अस्पताल रह कर चारू लौटी तो अपने ही कमरे में कैद हो कर रह गई. परेशान हो गया था अनुराग. एक दिन मैं ने फोन किया तो बेचारा रो पड़ा था.
‘‘अच्छीभली हमारे घर आई थी. मायके में सारा घर चारू ही संभालती थी. मैं इस सच को अच्छी तरह जानता हूं. हमारे घर आई तो चाय का कप बनाते भी उस के हाथ कांपते हैं. ऐसा क्यों हो रहा है, मौसी?’’
‘‘उसे दीदी से दूर ले जा. मेरी बात मान, बेटा.’’
‘‘मम्मी तो उस की देखभाल करती हैं. बेचारी चारू की चिंता में आधी हो गई हैं.’’
‘‘यही तो समस्या है, अनुराग बेटा. शोभा तेरी मां हैं तो मेरी बड़ी बहन भी हैं, जिन्हें मैं बचपन से जानती हूं. मेरी बात मान तो तू चारू को कहीं और ले जा या कुछ दिन के लिए मेरे घर छोड़ दे. कुछ भी कर अगर चारू को बचाना चाहता है तो, चाहे अपनी मां से झूठ ही बोल.’’
अनुराग असमंजस में था मगर बचपन से मेरे करीब होने की वजह से मुझ पर विश्वास भी करता था. टूर पर ले जाने के बहाने वह चारू को अपने साथ मेरे घर पर ले आया तो चारू को मैले कपड़ों में देख कर मुझे अफसोफ हुआ था.
‘‘मौसी, आप क्या समझाना चाहती हैं...मेरे दिमाग में ही नहीं आ रहा है.’’
‘‘बस, अब तुम चिंता मत करो. तुम्हारा 15 दिन का टूर है और दीदी को यही पता है कि चारू तुम्हारे साथ है, 15 दिन बाद चारू को यहां से ले जाना.’’
अनुराग चला गया. जाते समय वह मुड़मुड़ कर चारू को देखता रहा पर वह उसे छोड़ने भी नहीं गई. 6-7 महीने ही तो हुए थे शादी को पर पति के विछोह की कोई भी पीड़ा चारू के चेहरे पर नहीं थी. चूंकि मेरे दोनों बेटे बाहर पढ़ते हैं और पति शाम को ही घर पर आने वाले थे इसीलिए हम दोनों उस समय अकेली ही थीं.