लेखक- अहमद सगीर
नफीसा को तो पता ही नहीं चला कि नदीम कब उस के पास आ कर खड़ा हो गया था. जब नदीम ने उस के कंधे पर हाथ रखा तो वह चौक पड़ी और पूछा, ‘‘आप यहां पर कब आए जनाब?’’
‘‘जब तुम ने देखा,’’ कहते हुए नदीम ने नफीसा को गौर से देखा.
‘‘ऐसे क्या देख रहे हैं?’’ नफीसा ने शरारत भरे लहजे में पूछा.
‘‘तुम वाकई बहुत खूबसूरत हो. ऐसा लगता है जैसे कमरे में चांद उतर आया है,’’ नदीम ने नफीसा की आंखों में झांकते हुए कहा.
‘‘आप की दीवानगी भी निकाह के 7 साल बाद भी कम नहीं हुई है,’’ नफीसा हंसते हुए बोली.
‘‘क्या करूं, यह तुम्हारे हुस्न की ही करामात है,’’ नदीम उस की हंसी को गौर से देखे जा रहा था.
‘‘बस... बस, मेरी ज्यादा तारीफ मत कीजिए,’’ कह कर नफीसा उठ कर जाने लगी तो नदीम ने उस का हाथ पकड़ लिया.
‘‘क्या कर रहे हैं आप... कोई आ जाएगा,’’ नफीसा बोली तो नदीम ने उस का हाथ छोड़ दिया और वह मुसकराते हुए कमरे से चली गई.
रात घिर चुकी थी. न जाने क्यों रात होते ही नफीसा घबरा जाती. उसे डर सा लगने लगता. नदीम उस के बगल में सो रहा होता था, मगर उसे लगता जैसे वह उस के पास रह कर भी अकेली है.
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नफीसा सोचने लगी, ‘कितने साल गुजर गए या गुजरते जा रहे हैं... बिन बादल और प्यास से भरी जिंदगी में पानी तलाशते हुए हवा के साथ मैं बहुत दूर निकल जाती हूं, मगर मुझे कोई सहारा नजर नहीं आता है. बारिश का एक कतरा सीप के अंदर मोती पैदा कर देता है... मगर मैं?’