पतंजलि उद्योग चलाने वाले भगवाई नेतानुमा उद्योगपति का पुत्रजीवक दवा बनाना कोई गुनाह नहीं है कि इस पर इतना बवाल मचाया जाए. रामदेव वही कर रहे हैं जो हिंदू धर्म सदियों से सिखा रहा है- पुत्रों को वरीयता दो, पुत्रियों को पाप का घड़ा मानो. हमारी संस्कृति में पुत्र ही महान, पुत्री को बोझ, दान की वस्तु, भोग्या माना जाता है. यह बात झूठ तो नहीं है कि भारतीय समाज में पुत्र को ही वरीयता दी जाती है और उसी के लिए सौभाग्यवती शब्द बारबार दोहराया जाता है. औरत वही सफल होती है जो पुत्र को जन्म दे, बारबार दे और देतेदेते चाहे बीमार पड़ कर मर जाए.
हिंदू धर्म ही नहीं, अन्य धर्म भी पुत्रमोह के शिकार हैं. दुनिया भर में औरतों को अधिकार तब मिले हैं जब मुद्रित पुस्तकों की बदौलत विचारों की क्रांति आई है. पहल समाज सुधारकों ने की, जिन्होंने समझ लिया कि समाज की उन्नति तब ही हो सकती है जब स्त्रीपुरुष दोनों कंधे से कंधा मिला कर चलें. एक अगर शारीरिक रूप से कमजोर हो तो भी उतनी कमजोर नहीं कि उस को गाय की तरह हांका जा सके. औरतें समाज की नींव हैं, जिस पर पुरुष अपना महल खड़ा करते हैं. जो घरपरिवार या समाज औरतों को सही स्थान नहीं देता वह पिछड़ता चला जाता है. आज 21वीं सदी में भी इसलामिक देश अगर पीछे हैं और केवल प्रकृति की अनजानी देन तेल के कारण गड़रिए ही नहीं रह गए तो विशेषतया इसीलिए कि उन्होंने औरतों में छिपी प्रतिभा का इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया. यूरोप में जब से औरतों को सही स्थान मिलना शुरू हुआ तब से उन्होंने मुसलिम लड़ाकों को पछाड़ ही नहीं दिया, अपनी उच्च तकनीक के दम पर उन पर राज कर लिया. वियतनाम जैसा छोटा सा देश अगर अमेरिका से लड़ पाया तो इसलिए कि उस ने अपनी औरतों को लड़ाई में पूरी तरह झोंक दिया. जो समाज औरतों को बंद कर के रखेगा, वह अपना समय और शक्ति तो औरतों को काबू में रखने के लिए गंवा देगा. जहां औरतें उत्पादन में हाथ बंटा सकती हैं वहां उन की रखवाली करने में समय बीतेगा.