रामसिंह धीरेधीरे मुसाफिर बन गया. अब उस की रोटी बड़ी दूरदूर बिखर गई थी, जिसे चुनने उसे दूरदूर जाना पड़ता था. लंबी सवारी मिल जाती तो अकसर हफ्ताहफ्ता वह आता ही नहीं था और जब भी आता अपनी सारी कमाई मेरे हवाले कर लौट जाता. उस की जमीन के कागज भी मेरे ही पास पडे़ थे. धीरेधीरे वह हमारे परिवार का ही सदस्य बन गया. वह जहां भी होता हमें अपना अतापता बताता रहता. जिस दिन उसे आना होता था मेरी पत्नी उस की पसंद का ही कुछ विशेष बना लेती.
हमारी बेटियां भी धीरेधीरे उसे अपना भाई मान चुकी थीं. मेरे पैर का टूटना और रामसिंह का जीजान से मेरी सेवा करना भी उन्हें अभिभूत कर गया था.
एक शाम वापस आया तो वह बेहद थका सा लगा था. उस शाम उस ने अपने पैसे भी मुझे नहीं दिए और कुछ खा भी नहीं पाया. पिछले 3-4 महीने में आदत सी हो गई थी न रामसिंह की बातें सुनने की, उस की बड़ीबड़ी बातों पर जरा रुक कर पुन: सोचने की. आधी रात हो गई थी, खटका सा लगा बाहर बरामदे में. कौन हो सकता है यही देखने को मैं बाहर गया तो बरामदे की सीढि़यों पर रामसिंह चुपचाप बैठा था.
‘‘क्या बात है, बेटा? बाहर सर्दी में क्यों बैठा है? उठ, चल अंदर चल,’’ और हाथ पकड़ कर उसे अपने साथ ले आया.
मेरी पत्नी भी उठ कर बैठ गई. अपना शाल उस पर ओढ़ा कर पास बिठा लिया. रो पड़ा था रामसिंह. पत्नी ने माथा सहला दिया तो सहसा उस की गोद में समा कर वह चीखचीख कर रोने लगा और हम दोनों उस की पीठ सहलाते रहे. पहली बार इस तरह उसे रोते देख रहे थे हम.