श्रीमतीजी ताने देदे कर थक चुकी थीं और हम गैस एजेंसी के चक्कर लगालगा कर. हम जब भी जाते एक ही जवाब सुनने को मिलता कि गैस नहीं है… नहीं है… नहीं है… श्रीमतीजी बेचारी हीटर पर खाना बना रही थीं. बिजली का बिल 4 गुना से भी अधिक आ रहा था. बिजली विभाग वालों को भी शक हो रहा था कि कहीं घरेलू बिजली कनैक्शन की आड़ में कोई उद्योग तो नहीं चला रहा है. लेकिन हम क्या कर सकते थे. हम देख रहे थे कि शहर के होटलों में घरेलू गैस का उपयोग हो रहा है.
जब हम ने अपनी व्यथा अपने दोस्त से कही तो उस ने कहा, ‘‘एजेंसी का मैनेजर
मेरा दोस्त है. उस के घर चल कर बात कर लेते हैं. बातचीत से सभी समस्याएं सुलझ
जाती हैं वरना तुम्हारी यह रिपोर्ट प्रैस, पुलिस, उपभोक्ता फोरम के चक्कर में चकरघिन्नी बन कर रह जाएगी… पानी में रह कर मगरमच्छ से बैर ठीक नहीं. फिर तू आम आदमी है. अपनी औकात में रह… लड़नेझगड़ने से कुछ नहीं होगा.
‘‘कितने लोगों ने गैस एजेंसी पर पत्थरबाजी की… पुलिस के छापे पड़े… क्या हुआ? कुछ नहीं. उलटे शिकायत करने वाले नजरों में चढ़ गए… उन की तो हमेशा की परेशानी हो गई. नियम बताने को धमकी समझते हैं ये लोग. फिर एकाध बार की
बात नहीं है. पूरा जीवन जरूरत पड़ती है
गैस की. अकेला होता तो होटल में खा लेता. घरपरिवार बसा कर ये सब करना ठीक नहीं होगा.’’
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हम समझ गए. अत: दोस्त के साथ गैस एजेंसी के मैनेजर के घरगए. उस के बच्चों के लिए मिठाई भी ले गए.
मैनेजर ने बड़े अदब से बैठाया और फिर पूछा, ‘‘कहिए, क्या काम है?’’
हम ने अपनी व्यथा बताई, ‘‘सर, गैस
बुक कराए कई दिन हो गए हैं, लेकिन गैस आज तक नहीं मिली… परची कटती है
457 की, लेकिन देने पड़ते हैं 460. हमें कहते हैं कि गैस अभी नहीं आई है, पर आप की एजेंसी की गैस बाजार में उपयोग हो रही है… जबकि नियम के अनुसार…’’
मैनेजर ने हमारी बात बीच ही में काटते हुए कहा, ‘‘देखिए, नियमकानून की ही बात करनी थी तो घर क्यों आए? एजेंसी में ही मिल लेते… रही रुपयों की बात तो खुले
457 दिया कीजिए… हम लोगों ने कोई रेजगारी की फैक्टरी तो खोल नहीं रखी है, जो हर आदमी 460 दे और हम 3 रुपए की रेजगारी देते रहें.’’
हमारे दोस्त ने बिगड़ती बात को संभालते हुए कहा, ‘‘नहीं यार, यह तो पुरानी बात हो गई… यह तो इस ने यों ही कह दिया… वर्तमान समस्या यह है कि इस के घर में 2 माह से गैस नहीं है… कुछ कर भाई… बड़ी दिक्कत में है बेचारा.’’
‘‘परची कब कटवाई थी?’’ मैनेजर ने पूछा.
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‘‘2 माह पहले,’’ हम ने कहा.
‘‘वह तो अब लैप्स हो गई है.’’
‘‘सर, 21 दिन पहले फिर से कटवाई थी,’’ हम ने लपलपाती नजरों से मैनेजर की तरफ देखा.
‘‘आप के घर में कोई और साधन नहीं है. मसलन लकड़ी, कोयला, मिट्टी का तेल?’’
‘‘नहीं सर,’’ हम निराशा में गोते लगाने लगे.
‘‘तो एक और कनैक्शन क्यों नहीं ले लेते?’’
‘‘सर, एक और है पत्नी के नाम. लेकिन इस बार मेहमान आ गए… फिर ठंड होने के कारण पानी गरम करने के कारण भी… लेकिन सर हम नियमानुसार ही 2 कनैक्शन के हिसाब से ही…’’
मैनेजर फिर बात बीच ही में काट कर बोला, ‘‘यार, तुम नियमकानून बहुत बताते हो… एक बात बताइए, आप प्रेम में विश्वास रखते हैं या नियमों में?’’
हम ने झेंपते हुए कहा, ‘‘माफ करना सर, हम तो प्रेम में ही विश्वास रखते हैं.’’
‘‘तो फिर आप अपनी पत्नी से भी प्रेम करते होंगे?’’
‘‘जी,’’ कह हम ने सोचा कि यह कैसा प्रश्न है?
‘‘यदि पत्नी से प्रेम करते हैं तो उस से फिर किस बात का बदला ले रहे हैं? दहेज में कुछ कमी रह गई थी क्या?’’
‘‘नहीं तो सर… यह क्या कह रहे हैं आप?’’ हम ने मरियल आवाज में कहा.
मैनेजर ने गंभीरता से कहा, ‘‘अजीब बातहै, आप को दहेज भी मिला, पत्नी से
प्रेम भी करते हैं और घर में 2 माह से गैस नहीं है.’’
‘‘जी हम तो जाते हैं, लेकिन…’’
‘‘आप सैर करने जाते हैं या गैस लेने?’’ मैनेजर ने व्यंग्य से पूछा, ‘‘भाई, घर में गैस
2 माह से नहीं है. आप पहले नहीं आ सकते थे? आप एजेंसी के चक्कर तो ऐसे लगा रहे हैं जैसे प्रेमी अपनी प्रेमिका के चक्कर लगाता है… आम आदमी हो कर नियमों की बात तो ऐसे करते हो मानो कोई चूहा बिल्ली को खाने की सोच रहा हो… किस युग में रहते हैं आप?’’
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हम खामोश सुनते रहे. क्या करते?
मैनेजर बोलता रहा, ‘‘यदि हम आप की तरह नियमकानून पर चलने लगे तो अब तक एजेंसी किसी और के पास चली गई होती. हम बेकार हो जाते… हमारी तकलीफ भी समझिए. हमें बड़े अधिकारियों के यहां उन के एक फोन पर 1 माह में कई सिलैंडर पहुंचाने पड़ते हैं. शहर के रसूखदारों, गुंडों से ले कर धार्मिक आयोजनों में जो लंगर लगते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, सब का ध्यान रखना पड़ता है. हम कमाएं कहां से? बाजारों, होटलों से ही हमारी कमाई होती है… आप तो हमारे ही पेट पर लात मारने लगे.’’
‘‘सर गलती हो गई, आप नाराज मत होइए… बस हमारी समस्या दूर कर दीजिए…’’
‘‘चलो, तुम घर आए हो, मेरे दोस्त के दोस्त हो, तुम्हें अपनी पत्नी से भी प्रेम है
और फिर यह एक दिन की बात तो है नहीं
कि लड़ कर, कानून बता कर गैस ले गए. जीवन भर गैस चाहिए… तुम क्व100 अतिरिक्त दे दिया करो, गैस तुम्हारे घर पहुंचाने की जिम्मेदारी हमारी… हमारे होते हुए आप चिंता क्यों करते हैं?’’
हमारे पास कोई चारा नहीं था. इस हाथ दे उस हाथ ले. न एजेंसी के चक्कर लगाने की जरूरत न गोदाम जा कर लाइन में खड़े होने की. और तो और न ही परची कटवाने की जरूरत. बस फोन किया, पैसे दिए और सिलैंडर ले लिए.