम के साथ हत्यारे की तलाश की में लगे हुए हैं. उधर एक फिल्म पत्रकार नीला(श्रेया धनवंतरी ) और फूल की दुकान चलाने वाले डैनी(दुलकर सलमान ) के बीच प्रेम कहानी चल रही है. कोई सुराग न मिलता देख पुलिस इंस्पेक्टर अरविंद फिल्म वालों की चहेती सायके्रटिक जिनोबिया (पूजा भट्ट ) की मदद लेते हैं. और फिर एक नाटक रचकर उसमंे नीला का साथ लेती है. अंततः हत्यारा पकड़ा जाता है. पता चलता है कि हत्यारा गुरूदत्त को पूजता है. वह फिल्म ‘कागज के फूल’ का दीवाना है. उसके घर में एक फिल्म की रील पड़ी है. उसे गुस्सा इस बात का है कि उसके पिता की फिल्म की क्रिटिक्स ने आलोचना की थी और फिर उसके पिता ने फिल्म नहीं बनायी.
लेखन व निर्देशनः
इस फिल्म की पटकथा आर बाल्की ने फिल्म क्रिटिक राजा सेन और रिषि विरमानी के साथ मिलकर लिखा है. लेकिन आर बाल्की मात खा गए हैं. जो फिल्मसर्जक या फिल्म क्रिटिक्स नही है, वह इस फिल्म को समझ पाएंगे, इसमें शक है? फिल्म का क्लायमेक्स बहुत गड़बड़ है. क्लायमेक्स में हत्यारा जेल में बंद है. उसके कार्यों से अहसास होता है कि कुछ विक्षिप्त है. एक दिन अखबार में छपी खबर ‘‘फिल्म क्रिटिक्स रोहित वर्मा की कोविड से मौत’ पढ़कर वह हंसता है और कहता है कि यह सब इसी तरह मरेंगें? भले ही आर बाल्की ने उसे विक्षिप्त जतला दिया, पर इस दृश्य से फिल्मकार स्वयं कितना संवेदनशील व संजीदा है, इसका अहसास भी हो जाता है.
फिल्म की गति काफी धीमी है. इंटरवल से पहले फिल्म सशक्त है, मगर इंटरवल के बाद फिल्म पर फिल्मकार की पकड़ ढीली हो जाती है. वैसे गुरूदत्त को फिल्म के माध्यम से अच्छा ट्ब्यिूट दिया गया है. गुरूदत्त की फिल्म के गाने व कुछ दृश्य दिखाए गए हैं. तो वहीं लीना व डैनी के प्यार में भी फिल्म ‘कागज के फूल’ के दृश्य नजर आते हैं. मगर श्रेया धनवंतरी व दुलकर सलमान को अर्धनग्न अवस्था में दिखाए बिना भी काम चल सकता था. इतना ही नही फिल्मकार ने फिल्म के अंत में क्रेडिट देते समय मशहूर गीतकार ‘साहिर लुधियानवी’ को का नाम ‘साहिर लुधियाना’ लिखकर अपने सिनेमा के ज्ञान का बखान भी कर दिया.
गुरुदत्त की ‘कागज के फूल’ के जाने के तूने कही, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है जैसे गानों को निर्देशक ने कहानी में काफी रूमानी और मार्मिक अंदाज में फिल्माया है. अमित त्रिवेदी का संगीत कानों को सुकून देता है.
अभिनयः
फूल की दुकान चलाने वाले डैनी के किरदार में दुलकर सलमान का अभिनय शानदार हैं. उन्होने इस किरदार की जटिलता को भी बाखूबी अपेन अभिनय से उकेरा है. नीला के किरदार में श्रेया धनवंतरी खूबसूरत लगने के साथ ही चपल व चंचल नजर आयी हैं. पूजा भट्ट का अभिनय कमाल का है. इंटरवल से पहले पुलिस इंस्पेक्टर अरविंद के किरदार में सनी देओल का अभिनय साधारण है, पर इंटरवल के बाद उनकी परफॅार्मेंस जोरदार है.