पुराने समय में शौचालय और स्नानघर घर से बाहर आंगन के एक कोने में बने होते थे, जिस के सामने सुबहसुबह सब अपनीअपनी बारी का इंतजार करते थे. कोई इस के इंतजार में आंगन की सीढि़यों पर बैठा होता तो कोई शौचालय के बाहर खड़ा होता.
घर की महिलाएं तो सुबह बहुत जल्दी उठ कर नित्यक्रिया से मुक्त हो लेती थीं ताकि 8 और 9 बजे का वक्त जब घर के पुरुष दफ्तर आदि जाने के लिए तैयार हों तो उन को शौचालय और स्नानागार खाली मिले.
इन शौचालयों में उकड़ूं बैठने की व्यवस्था होती थी, हालांकि आज भी अधिकांश लोग इसी को बेहतर मानते हैं क्योंकि इस से पैरों और घुटनों का व्यायाम भी अच्छा होता है और पेट भी ठीक से साफ होता है. तब के शौचालयों में बस एक नल और एक छोटा डब्बा रहता था. नित्यक्रिया से फारिग हो कर हाथ धोने के लिए बाहर लगे वाशबेसिन का ही इस्तेमाल किया जाता था. इसी तरह स्नानागार में 1 या 2 नल, एकाध बालटी एक मग और कोने में बनी छोटी सी ताक पर साबुन वगैरह रखने का इंतजाम होता था. पीछे की दीवार पर एक खूंटी होती थी, जिस पर तौलिया, कपड़े लटकाते थे. बुजुर्गों के नहाने के लिए एक छोटा स्टूल रख दिया जाता था.
जब घर में आंगन खत्म होने शुरू हुए और घरों के साइज भी छोटे और दोमंजिला होने लगे तो शौचालयस्नानागार घर की सीढि़यों के नीचे बनने लगे. तब इन की ऊंचाई व साइज और भी छोटे हो गए. हाथमुंह धोने के लिए वाश बेसिन बाथरूम से बाहर ही रहा.