लेखक- मंगला रामचंद्रन
कहते हुए शिंदे साहब अपना पसीना पोंछते हुए ‘धप’ से सोफे में धंस गए. गोमा तिरछी नजरों से उन्हें एकटक देखता रहा. ‘लाल मुंह का बंदर... इस के खून में जरूर अंगरेजों का खून मिला होगा, नहीं तो ऐसा लाल भभूका मुंह नहीं हो सकता,’ गोमा सोचते हुए मुसकरा उठा.
शिंदे साहब की नजर गोमा पर पड़ी, तो उस की तिरछी नजर देख कर उन के तनबदन में आग लग गई. वे चिल्लाए, ‘‘अरे कैसा बेशर्म है तू, इतनी मार खा कर भी कोई असर नहीं हुआ?’’
शिंदे साहब को गुस्सा तो बहुत आ रहा था और इच्छा भी हो रही थी कि गोमा का खून कर दें, पर वे ऐसा नहीं कर सकते, यह बात वे दोनों जानते थे.
गोमा शराब पीता था, पर तनख्वाह मिलते ही... और वह भी 2 दिन तक. उस के बाद अगली तनख्वाह के मिलने तक शराब को मुंह नहीं लगाता था. लगाता भी कैसे? पैसे मिलते ही घर में खर्च के लिए कुछ पैसे दे कर एक बार जो पीने के लिए जाता, तो तीसरे दिन होश आने पर खुद को किसी नाले या गटर में पाता. फिर उसे साहब का और खुद का घर याद आता.
शिंदे साहब के घर पहुंचते ही हर महीने मेम साहब से पड़ने वाली नियमित डांट सुनने को मिलती कि पिछले 3 दिन से कहां रहे? यहां काम कौन करेगा? इस तरह शराब में धुत्त रहोगे तो साहब से कह कर पिटवाऊंगी.
मेम साहब मन ही मन भुनभुनाती रहतीं और गोमा चुपचाप अपना काम करता जाता मानो वे किसी और को सुना रही हों. इन के जैसे कितने ही साहब और मेम साहब के लिए गोमा काम कर चुका है. उन लोगों का गुजारा गोमा जैसे लोगों के बिना मुमकिन नहीं है.