ये हैं 24 साल की रोशनी चौहान जो उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के छोटे से गांव कविल्ठा कालीमठ घाटी की रहने वाली हैं और देवरियाताल, चोपता तुंगनाथ, मदमहेश्वर, केदारनाथ और कालीमठ कालीशिला की ट्रैकिंग कर चुकी हैं और सैलानियों को भी इन खूबसूरत जगहों के दर्शन करा चुकी हैं.
पर रोशनी चौहान के लिए यह सब करना आसान नहीं था. साल 2013 की जून 16 और 17 तारीख को केदारनाथ इलाके में आई आसमानी आपदा ने वहां का जीवन पूरी तरह से बदल दिया था. तब जान और माल का भारी नुकसान हुआ था. गांव के गांव तबाह हो गए थे. जो लोग बचे थे वे कहीं और बसने के लिए मजबूर हो गए थे.
तब रोशनी चौहान महज 17 साल की थीं और चाहती थीं कि यह पलायन किसी तरह रुक जाए और पहाड़ पर ही लोगों खासकर महिलाओं को स्वरोजगार मिले. पर मन में आई बात को कोई राह नहीं सूझ रही थी. इसी उधेड़बुन में 3 साल बीत गए और रोशनी चौहान ने ठान लिया कि वे ट्रैकिंग का कोर्स सीखेंगी और यहीं पर रोजगार के नए मौके तलाशेंगी.
लिहाजा रोशनी चौहान ने मसूरी के हैनिफल सैंटर से ट्रैकिंग का कोर्स किया, पर काम कैसे मिले यह बड़ी समस्या थी. ऊपर से लड़की. लोगों की सोच थी कि लड़की यह जोखिम भरा काम नहीं कर सकती है. इतना पैदल कैसे चलेगी? अगर लड़कों का ग्रुप आएगा तो उसे कैसे संभालेगी?
तो इस समस्या से कैसे पार पाई? इस सवाल पर रोशनी चौहान ने बताया, “मैं ने हार नहीं मानी, क्योंकि मेरे साथ मेरा परिवार था, मेरे साथी ट्रैकर मेरे थे. तब मैं ने सोच लिया था कि मैं लोगों को यहां की संस्कृति के बारे में बताऊंगी और अपने अंदाज में उन्हें उत्तराखंड दिखाऊंगी. तब से ले कर आज तक ट्रैकिंग मेरी जिंदगी का हिस्सा बन चुका है. मेरे साथ बहुत सी महिला ट्रैकर भी जुड़ी हुई हैं.”
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ट्रैकिंग सीखने के बाद आप की जिंदगी में क्या बड़ा बदलाव आया है? इस सवाल के जवाब में रोशनी चौहान ने बताया, “ट्रैकिंग आप को नेचर से जोड़ती है. शरीर और मन मजबूत हो जाता है. लोगों को ट्रैकिंग करा कर दिल को सुकून मिलता है.
“अब बहुत से लोग ट्रैकिंग के लिए पहाड़ों पर आने लगे हैं, पर उन्हें कुछ बेसिक बातों के बारे में पता होना चाहिए. उन्हें रास्ते पर चलने, आसपास के इलाके को साफ रखने की जानकारी होनी चाहिए. प्राथमिक उपचार की समझ होनी चाहिए, क्योंकि ट्रैकिंग में ‘नो वन, आई एम द वन’ का फार्मूला काम करता है. कोई मुसीबत आने पर पहले अपनी सेफ्टी देखनी चाहिए. जब आप खुद सेफ होंगे तभी दूसरों की मदद कर पाओगे.”
“जिस ने कभी भी ट्रैक नहीं किया हो उसे पहली बार में ही बड़े ट्रैक पर नहीं जाना चाहिए. मदमहेश्वर ट्रैक का एक किस्सा है. मेरे साथ एक ग्रुप था जिन से पूछा गया था कि कौन कितनी ऊंचाई तक जा चुका है. सब का जवाब था कि वे 8,000 फुट की ऊंचाई पर जा चुके हैं.
“हम ने ट्रैक स्टार्ट किया. शाम के तकरीबन 5 बजे थे और हम जंगल के बीच में 9,000 फुट की ऊंचाई पर थे. अचानक एक लड़के की तबीयत खराब हो गई और हालात बिगड़ते देख हम ने वापस नीचे आने का फैसला लिया. वह लड़का बेहोशी की हालत में टैंट में था और हमारे पास कोई भी साधन नहीं था.
“हम ने पूरी रात ऐसे गुजारी मानो किसी डैड बौडी के साथ थे. न खाना, न पीना. अगले दिन सुबह के 11 बजे के आसपास उस लड़के के होश में आते ही हम सब के चेहरे पर जो खुशी आई, उसे सिर्फ महसूस ही किया जा सकता है.”
लोग आप से कैसे जुड़ते हैं और इस काम में आमदनी कितनी हो जाती है? इस सवाल पर रोशनी बोलीं, “जब कोई ट्रैकर अपने काम को अच्छी तरह समझ लेता है, तब वह अपनी वैबसाइट बना सकता है. वह दूसरे ट्रैकर के संपर्क में रह सकता है और उन के माध्यम से अपने लिए लोगों के ग्रुप का इंतजाम कर सकता है.
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“जहां तक कमाई की बात है तो वह फिक्स नहीं है. आने वाले ग्रुप और सीजन पर निर्भर करता है. लेकिन एक बार जब आप को लोग जानने लगते हैं तो औसतन 15,000 से 20,000 रुपए महीना की कमाई हो जाती है.”
सरकार को इस रोजगार को आगे बढ़ाने के लिए क्या करना चाहिए? इस सवाल पर रोशनी ने कहा, “सरकार जो ट्रैक बंद कर रही है, उन्हें वह खोल दे.”