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लेखिका- शकीला एस. हुसैन

फिर 40वां आया (40 दिन बाद की रस्म)  एक दिन पहले ही सास और ननद जुबेदा के पास आ कर बड़ी मुहब्बत से बातें करने लगीं. उस की सेहत की फिक्र करने लगीं. फिर सास धीरे से बोलीं, ‘‘जुबेदा बेटी, कल इमरान की 40वें की रस्म है. यह बहुत धूमधाम से करनी होती है. यह आखिरी काज है. तुम 40 हजार का एक चैक भर दो ताकि यह प्रोग्राम भी शानदार तरीके से हो जाए. करीब 200 लोगों को बुलाना पड़ेगा. रिश्तेदार भी फलमिठाई वगैरह लाएंगे, पर खाना तो अपने को पकाना पड़ेगा.’’

जुबेदा ने सोचते हुए कहा, ‘‘अम्मां, ऐक्सीडैंट के वक्त मैं ने 1 लाख का चैक सुभान भाई को दिया था. उस में से कर लीजिए 40वें का इंतजाम. अब बैंक में मुश्किल 70-80 हजार होगें जो मेरी बड़ी मेहनत से की गई बचत है. इमरान का वेतन तो घर खर्च व उन के अपने खर्च में ही खत्म हो जाता था.’’

‘‘हां तुम ने 1 लाख दिए थे. उन में से 35-40 हजार तो अस्पताल का बिल बना. 12-13 हजार बाइक ठीक होने में लगे. बाकी पैसे सियूम की फातेहा में खर्च हो गए.’’

जुबेदा ने धीमे से कहा, ‘‘अम्मां मरने वाला तो मर गया... यह गम कितना बड़ा है मेरा दिल जानता है पर इस गम में लोगों को बुला कर खानेपिलाने में खर्च करने का क्या फायदा?’’

‘‘अपना ज्ञान अपने पास रखो. यह 40वां करना जरूरी है. इस से इमरान की रूह को शांति मिलेगी और जितने लोग खाएंगे सब उस के लिए दुआ भी करेंगे.’’

जुबेदा को मजबूरन एक चैक भर कर देना पड़ा पर उस ने सिर्फ 30 हजार भरे. सास व ननद का मुंह बन गया. अभी उस के सामने कई खर्चे थे. एक साल पहले उस ने एक फ्लैट बुक किया था. उस की किस्त भी भरनी थी. अभी और भी कई काम थे.

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