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अब वह मन ही मन राहुल से बोलती, बतियाती रहती, जैसे वह हर वक्त उस के भीतरबाहर रह रहा हो. उस के रोमरोम में बसा हुआ हो. वह अब जो भी रसोई में पकाती, उसे लगता राहुल के लिए पका रही है, वह खाती या विनोद को खिलाती तो उसे लगता रहता, राहुल को खिला रही है. वह अपने सामने बैठे पति को अपलक ताकती रहती, जैसे उस के पीछे राहुल को निहार रही हो.

वह स्नानघर में वस्त्र उतार कर नहा रही होती तो उसे लगता रहता, राहुल उस के पोरपोर को अपनी नरम उंगलियों से छू और सहला रहा है और वह पानी की तरह ही बहने लगती.

राहुल के लिए ऊपर छत पर कोई स्नानघर नहीं था. नीचे सीढि़यां उतर कर इमारत के कर्मचारियों के लिए एक साझा स्नानघर था, जिस में उसे नहाने की अनुमति थी. वह किसी महकते साबुन से नहा कर जब सीढि़यां चढ़ता हुआ उस के फ्लैट के सामने से गुजरता तो अनायास ही वह जंगले में आ कर खड़ी हो जाती. देर तक उस के साबुन की सुगंध हवा के साथ वह अपने भीतर फेफड़ों में महसूस करती रहती. आदमी में भी कितनी महक होती है. आदमी की आदम महक और वह उस महक की दीवानी...उस में मदहोश, गाफिल.

वह जानबूझ कर विनोद के सामने कभी गलती से भी राहुल का जिक्र न करती थी. कमरे में आ जाने के बावजूद कभी उस ने विनोद के सामने उस से बात करने का प्रयास नहीं किया था. न उसे कभी चाय या खाने पर ही बुलाया था.

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