यह तो होना ही था

केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी जो राहुल गांधी जैसी हस्ती से टक्कर ले सकती हैं, अपनी खुद की बेटी को स्कूल में बुली करने वाले उस के सहपाठियों के आगे लाचार हैं.

स्मृति ईरानी ने बेटी के साथ एक फोटो इंस्टाग्राम पर डाली तो उस के साथी बेटी के लुक्स पर ट्रोल करने लगे और उस का मजाक उड़ाने लगे. भाजपा की पूरी मशीनरी और सरकार की फौज इन ट्रोल्स और मौक्स के खिलाफ कुछ नहीं कर पाई.

दुनियाभर में इंस्टाग्राम, फेसबुक, ट्विटर पर कमैंटों में ट्रोल कर के परेशान करना एक रिवाज सा बन गया है. जो काम पहले रेस्तराओं, पबों, चौराहों और चाय की दुकानों, औफिसों में लंच पर, किट्टी पार्टी में होता था, अब बाकायदा लिखित में सोशल मीडिया की सुविधा के कारण घरघर पहुंचने लगा है. जो भी स्मृति ईरानी को फौलो कर रहा है वह उन कमैंटों को पढ़ सकता है चाहे उसे स्मृति ईरानी और उन की बेटी जानती हों या न जानती हों.

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पहले इस तरह की बातें 8-10 लोगों तक रहती थीं, अब सोशल मीडिया के कारण सैकड़ों तक पहुंचने लगी हैं. प्रिंट मीडिया इस तरह की घटनाओं पर केवल समीक्षात्मक रिपोर्टिंग करता है जबकि सोशल मीडिया पहले पैट्रोल सूंघता है और फिर उस पर आग लगाता है.

स्मृति ईरानी अब शिकायती लहजे में जवाब दे रही हैं पर भारत में बकबक करने की यह छूट उन की पार्टी ने ही अपने कार्यकर्ताओं को दे रखी है.

2014 से पहले कांग्रेस को बरगलाने के लिए सोशल मीडिया का हथियार अपनाया गया था, क्योंकि तब तक प्रिंट मीडिया दकियानूसी भारतीय जनता पार्टी का साथ देने को तैयार न था. सोशल मीडिया पर अति उत्साही, कट्टरपंथी, धर्मसमर्थकों ने धर्म की झूठी खूबियां प्रसारित करनी शुरू कर दी थीं और फिर देखतेदेखते यह प्लेटफौर्म कांग्रेस विरोधी बन गया. अब इस का साइड इफैक्ट उसी पार्टी के जुझारू नेताओं को ही सहना पड़ रहा है.

किसी भी नेता की बेटी या बेटे को अपना निजी जीवन अपने मन से जीने का हक है पर नेताओं के बेटेबेटियों पर यूरोप, अमेरिका में पेपराजी कहे जाने वाले टैबलौयड अखबारों की नजर रहती है. इन बच्चों के स्कूलों, रेस्तराओं, पिकनिक स्पौटों पर फोटो ले कर उन्हें मोटे पैसों में बेचा जाता है. सोशल मीडिया ने यह काम आसान कर दिया है. अब किसी की टांग खींचनी हो तो ट्विटर जैसे प्लेटफौर्म मौजूद हैं, जहां एक गंभीर विचार पर भी सस्ते, मांबहन की गालियों वाले कमैंट दे कर जवाब दिया जा सकता है.

प्रिंट मीडिया से दूरी बनाने का यह दुष्परिणाम होना ही था. स्मृति ईरानी क्या इस से सबक लेंगी कि इंटरनैट आम व्यक्ति को ज्ञान का खजाना नहीं दे रहा, उसे कीचड़ में धकेल रहा है? फेसबुक, व्हाट्सऐप, इंस्टाग्राम यों ही मुफ्त नहीं हैं. इन की महंगी तकनीक का कोई तो पैसा दे रहा है और यह यूजर्स ही दे रहे हैं, क्योंकि चाहे राजनीतिक उद्देश्य हो या व्यावसायिक, अब लोगों को बहकाना, गलत जानकारी देना, लूटना आसान होता जा रहा है.

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स्मृति ईरानी को अब पता चला है कि जो मशीनगनें उन्होंने राहुल गांधी के लिए बनवा कर बंटवाई थीं उन का मुंह उन की ओर भी मुड़ सकता है. सोशल मीडिया को बंद करना सरकारों का काम नहीं है. इस से बचना है तो लोगों को खुद फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर छोड़ना होगा. प्रिंट मीडिया आप को सही विचार देता भी है, आप के विचार लेता भी है. वहां जिम्मेदार संपादक होते हैं जो ऊंचनीच समझते हैं.

बकबक करने वालों को चायवालों की दुकानों पर ही रहने दें, उन्हें अपने ड्राइंगरूम या बैडरूम में सादर निमंत्रित न करें.

अब नहीं चलेगा कोई बहाना

इस बार के लोकसभा चुनावों में औरतों ने बढ़चढ़ कर भाग लिया  और उन की वोटिंग आदमियों सी रही. स्वाभाविक है कि अगर नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी इतने विशाल बहुमत से जीती है तो उस में आधा हाथ तो औरतों का रहा. उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार अब तो औरतों के बारे में कुछ अलग से सोचने की कोशिश करेगी.

जो समस्याएं आदमियों की हैं वही औरतों की भी हैं पर औरतों की कुछ और समस्याएं भी हैं. इन में सब से बड़ी समस्या सुरक्षा की है. जैसे-जैसे औरतें घरों से बाहर निकल रही हैं अपराधियों की नजरों में आ रही हैं. घर से बाहर निकलने पर लड़कियों को डर लगा रहता है कि कहीं उन्हें कोई छेड़ न दे, उठा न ले, बलात्कार न कर डाले, तेजाब न डाल दे.

घर में भी औरतें सुरक्षित नहीं है. घरों में कभी पति से पिटती हैं तो कभी बहुओं से. दहेज के मामले कम हो गए हैं पर खत्म नहीं हुए हैं. इतना फर्क और हुआ है कि अब अत्याचार छिपे तौर पर किया जाता है, मानसिक ज्यादा होता है, यदि शारीरिक नहीं तो.

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लड़कियां पढ़-लिख कर लड़कों से ज्यादा नंबर ले कर आ रही हैं पर उन्हें नौकरियां नहीं मिल रहीं. लड़कों को कोई कुछ नहीं कहता पर यदि लड़की को नौकरी

न मिले तो उसे जबरन शादी के बंधन में बांध दिया जाता है. यह बंधन चाहे कुछ दिन खुशी दे पर होता तो अंत में उस में बोझ ही बोझ है. सारा पढ़ालिखा समाप्त हो जाता है.

सरकार को बड़े पैमाने पर लड़कियों के लिए नौकरियों का प्रबंध करना चाहिए चाहे नौकरी सरकारी हो, प्राईवेट हो या इनफौर्मल सैक्टर की. अब भाजपा सरकार के पास बहाना नहीं है कि उस के हाथ बंधे हैं. जनता ने भरभर कर वोट दिए हैं. जनता को वैसी ही अपेक्षा भी है.

इस बार चूंकि कांग्रेस, समाजवादी, बहुजन समाज पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, जनता दल आदि का सफाया हो गया है, सरकार यह नहीं कह सकती कि उसे काम नहीं करने दिया जा रहा. सरकार अब हर तरह के फैसले ले सकती है.

सुरक्षा के साथ-साथ सरकार को साफसफाई भी करनी होगी. देश के शहर 5 सालों में न के बराबर साफ हुए हैं. शहरों में बेतरतीब मकानों व गंदे माहौल में करोड़ों औरतों को बच्चे पालने पड़ रहे हैं. खेलने की जगह नहीं बची. औरतों को सांस लेने की जगह नहीं मिलती. शहर में बागबगीचे होते भी हैं तो बहुत दूर जहां तक जाना ही आसान नहीं होता.

यह डर भी लग रहा है कि सरकार कहीं टैक्स न बढ़ा दे. अगर ऐसा हुआ तो उस की मार औरतों पर ही पड़ेगी. औरतों ने नोटबंदी का जहर पी कर भी नरेंद्र मोदी को वोट दिया है. अब महंगाई कर के उन का चैन न छिन जाए.

औरतों के लिए बने कानूनों में भी सरलता आनी चाहिए. तलाक लेना कोई अच्छी बात नहीं पर जब लेना ही पड़े तो औरतें सालों अदालतों के गलियारों में भटकती रहें, ऐसा न हो. कहने को औरतों के लिए कानून बराबर है पर आज भी रीतिरिवाजों, परंपराओं के नाम पर औरतों को न जाने क्याक्या सहना पड़ता है. इस सरकार से उम्मीद है कि वह औरतों को इस से निजात दिलाएगी.

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वैसे तो औरतों को धार्मिक क्रियाकलापों में ठेल कर उन की काफी शक्ति छीन ली जाती है पर इस बारे में यह सरकार शायद ही कुछ करे, क्योंकि यह ऐसा क्षेत्र है जिस पर सरकार की नीति साफ है, जो 2000 साल पहले होता था वही अच्छा है. फिर भी जो इस बंधन को सहर्ष न अपनाना चाहे कम से कम वह तो अपनी आजादी न खोए.

सरकार को इस बार जो समर्थन मिला है उस में अब केवल वादों की जरूरत नहीं है. 350 से ज्यादा सीटें जीतने का अर्थ है कि देश 350 किलोमीटर की गति से बढ़े और औरतें सब से आगे हों.

भीड़ को नहीं है किसी का डर

मामला परशुराम के पिता का पुत्रों को मां का वध करने का हो, अहिल्या का इंद्र के धोखे के कारण अपने पति को छलने का या शंबूक नाम के एक शूद्र द्वारा तपस्या करने पर राम के हाथों वध करने का, हमारे धर्म ग्रंथों में तुरंत न्याय को सही माना गया है और उस पर धार्मिक मुहर लगाई गई है. यह मुहर इतनी गहरी स्याही लिए है कि आज भी मौबलिंचिंग की शक्ल में दिखती है.

असम में तिनसुकिया जिले में भीड़ ने पीटपीट कर एक पति व उस की मां को मार डाला, क्योंकि शक था कि उस ने अपनी 2 साल की बीवी और 2 महीने की बेटी को मार डाला. मजे की बात तो यह है कि जब पड़ोसी और मृतक बीवी के घर वाले मांबेटे की छड़ों से पिटाई कर रहे थे, लोग वीडियो बना कर इस पुण्य काम में अपना साथ दे रहे थे.

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देशभर में इस तरह भीड़ द्वारा कानून हाथ में लेने और भीड़ में खड़े लोगों का वीडियो बनाना अब और ज्यादा बढ़ रहा है, क्योंकि शासन उस तुरंत न्याय पर नाकभौं नहीं चढ़ाता. गौरक्षकों की भीड़ों की तो सरकारी तंत्र खास मेहमानी करते हैं. उन्हें लोग समाज और धर्म का रक्षक मानते हैं.तुरंत न्याय कहनेसुनने में अच्छा लगता है पर यह असल में अहंकारी और ताकतवर लोगों का औरतों, कमजोरों और गरीबों पर अपना शासन चलाने का सब से अच्छा और आसान तरीका है.

यह पूरा संदेश देता है कि दबंगों की भीड़ देश के कानूनों और पुलिस से ऊपर है और खुद फैसले कर सकती है. यह घरघर में दहशत फैलाने का काम करता है और इसी दहशत के बल पर औरतों, गरीबों, पिछड़ों और दलितों पर सदियों राज किया गया है और आज फिर चालू हो गया है.जब नई पत्नी की मृत्यु पर शक की निगाह पति पर जाने का कानून बना हुआ है तो भीड़ का कोई काम नहीं था कि वह तिनसुकिया में जवान औरत की लाश एक टैंक से मिलने पर उस के पति व उस की मां को मारना शुरू कर दे.

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यह हक किसी को नहीं. पड़ोसी इस मांबेटे के साथ क्यों नहीं आए, यह सवाल है.लगता है हमारा समाज अब सहीगलत की सोच और समझ खो बैठा है. यहां किसी लड़केलड़की को साथ देख कर पीटने और लड़के के सामने ही लड़की का बलात्कार करने और उसी समय उस का वीडियो बनाने का हक मिल गया है.यहां अब कानून पुलिस और अदालतों के हाथों से फिसल कर समाज में अंगोछा डाले लोगों के हाथों में पहुंच गया है, जो अपनी मनमानी कर सकते हैं.

पिछले100-150 साल के समाज सुधार और कानून के सहारे समाज चलाने की सही समझ का अंतिम संस्कार जगहजगह भीड़भड़क्के में किया जाने लगा है. यह उलटा पड़ेगा पर किसे चिंता है आज. आज तो पुण्य कमा लो.

Edited by Rosy

जाति की राजनीति में किस को फायदा

इस देश में शादीब्याह में जिस तरह जाति का बोलबाला है वैसा ही राजनीति में भी है. उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ मिल यादवोंपिछड़ों को दलितों के साथ जोड़ने की कोशिश की थी पर चल नहीं पाई. दूल्हे को शायद दुलहन पसंद नहीं आई और वह भाजपा के घर जा कर बैठ गया. अब दोनों समधी तूतू मैंमैं कर रहे हैं कि तुम ने अपनी संतान को काबू में नहीं रखा.

इस की एक बड़ी वजह यह रही कि दोनों समधियों ने शादी तय कर के मेहनत नहीं की कि दूल्हेदुलहन को समझाना और पटाना भी जरूरी है. दूसरी तरफ गली के दूसरी ओर रह रही भाजपा ने अपनी संतान को दूल्हे के घर के आगे जमा दिया और आतेजाते उस के आगे फूल बरसाने का इंतजाम कर दिया, रोज प्रेम पत्र लिखे जाने लगे, बड़ेबड़े वायदे करे जाने लगे कि चांदतारे तोड़ कर कदमों में बिछा दिए जाएंगे. वे दोनों समधी अपने घर को तो लीपनेपोतने में लगे थे और होने वाले दूल्हेदुलहन पर उन का खयाल ही न था कि ये तो हमारे बच्चे हैं, कहना क्यों नहीं मानेंगे?

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अब दूल्हा भाग गया तो दोष एकदूसरे पर मढ़ा जा रहा है. यह सांप के गुजर जाने पर लकीर पीटना है. मायावती बेवकूफी के बाद महाबेवकूफी कर रही हैं. यह हो सकता है कि पिछड़ों ने दलितों को वोट देने की जगह भाजपा को वोट दे दिया जो पिछड़ों को दलितों पर हावी बने रहने का संदेश दे रही थी.

इस देश की राजनीति में जाति अहम है और रहेगी. यह कहना कि अचानक देशभक्ति का उबाल उबलने लगा, गलत है. जाति के कारण हमारे घरों, पड़ोसियों, दफ्तरों, स्कूलों में हर समय लकीरें खिंचती रहती हैं. देश का जर्राजर्रा अलगअलग है. ब्राह्मण व बनियों में भी ऊंचनीच है. कुंडलियों को देख कर जो शादियां होती हैं उन में न जाने कौन सी जाति और गोत्र टपकने लगते हैं.

जाति का कहर इतना है कि पड़ोसिनें एकदूसरे से मेलजोल करने से पहले 10 बार सोचती हैं. प्रेम करने से पहले अगर साथी का इतिहास न खंगाला गया हो तो आधे प्रेम प्रसंग अपनेआप समाप्त हो जाते हैं. अगर जाति की दीवारें युवकयुवती लांघ लें तो घर वाले विरोध में खड़े हो जाते हैं. घरघर में फैला यह महारोग है जिस का महागठबंधन एक छोटा सा इलाज था पर यह नहीं चल पाया. इसका मतलब यह नहीं कि उसे छोड़ दिया जाए.

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देश को जाति की दलदल से निकालने के लिए जरूरी है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपना अहंकार छोड़ें और पिछड़े और दलित अपनी हीनभावना को. अखिलेश यादव और मायावती ने प्रयोग किया था जो अभी निशाने पर नहीं बैठा पर उन्होंने बहुत देर से और आधाअधूरा कदम उठाया. इस के विपरीत जाति को हवा देते हुए भाजपा पिछले 100 सालों से इसे हिंदू धर्म की मूल भावना मान कर अपना ही नहीं रही, हर वर्ग को सहर्ष अपनाने को तैयार भी कर पा रही है.

अखिलेश यादव और मायावती ने एक सही कदम उठाया था पर दोनों के सलाहकार और आसपास के नेता यह बदलाव लाने को तैयार नहीं हैं.

बस एक कदम और…

कांग्रेस का सत्ता में आने पर 33% सीटें औरतों को विधानसभाओं व लोकसभाओं में देने का वादा और उड़ीसा के नवीन पटनायक व बंगाल की ममता बनर्जी का 33% से ज्यादा उम्मीदवार औरतों को बनाना यह तय कर रहा है कि अब औरतों का राजनीति में घुसना तो तय सा है. औरतें पतियों, पिताओं या बेटों के सहारे राजनीति में पहुंचें या अपने खुद के दमखम पर, यह एक सुखद बदलाव होगा.

आधुनिक सोच और शिक्षा के 150 साल बाद भी औरतों की स्थिति आज भी वही की वही है. वे बेचारियां हैं और खातेपीते घरों में भी उन का काम घर मैनेज करना ही होता है. अपने मन को शांत करने के लिए वे किट्टी पार्टियों या प्रवचनों में जा सकती हैं वरना उन का दायरा बड़ा सीमित है. जो अपने दम पर कुछ करती भी हैं उन्हें लगता है कि उन को पार्टनर, परिवार, बच्चे सब का कुछ हिस्सा खोना पड़ता है. पूर्ण संतुष्टि नहीं मिलती, क्योंकि ओहदा ऊंचा हो या मामूली, वे रहती अपवाद ही हैं.

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राजनीति में बदलाव लाने की ताकत होती है. इस के जरीए संदेश जाता है कि सोचसमझ में औरतें किसी से कम नहीं हैं. औरतें जब फैसले लेती हैं तो जरूरी नहीं कि वे पहले के पुरुषों के बने दायरों में से सोचें. वे अपनी स्वतंत्र सोच, औरतों की छोटी समस्याओं, उन के संकोच, उन की उड़ान भरने की तमन्नाओं, उन के साथ हुए भेदभाव की पृष्ठभूमि में फैसले लेती हैं. वे अगर फैमिनिस्ट न भी हों तो भी पुरुषों से भयभीत रहने वाली नहीं होतीं. और यदि विधान मंडलों में वे बड़ी संख्या में मौजूद होंगी तो महल्ले में पानी के टैंकर पर होने वाली लड़ाई का सा दृश्य पैदा कर अपनी बात मनवा सकती हैं.

इंदिरा गांधी, ममता बनर्जी, जयललिता, मायावती, सोनिया गांधी ने अपने बलबूते राज जरूर किया पर उस जमीन से जो पुरुषों ने अपने हिसाब से अपने लिए बनाई थी. अब शायद मौका मिले जब औरतें अपने बल पर मजबूत हों और आरक्षण की मांग पुरुषों को करनी पड़ जाए.

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आज की तकनीक जैंडर बेस्ड नहीं. आज तो युद्ध भी जैंडर बेस्ड नहीं है. औरतों के लिए अगर जंजीरें हैं तो केवल उन के अपने दिमाग में या उस धर्म में, जिसे वे जबरन ढो रही हैं.

Edited by Rosy

मोदी की नैय्या

यह गनीमत ही कही जाएगी कि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आम चुनाव जीतने के लिए पाकिस्तान से व्यर्थ का युद्ध नहीं लड़ा.

सेना को एक निरर्थक युद्ध में झोंक देना बड़ी बात न होती. पर जैसा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा था कि युद्ध शुरू करना आसान है, युद्ध जाता कहां है, कहना कठिन है. वर्ष 1857 में मेरठ में स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई ब्रिटिशों की हिंदुओं की ऊंची जमात के सैनिकों ने छेड़ी लेकिन अंत हुआ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर एकछत्र ब्रिटिश राज में, जिस में विद्रोही राजा मारे गए और बाकी कठपुतली बन कर रह गए.

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आक्रमणकारी पर विजय प्राप्त  करना एक श्रेय की बात है, पर चुनाव जीतने के लिए आक्रमण करना एक महंगा सौदा है, खासतौर पर एक गरीब, मुहताज देश के लिए जो राइफलों तक के  लिए विदेशों का मुंह  ताकता है, टैंक, हवाईजहाजों, तोपों, जलपोतों, पनडुब्बियों की तो बात छोड़ ही दें.

नरेंद्र मोदी के लिए चुनाव का मुद्दा उन के पिछले 5 वर्षों के काम होना चाहिए. जब उन्होंने पिछले हर प्रधानमंत्री से कई गुना अच्छा काम किया है, जैसा कि उन का दावा है, तो उन्हें चौकीदार बन कर आक्रमण करने की जरूरत ही क्या है? लोग अच्छी सरकार को तो वैसे ही वोटे देते हैं. ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक बिना धार्मिक दंगे कराए चुनाव दर चुनाव जीतते आ रहे हैं. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का दबदबा बिना सेना, बिना डंडे, बिना खूनखराबे के बना हुआ है.

ह भी पढ़ेंखूबसूरत दिखने की होड़ क्यों?

नरेंद्र मोदी को खुद को मजबूत प्रधानमंत्री, मेहनती प्रधानमंत्री, हिम्मतवाला प्रधानमंत्री, चौकीदार प्रधानमंत्री, करप्शनफ्री प्रधानमंत्री कहने की जरूरत ही नहीं है, सैनिक कार्यवाही की तो बिलकुल नहीं.

रही बात पुलवामा का बदला लेने की, तो उस के बाद बालाकोट पर हमला करने के बावजूद कश्मीर में आएदिन आतंकवादी घटनाएं हो रही हैं. आतंकवादी जिस मिट्टी के बने हैं, उन्हें डराना संभव नहीं है. अमेरिका ने अफगानिस्तान, इराक, सीरिया में प्रयोग किया हुआ है. पहले वह वियतनाम से मार खा चुका है. अमेरिका के पैर निश्चितरूप से भारत से कहीं ज्यादा मजबूत हैं चाहे जौर्ज बुश और बराक ओबामा जैसे राष्ट्रपतियों की छातियां 56 इंच की न रही हों. बराक ओबामा जैसे सरल, सौम्य व्यक्ति ने तो पाकिस्तान में एबटाबाद पर हमला कर ओसामा बिन लादेन को मार ही नहीं डाला था, उस की लाश तक ले गए थे जबकि उन्हें अगला चुनाव जीतना ही नहीं था.

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नरेंद्र मोदी की पार्टी राम और कृष्ण के तर्ज पर युद्ध जीतने की मंशा रखती है पर युद्ध के  बाद राम को पहले सीता को, फिर लक्ष्मण को हटाना पड़ा था और बाद में अपने ही पुत्रों लवकुश से हारना पड़ा था. महाभारत के जीते पात्र हिमालय में जा कर मरे थे और कृष्ण अपने राज्य से निकाले जाने के बाद जंगल में एक बहेलिए के तीर से मरे थे. चुनाव को जीतने का युद्ध कोई उपाय नहीं है. जनता के लिए किया गया काम चुनाव जिताता है. भाजपा को डर क्यों है कि उसे युद्ध का बहाना भी चाहिए. नरेंद्र मोदी की सरकार तो आज तक की सरकारों में सर्वश्रेष्ठ रही ही है न!

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