अपराजिता ने खत पढ़ कर वापस लिफाफे में रख दिया. रात का सन्नाटा गहराता जा रहा था, किंतु कुछ महीनों से जद्दोजहद का जो शिकंजा उस के दिलोदिमाग पर कसता जा रहा था उस की गिरफ्त अब ढीली होती जान पड़ रही थी. दूसरे दिन की सुबह बेहद दिलकश थी. रेशमी आसमान में बादलों के हाथीघोड़े से बनते प्रतीत हो रहे थे. चंद पल वह यों ही खिड़की से झांकती हुई आसमान में इन आकृतियों को बनतेबिगड़ते देखती रही. ऐसी ही आकृतियों को देखते हुए ही तो वह बचपन में मम्मी का हाथ पकड़ कर स्कूल से घर आती थी.
कल रात वाले लैगसी लैटर को पढ़ने के बाद से ही वह खुद में एक परिवर्तन महसूस कर रही थी... कहीं कोई मलाल न था कल रात से. वह जीवन को अपनी शर्तों पर जीने का निर्णय कर चुकी थी. औफिस जाने से पहले उस ने एक लंबा शावर लिया मानो कि अब तक के सभी गलत फैसलों व चिंताओं को पानी से धो कर मुक्ति पा लेना चाहती हो. प्रतीक के साथ औफिस कैंटीन में लंच लेते हुए उस ने अपना निर्णय उसे सुनाया, ‘‘प्रतीक मैं तुम्हें भुलाने का फैसला कर चुकी हूं, क्योंकि मेरी जिंदगी के रास्ते तुम से एकदम अलग हैं.’’
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‘‘यह क्या पागलपन है? कौन से हैं तुम्हारे रास्ते... जरा मैं भी तो सुनूं?’’ प्रतीक कुछ बौखला सा गया. ‘‘लेखन, भाषा, साहित्य ये हैं मेरे शौक... किसी वजह से 4 साल पहले मैं ने गलत लाइन पकड़ ली, लेकिन इस का यह अर्थ कतई नहीं कि मैं इस गलती के साथ उम्र गुजार दूं या इस के बोझ से दब कर दूसरी गलती करूं... अगर मैं ने तुम से शादी की तो वह मेरी एक और भूल होगी क्योंकि सच्चा प्यार करने वाले सामने वाले को ज्यों का त्यों अपनाते हैं. उन्हें अपने सांचे में ढाल कर अपनी पसंद और अपने तरीके उन पर नहीं थोपते.’’