निर्माता संजय छाबड़िया ने बचपन से फिल्म और फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोगों को अपने घर में आते देखा है, क्योंकि उनके पिता गोरधन छाबड़िया भी एक निर्माता रहे है. उनका सम्बन्ध हिंदी सिनेमा के प्रमुख फाइनेंसरों के साथ रहा. वे गेलेक्सी एक्सपोर्ट के साथ मिलकर ओवरसीज में फिल्में डिस्ट्रीब्यूट किया करते थे. यही वजह है कि संजय छाबडिया का भी शुरू से फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ाव रहा है.
मराठी इंडस्ट्री के साथ पिछले 20 वर्षों से फिल्मों का निर्माणकर रहे एवरेस्ट एंटरटेनमेंट के शांत और सौम्य स्वभाव के संजय छाबडिया मानते है कि मराठी इंडस्ट्री संस्कृति और कला प्रेमी है और हर तरह की फिल्में बनाना पसंद करते है, इसलिए उनके साथ काम करना उन्हें पसंद है. अभी उन्होंने मराठी फिल्म ‘महाराष्ट्र शाहिर’है, जो लोक गायक, लेखक, एक्टर साहिर साबलेकी जीवनी पर आधारित है,ऐसेअनसंग हीरो की म्यूजिकल बायोपिक फिल्म को बनाते हुए वे व्यवसाय से अधिक युवा पीड़ी को कुछ अच्छा दिखाने के बारें में सोचतेहै, क्योंकि आज के युवा इंटेलिजेंट है और उन्हें क्या देखना है, वे जानते है. संजय ने अपनी जर्नी के बारें में गृहशोभा से ख़ास बात की और बताया कि इस मैगज़ीन को वे सालों से पढ़ते आ रहे हैं. ये उन्हें उनकी माँ और उनकी पसंदीदा मैगज़ीन है.
बायोपिक में ड्रामा होना जरुरी
क्या बायोपिक बनाना कमर्शियली रिस्की नहीं होता ? पूछने पर संजय बताते है कि जिस बायोपिक में ड्रामा हो, उसे बनाने में मजा आता है. किसी बायोपिक को डॉक्यूमेंट्री बनाने से कोई उसे देखना पसंद नहीं करता और मैं बॉक्सऑफिस अपील को देखता हूँ. अंग्रेजी फिल्म ‘एल्विस’भी बायोपिक है, जिसमे ड्रामा है और दर्शकों ने काफी पसंद किया. ये मराठी फिल्म भी ड्रामा वाली म्यूजिकल बायोपिक है, जिसे सभी को पसंद आयेगा.
है चुनौतियाँ
कोविड के बाद लोग थिएटर में जाना पसंद नहीं करते और ओटीटी ने एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री को पूरी तरह से काबू में कर लिया है, ऐसे में किसी फिल्म मेकर के लिए दर्शकों को थिएटर तक लाना बड़ी चुनौती होती है. संजय कहते है कि ये वाकई एक बड़ी चुनौती है,आज थिएटर में लोग उसी फिल्म को देखने जाते है, जिसकी प्रमोशन उन्हें थिएटर तक खींचकर ले जाती है औरउन्हें लगता है कि ऐसी कोई चीज, जो इस फिल्म में है, तो वे थिएटर में जाते है. मसलन उसका संगीत अच्छा हो, उसका प्रोडक्शन स्केल बड़ा हो,जो घर पर देख पाना संभव नहीं,फिल्म की एक्टिंग में जो लोग जुड़े है, वे बड़े हो, तब जाते है. पेंडेमिक के बाद बहुत कठिन हो चुका है, हर फिल्म को देखने दर्शक हॉल तक नहीं जाते. आज के दर्शक स्मार्ट हो चुके है, वे चुनते है कि कौन सी फिल्म में उन्हें जाना है,किसमें नहीं. ऑडियंस आज चूजी हो चुका है. छोटी फिल्मों के लिए तो ऑडियंस को हॉल तक खीच लाना बहुत चुनौती होती है.
हूँ प्रेरित मराठी संस्कृति से
मराठी संस्कृति से संजय बहुत प्रेरित हूँ उनका कहना है कि महाराष्ट्र का कल्चर बहुत ही अच्छा है, यहाँ के थिएटर से लेकर फिल्में सभी इनकी संस्कृति को दिखाती हुई होती है, इतना ही नहीं मैंने कई संभ्रांत परिवार के बच्चों को भी मराठी में बोलते हुए देखा है,जबकि दूसरे रीजनल कम्युनिटी में बच्चे हिंदी और अंग्रेजी ही बोलते है. साहित्य इनका बहुत रिच है.
मिली प्रेरणा
फिल्म निर्माण की प्रेरणा के बारें में पूछने पर संजय कहते है कि मैं इस व्यवसाय में पिछले 20 वर्षों से हूँ. मैंने वर्ष 2003 में शुरुआत की थी. हमने एक होम वीडियो पब्लिशिंग कंपनी एवरेस्ट मल्टीमीडियाके रूप में शुरुआत की थी, तीन साल की छोटी अवधि में 125 से अधिक फिल्मों की एक मजबूत वीडियो लाइब्रेरी का निर्माण किया, जिसमें ‘खुदा गवाह’, ‘आंखें’, ‘अर्जुन’, ‘शोला और शबनम’, ‘जैसी फिल्में शामिल है. नागिन’, ‘जानी दुश्मन’, ‘कटी पतंग’, ‘अमानुष’ और ‘नरम गरम’ आदि फिल्में जो एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री की अच्छी मनोरंजक फिल्मों में जानी जाती है. इसके बाद मैंने मराठी इंडस्ट्री की ओर रुख किया, क्योंकि तबतक मराठी फिल्मों का डिस्ट्रीब्यूशन अच्छी तरह नहीं हो पा रहा था और मेरे लिए ये एक अच्छा अवसर था. मैंनेइसे आगे लाने में पूरी मेहनत की है. मराठी इंडस्ट्री से मुझे सम्मान मिला है. अभी मैं बहुत सारी मेनस्ट्रीम की फिल्में कर रहा हूँ.मैं साल में करीब 4 फिल्में प्रोडक्शन करने की कोशिश करता हूँ. मैंने कई पुरस्कार भी जीते हैं.
संजय आगे कहते है कि वे दिन गए जब व्यावसायिक वजहों को अधिक देखा जाता था और फिल्मों में सुपरस्टार की मुख्य भूमिका होना जरुरी माना जाता था. अभी हर कलाकार सुपरस्टार है. कहानी और विषय अब जरुरी है, क्योंकि दर्शक इंटेलिजेंट है. कहानी मजबूतहोने पर हमें सुपरस्टार की आवश्यकता नहीं होती.इसलिए मैंने कई महिला प्रधान फिल्मों का भी निर्माण किया है.आगे दो मराठी फिल्मे, वेब सीरीज, गुजराती फिल्म बना रहे है.
मिली सफलता
मराठी इंडस्ट्री में जाने के लिए फिल्ममेकर संजय छाबडिया को एक हिम्मत की आवश्यकता थी, क्योंकि इसके रीजनल सेगमेंट और उसके डिस्ट्रीब्यूशन को समझना आसान नहीं था, जिसमे स्टोरीटेलिंग, फिल्मों का निर्माण, दर्शकों की रूचि आदि को समझने में भी काफी समय लगा. वे कहते है कि मैंने सबसे पहले महेश मांजरेकर की महत्वाकांक्षी पुस्तक ‘मी शिवाजीराजे भोसले बोल्तॉय’ की फिल्म के निर्माण में हाथ बढाया. फिल्म बॉक्सऑफिस पर हिट हुई, क्योंकि यह फिल्म न केवल अब तक की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली मराठी फिल्म बनी,बल्कि इसने कई लोगों को प्रेरित भी किया.इसके बाद ‘शिक्षणच्या आइचा घो’, ‘मोरया’ और ‘तुकाराम’ जैसे यादगार क्लासिक्स फिल्मों का प्रोडक्शन किया, जिन्हें समीक्षकों के साथ-साथ व्यावसायिक सफलता भी मिली. मैं फिल्में पैशन के साथ बनाता हूँ, व्यावसायिक दृष्टिकोण को अधिक नहीं देखता. मुझे कहने में ख़ुशी होती है कि फिल्ममेकर राजकुमार हिरानी की फिल्में ऐसी होती है, जो एक अच्छी फिल्म होने के साथ-साथ अच्छा व्यवसाय भी करती है. सभी फिल्ममेकर को ऐसी कोशिश हमेशा करनी चाहिए.
मिलकर करें काम
संजय कहते है कि कॉर्पोरेट और इंडिपेंडेंट फिल्ममेकर दोनों को साथ मिलकर काम करना चाहिए, क्योंकि एक इंडिपेंडेंट फिल्ममेकर अपने बलबूते और रिस्क पर पैसा लगाता है, फिल्म रिलीज करता है. इसमें इंडिपेंडेंट फिल्ममेकर स्टोरी, स्टारकास्ट और दर्शकों के रुझान पर बहुत अच्छी तरह से सोच-विचार करता है, क्योंकि खुद का पैसा लगाता है. कॉर्पोरेट भी छानबीन करता है,लेकिन उनका एक अलग स्टाइल ऑफ़ वर्किंग होता है.उनके काम लेने के तरीके, डिस्ट्रीब्यूशन और इंफ्रास्ट्रक्चर अच्छी होती है. दोनों की अच्छी पार्टनरशिप होने पर दोनों को लाभ होता है और आजकल ये हिंदी और साउथ की फिल्मों में हो भी रहा है. क्रिएटिविटी का ज्ञान, जो इंडिपेंडेंट फिल्ममेकर के पास होता है, कोर्पोरेट के पास नहीं होता. एक इंडिपेंडेंट फिल्ममेकर के पास क्रिएटिव एबिलिटी, अच्छी कहानियां और फिल्मे बनाने की ताकत होती है, जबकि कॉर्पोरेट की ताकत है, अच्छी तरह से लोगों के पास फिल्म को पहुँचाना. दोनों में ही खूबियाँ और खामियां है,इसलिए दोनों को मिलकर काम करना जरुरी है.