यों तो आज के युग में लगभग सभी के अंदर धैर्य अथवा पैशेंस कम होता जा रहा है, किंतु महिलाएं, जिन से हमेशा से कुछ अधिक सहनशील होने की अपेक्षा की जाती थी, उन में यह भावना बहुत तेजी से घटती जा रही है. कुछ दशक पहले तक महिलाएं परंपराओं, मान्यताओं और संस्कारों में बंधी अपनी निर्धारित परिधि के अंदर बहुत कुछ सहन करती थीं, किंतु आज की आजादखयाल महिलाएं इन मान्यताओं से बहुत दूर जाती दिख रही हैं. परिवार में मांबाप की बात न मानना, ससुराल में सब को फौर ग्रांटेड लेना, पति तथा बच्चों के साथ बातबात में धीरज खोना उन की आदत बनती जा रही है. घर में नौकर, ड्राइवर, रसोइए किसी की भी छोटी सी गलती के लिए उसे एक मौका दिए बिना फौरन निकाल कर दूसरा रख लेती हैं.
आफिस में जहां अपने बौस की बौसिज्म को अधिक बरदाश्त न कर पाने की वजह से एक नौकरी छोड़ कर दूसरी नौकरी तलाशती हैं, वहीं अपने जूनियर कर्मचारियों पर बातबात पर रोब जमाती हैं. यही रवैया दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ भी है. ‘तू नहीं और सही’ के फार्मूले पर विश्वास करती ये महिलाएं किसी भी रिश्ते के लिए रुकना नहीं जानतीं. वैवाहिक सलाहकार शमिता बैनर्जी के अनुसार, ‘‘आजकल तलाक की बढ़ती तादाद की वजह अकसर महिलाओं का शौर्ट टेंपर्ड होना है.’’
बदलाव की वजह
आज शिक्षा और ग्लोबलाइजेशन की वजह से बहुत सी चीजों के माने बदल रहे हैं. महिलाओं का कार्यक्षेत्र विस्तृत हुआ है, जिस की वजह से उन की मानसिकता भी बदलने लगी है. वे अपने कर्तव्यों के साथ ही अपने अधिकारों के लिए भी अधिक जागरूक हो रही हैं. बचपन से ही संपन्न और सुविधाजनक जीवन जीने की आदी आज की पीढ़ी को किसी भी फालतू चीज के लिए टाइम वेस्ट करना बेमानी लगता है. वैज्ञानिक प्रगति ने उन्हें आसान और बिना चुनौतियों के जिंदगी जीने की आदत डाल दी है. आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने से महिलाओं में स्वयं निर्णय लेने की क्षमता बढ़ रही है. वे पुरुषों के वर्चस्व वाले समाज में ‘खुदमुख्तार’ वाली भूमिका अपना रही हैं. अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के चलते वे एक विकल्प साथ रख कर जीने में विश्वास रखती हैं.