“बच्चे नहीं दिख रहे इला? कहां गए हैं?”
“दोस्तों के साथ डिनर पर गए हैं.”
“तुम उदास सी लग रही हो. क्या बात है?”
“कुछ नहीं, सुवीर. यहां तो मेरे कोई दोस्त ही नहीं बचे. या तो सब बाहर बस गए हैं या सब दूरदूर ही हैं. फोन पर भी कोई कितना बात करे,” मैं ने एक ठंडी सी सांस लेते हुए कहा.
सुवीर ने जैसे पति धर्म निभाते हुए मुझे तसल्ली दी, “अरे, ऐसा क्यों कहती हो? चलो, बताओ, कहां जाना है?”
“तुम तो पति हो, मेरे दोस्त थोड़े ही हो.”
“अरे डार्लिंग, ऐसा क्यों सोच रही हो? पतिपत्नी भी अच्छे दोस्त हो सकते हैं.”
“नहीं, मुझे नहीं लगता.”
“अच्छा, बताओ तो ज़रा. पतिपत्नी एकदूसरे के दोस्त क्यों नहीं हो सकते? इतनी अच्छी तरह से एकदूसरे को जानने वाले, रोज साथ में रहने वाले दो लोग दोस्त क्यों नहीं हो सकते?”
“दोस्तों से तो हम अपने मन की बातें आराम से कर सकते हैं.”
“अरे, तो क्या तुम अपने मन की बातें मुझ से नहीं करतीं?”
मैं चुप रही. यह शनिवार की शाम की बात है. सुवीर शायद आज कुछ ज़्यादा ही फ्री थे, पर इतनी बात क्यों कर रहे हैं मुझ से? मैं ने इधरउधर नजर डाली, उन के हाथ देखे, समझ आया, फोन चार्जिंग में लगा कर आए हैं, अब टाइम पास कर रहे हैं. कितने चालाक हैं. फोन हाथ में होता है तो किसी और बात में ज़नाब का मन नहीं लगता. हर समय सोशल मीडिया पर रहने वाले इनसान हैं.
सुवीर अचानक मेरे पास आ कर बैठ गए और मेरी गोद में सिर रख कर लेट गए. बच्चों के घर में न होने का फायदा उठाने के मूड में आए ही थे कि मैं ने फिर पूछ लिया, शायद मेरी मति मारी गई थी, “सचमुच तुम्हें लगता है कि पतिपत्नी अच्छे दोस्त हो सकते हैं? कल संडे है, हम कल एकदूसरे के साथ पूरा दिन ऐसे रह कर देखें जैसे अपने दोस्तों के साथ रहते हैं? एक दिन के दोस्त बन कर देखें?”