‘‘देखो विनोद, अगर तुम कल्पना से शादी करना चाहते हो, तो पहले तुम्हें अपने पिता से रजामंदी लेनी पड़गी...’’ प्रेमशंकर ने समझाते हुए कहा, ‘‘शादी में उन की रजामंदी होना बहुत जरूरी है.’’
‘‘मगर अंकल, वे इस की इजाजत नहीं देंगे,’’ विनोद ने इनकार करते हुए कहा.
‘‘क्यों नहीं देंगे इजाजत?’’ प्रेमशंकर ने सवाल पूछा, ‘‘क्या तुम उन्हें समझाओगे नहीं?’’
‘‘मैं अपने पिता की आदतों को अच्छी तरह से जानता हूं. वे कभी नहीं समझेंगे और हमारी इस शादी के लिए इजाजत भी नहीं देंगे...’’ एक बार फिर इनकार करते हुए विनोद बोला, ‘‘आप उन्हें समझा दें, तो अच्छा रहेगा.’’
‘‘मेरे समझाने से क्या वे मान जाएंगे?’’ प्रेमशंकर ने पूछा.
‘‘हां अंकल, वे मान जाएंगे,’’ यह कह कर विनोद ने गेंद उन के पाले में फेंक दी.
विनोद प्रेमशंकर के मकान में किराएदार था. उसे अभी बैंक में लगे 2 साल हुए थे. इन 2 सालों में विनोद ने किराए के मामले में उन्हें कभी दिक्कत नहीं पहुंचाई थी. एक तरह से उन के घरेलू संबंध हो गए थे.
विनोद के बैंक में ही कल्पना काम करती थी. उसे भी बैंक में लगे तकरीबन 2 साल हुए थे. उम्र में वे दोनों बराबर के थे. दोनों कुंआरे थे. दोनों में कब प्यार पनपा, पता ही नहीं चला.
वे एकदूसरे के कमरे में घंटों बैठे रहते थे. दोनों ही तकरीबन 2 हजार किलोमीटर दूर से इस शहर में नौकरी करने आए थे.
कभीकभी कल्पना की मां जरूर उस के पास रहने आ जाती थीं. तब कल्पना मां से कोई बहाना कर के विनोद के कमरे में आती थी. प्रेमशंकर यह सब जानते थे.