मेरा बचपन और युवावस्था का आरंभ लखनऊ में बीता, नवाबों के शहर की गंगाजमुनी तहजीब में. स्कूलकालेज में बिताए चुलबुले दिन, प्यारी सहेलियां अलका, मुकुल, लता, यास्मीन और तबस्सुम. हम सब मिल कर खूब मस्ती करते. साथसाथ हंसना, खेलना, खानापीना. कोई भेदभाव नहीं, हिंदूमुसलिम का भेदभाव कभी जाना ही नहीं.
18 वर्ष की होते ही मेरी शादी हो गई. मेरे पति टाटा नगर में इंजीनियर थे. सो, उन के साथ जमशेदपुर आ गई. जमशेदपुर साफसुथरा, हराभरा, चमकती सड़कों, कारखानों, मजदूरों, हर धर्म हर भाषा के लोगों और कालोनियों का शहर है. 24 घंटे बिजली, साफ पानी और यहां का साफ वातावरण मुझे भा गया. यहां का रहनसहन लखनऊ से भिन्न था. लोगों में फैशन की चमक नहीं थी, सादगी थी. कुछकुछ बंगाली संस्कृति की झलक थी.
एक बात बड़ी अजीब लगी यहां, मुसलिम और हिंदू बस्तियां अलगअलग थीं. इस का कारण था 1964 का दंगा, जिस के बाद डर के कारण मुसलमानों ने अपनी बस्तियां बनाईं. आजाद नगर एक बड़ी मुसलिम बस्ती है. हिंदू बस्तियां बनीं. शहर टाटा कंपनी के लिए बसाया गया. यहां काम करने वालों के लिए कालोनियां बनाई गई हैं. परंतु मुसलिम दंगों के डर से कालोनियों में कम रहते हैं.
सिनियोरिटी पौइंट्स पर मकान मिलता है. मुसलिम, कुछ इलाके हैं जहां रहना चाहते हैं. सो, वहां मकान के पौइंट्स बहुत हाई हो जाते हैं. अधिकतर लोगों को बस्तियों में ही रहना पड़ता है. आजाद बस्ती मुझे पसंद नहीं आई, पतली गलियां, खुली नालियां, कूड़े के ढेर, मच्छर, कुछ गांव का सा माहौल, कुछ खपरैल के और कुछ पक्की छत वाले घर. हम लोगों ने शहर के साक्ची इलाके में किराए का घर ले लिया. यह अच्छी कालोनी थी. अड़ोसपड़ोस अच्छा था. दाएं दक्षिण भारतीय, बांए पंजाबी, सामने बंगाली यानी पूरा भारत था.