नवीन ने मुझे प्यार से देखा था. फिर बाबूजी को और मुझे लिवा कर अंदर आ गए थे. गुजरते हुए चंदन के मित्रों ने मु झे देखा तो चंदन की भी नजर घूम गई. अवाक् और हतप्रभ सा वह मु झे देखता ही रह गया.
जाने क्यों उस का या उस के दोस्तों का यों देखना मुझे बुरा नहीं लगा. आज पहली बार मेरे सौंदर्य ने लोगों को ही नहीं, मुझे भी अभिभूत किया हुआ था. फिर पूरी पार्टी के बीच किसी न किसी बहाने से चंदन मेरे आसपास मंडराता रहा. मु झे स्वयं उस का सामीप्य बहुत अच्छा लग रहा था.
वह उम्र थी भी तो ऐसी जो किसी के बस में नहीं होती. न कालेज, न स्कूल, न सखीसहेलियां. दिल का हाल सुनाती भी तो किसे? सबकुछ तो उस पुराने शहर में छूट गया था.
रातभर करवटें बदलते हुए मैं ने चंदन के ही सपने देखे. जागते हुए सपने, उस का नीला सूट, गोरा रंग, मुसकराहट और आंखों का चुंबकीय आकर्षण...बारबार मुझे विभोर कर देते.
नवीन के प्रति मेरे मन में श्रद्धा थी, जिसे देख कर मन में शीतलता उत्पन्न होती थी. मगर चंदन को देखते ही गले में कुछ फंसने लगता था. पूरा शरीर रोमांचित और गरम हो उठता. शायद यह प्रथम प्रेम का आकर्षण था.
उस दिन हलकी घटा छाई हुई थी. शाम का समय था. बच्चे भी पढ़ने नहीं आए थे. बाबूजी प्रैस गए हुए थे और मां अचारबडि़यों का हिसाब करने दुकानदार के पास.
मैं अकेली कमरे में लेटी चंदन के ही सपने में खोई थी. पता नहीं, मैं गलत थी या सही. पर चंदन को भुला पाना अब मेरे बस में नहीं था. इधर चंदन एकाध बार किसी न किसी बहाने घर आ चुका था. तब मां या बाबूजी होते.